एक ज़माना वो था जब आँखों की देखा देखी के लिए शापिंग मॉल और मल्टीप्लेक्स की जगह छत और घर की छोटी सी बॉलकोनी युवाओं के लिए आदर्श स्थल हुआ करती थी। मोबाइल, चैट और ई मेल की कौन कहे तब तो पत्थर से बाँध कर पड़ोसिनों की छत पर पैगाम पहुँचाए जाते थे। हाथों का हल्का इशारा, झरोखों के पर्दों से दिखती बेचैन निगाहें या फिर एक खूबसूरत सी मुस्कान सालों चलते सो कॉल्ड चक्कर की कुल जमा पूँजी हुआ करतीं थी। पर मैं इन बातों को आपको क्यों याद दिला रहा हूँ ? शायद इसलिए कि अहमद और मोहम्मद हुसैन का गाया ये नग्मा भी वैसे ही किसी ज़माने में लिखा गया होगा।
पर इससे पहले कि हुसैन बंधुओं के इस नटखट और गुदगुदाते से नग्मे को सुना जाए समय की परिधि को १४ वर्ष पहले तक समेटने का मन हो रहा है।
बात १९९४ की है....
हम तीन मित्र जो उस वक़्त एस्कार्ट्स,फरीदाबाद में कार्यरत थे एक परीक्षा देने दिल्ली में आए। परीक्षा केंद्र था IIT दिल्ली। साथ वालों में एक बंदा दिल्ली का था और दूजा मेरठ का। परीक्षा के बाद बस से हम हॉज खास (Hauz Khas) से लाजपत नगर तक आ गए थे। अब हमें वहाँ से आश्रम के रास्ते फरीदाबाद जाने वाली बस पकड़नी थी।
अब जो भी बस जा रही थीं वो पूरी तरह ठसाठस भरी हुईं।
सो करे तो क्या करें हम ?
कभी उस तेज धूप तो कभी DTC को कोस रहे थे..
कि इत्ते में दूर से एक चार्टर्ड बस आती दिखाई दी। अमूमन ऍसी बस सिर्फ अपने रोज़ के मुसाफ़िरों को ही बैठाती हैं सो उसके वहाँ रुकने की कोई आशा नहीं थी। पर बस ज्योंही पास आई कि हम सबकी नज़र उस खूबसूरत मुखड़े पर जा अटकी जो खिड़की से हम सभी की ओर ही देख रही थी। बस फिर क्या था हम सभी के मन में शरारत सूझी और सब समवेत स्वर में उसकी ओर देख के एक साथ चिल्ला उठे...
रोको! रोको! हमें इसी बस में चढ़ना है !
अब दिल्ली के बस कंडक्टर तो ऍसे ही इतने ही कठोर हृदय वाले ठहरे सो भला बस क्यूँ रुकती पर हम भी जान लगाकर बस के साथ ऍसे दौड़े कि आज तो बस में इन्ट्री ले ही लेंगे। पर दौड़ना तो एक बहाना था, बस मोहतरमा का ध्यान अपनी ओर खींचना था।
और हमारा दौड़ना व्यर्थ नहीं गया क्योंकि तोहफे में मिली हमें एक उनमुक्त सी खिलखिलाती हँसी जिसे देख कर हम निहाल हो गए :)।
जिंदगी की यादों में क़ैद ये लमहे जब भी ज़ेहन की वादियों में उभरते हैं, मन में खुशमिज़ाजी आ जाती है। और ये नग्मा जिसे अस्सी के दशक में पहली बार सुना था, बहुत कुछ ऍसा ही अह्सास दिला जाता है
वो जिंदगी में क़मर की तरह से रौशन हैं
कि उसी के अक़्स से शफ्फाक़ दिल का दर्पण है
हसीं शरीक ए सफ़र है बहुत मुबारक है
उसी के साथ तो मेरा जनम का बंधन है
इलाही कोई हवा का झोंका
दिखा दे चेहरा उड़ा के आँचल
जो झाँकता है भी वो सितमगर
वो खिड़कियों में लगा के आँचल
सुनी जो कदमों के मेरे आहट
तो जा के चुपके से सो गए वो
सो गए वो...
जो मैंने तलवों में गुदगुदाया
पलट दिया मुसकुराकर आँचल
इलाही कोई हवा का झोंका......
गुरूर ढाएगा कोई कितना
गुरूर महशत बपा करेगा
गुरूर ढाएगा ...
ये तेरा आठखेलियों से चलना
झुका के गर्दन गिरा के आँचल
इलाही कोई हवा का झोंका......
जुरूर है माज़रा ये कोई
वो रहते हैं दूर दूर हमसे
दूर दूर................
जो पास आकर भी बैठते हैं
तो हर तरफ से दबा का आँचल
इलाही कोई हवा का झोंका......
12 टिप्पणियाँ:
ऐसी यादों के लिए बहुत सही गाना चुना आपने. बड़ी मजेदार यादें होती है ऐसे दिनों की :-)
ओय होय होय ।
अजीब बात है न .ऐसे ही एक बुर्के में छिपा चेहरा जो बस पल भर के लिए दिखा था आज तक हमें भी याद है...
यादों मे खोते खोते बेहतरीन आइटम सुनवा गये आप!!
आप की किस्सागोही का कोई जबाब नहीं.
बहोत खूब मज़ा आयगा दोनों बंधुओं को सुनके मैं तो बचपन से ही इनका मुरीद रहा हूँ ये तो आपका एहसान जैसा है मेरे ऊपर... बहोत बहोत बधाई...
अर्श
दीपावली और नूतन वर्ष की शुभकामनाएँ
सुँदर गीत सुनवाया :)
अच्छी यादों के साथ अच्छा गीत भी शेयर किया। शुक्रिया।
इलाही कोई हवा का झोंका
दिखा दे चेहरा उड़ा के आँचल
जो झाँकता है भी वो सितमगर
वो खिड़कियों में लगा के आँचल
khuub post !!!
बढिया!!
mazedaar............aha..
अब दिल्ली के बस कंडक्टर तो ऍसे ही इतने ही कठोर हृदय वाले ठहरे
मधुर यादें और बहुत सुंदर गीत!
मनीष भाई, बहुत ही खुबसूरत ग़ज़ल है...सुन कर बहुत अच्छा लगा...इसे कैसे डाउनलोड करें, बताने की कृपा करें. -amrish2jan@gmail.com
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