आज जबकि मुंबई में हाल की घटनाओं ने पूरे देश को ही झकझोर कर रख दिया है तो प्रसून इससे अछूते कैसे रहते ? तो आइए पढ़ें उनकी पीड़ा को व्यक्त करती ये कविता जिसके भावों को हम सब भारतवासी तहेदिल से महसूस कर रहे हैं..
इस बार नहीं
इस बार जब वह छोटी सी बच्ची
मेरे पास अपनी खरोंच लेकर आएगी
मैं उसे फू-फू करके नहीं बहलाऊँगा
पनपने दूँगा उसकी टीस को
इस बार नहीं
इस बार जब मैं चेहरों पर दर्द लिखूँगा
नहीं गाऊँगा गीत पीड़ा भुला देने वाले
दर्द को रिसने दूँगा
उतरने दूँगा गहरे
इस बार नहीं
इस बार मैं ना मरहम लगाऊँगा
ना ही उठाऊँगा रुई के फाहे
और ना ही कहूँगा कि तुम आंखे बंद कर लो,
गर्दन उधर कर लो मैं दवा लगाता हूँ
देखने दूँगा सबको
हम सबको
खुले नंगे घाव
इस बार नहीं
इस बार जब उलझनें देखूँगा,
छटपटाहट देखूँगा
नहीं दौड़ूँगा उलझी डोर लपेटने
उलझने दूँगा जब तक उलझ सके
इस बार नहीं
इस बार कर्म का हवाला दे कर नहीं उठाऊँगा औज़ार
नहीं करूँगा फिर से एक नई शुरुआत
नहीं बनूँगा मिसाल एक कर्मयोगी की
नहीं आने दूँगा ज़िंदगी को आसानी से पटरी पर
उतरने दूँगा उसे कीचड़ में, टेढ़े-मेढ़े रास्तों पे
नहीं सूखने दूँगा दीवारों पर लगा खून
हल्का नहीं पड़ने दूँगा उसका रंग
इस बार नहीं बनने दूँगा उसे इतना लाचार
की पान की पीक और खून का फ़र्क ही ख़त्म हो जाए
इस बार नहीं .....
इस बार घावों को देखना है
गौर से
थोड़ा लंबे वक्त तक
कुछ फ़ैसले
और उसके बाद हौसले
कहीं तो शुरुआत करनी ही होगी
इस बार यही तय किया है
इस बार जब वह छोटी सी बच्ची
मेरे पास अपनी खरोंच लेकर आएगी
मैं उसे फू-फू करके नहीं बहलाऊँगा
पनपने दूँगा उसकी टीस को
इस बार नहीं
इस बार जब मैं चेहरों पर दर्द लिखूँगा
नहीं गाऊँगा गीत पीड़ा भुला देने वाले
दर्द को रिसने दूँगा
उतरने दूँगा गहरे
इस बार नहीं
इस बार मैं ना मरहम लगाऊँगा
ना ही उठाऊँगा रुई के फाहे
और ना ही कहूँगा कि तुम आंखे बंद कर लो,
गर्दन उधर कर लो मैं दवा लगाता हूँ
देखने दूँगा सबको
हम सबको
खुले नंगे घाव
इस बार नहीं
इस बार जब उलझनें देखूँगा,
छटपटाहट देखूँगा
नहीं दौड़ूँगा उलझी डोर लपेटने
उलझने दूँगा जब तक उलझ सके
इस बार नहीं
इस बार कर्म का हवाला दे कर नहीं उठाऊँगा औज़ार
नहीं करूँगा फिर से एक नई शुरुआत
नहीं बनूँगा मिसाल एक कर्मयोगी की
नहीं आने दूँगा ज़िंदगी को आसानी से पटरी पर
उतरने दूँगा उसे कीचड़ में, टेढ़े-मेढ़े रास्तों पे
नहीं सूखने दूँगा दीवारों पर लगा खून
हल्का नहीं पड़ने दूँगा उसका रंग
इस बार नहीं बनने दूँगा उसे इतना लाचार
की पान की पीक और खून का फ़र्क ही ख़त्म हो जाए
इस बार नहीं .....
इस बार घावों को देखना है
गौर से
थोड़ा लंबे वक्त तक
कुछ फ़ैसले
और उसके बाद हौसले
कहीं तो शुरुआत करनी ही होगी
इस बार यही तय किया है
15 टिप्पणियाँ:
सुंदर कविता. पढ़वाने के लिये बहुत बहुत धन्यवाद.
अदभुत ।
Timely magar phaltu kavita. Apnee baukhalahat ko ek moorkhatapurna kavita men pasor diya hai.
Chhoti si bachhi ko marham ki zaroorat - sakht zaroorat hai. Aur iss kavita ko sudhaar ki.
मनीष जी,सुंदर कविता. पढ़वाने के लिये बहुत बहुत धन्यवाद
कहीं तो शुरुआत करनी ही होगी............
इतनी सुन्दर कविता पढ़वाने के लिए आभार।
जी पहली बार इसे बरखा दत के प्रोग्राम में सुना था ओर सच में काफ़ी भावुक क्षण था
अनाम भाई हम सभी थोड़े बहुत हताश तो हुए ही हैं इस त्रासदी से ! उसी हताशा का असर जोशी जी की कविता में भी है। यहाँ मुख्य बात किसी बच्चे को मलहम ना लगाने से ज्यादा आम नागरिकों को निरपेक्षता से सब कुछ सहते रहने की आदत से बचने की है। अगर हम संगठित होकर अपनी आवाज़ अपने नेताओं तक पहुँचाते रहेंगे तभी वे भी अपने दायित्वों के प्रति सजग होंगे। प्रसून की कविता को इसी परिपेक्ष्य में समझा जाना चाहिए।
सुंदर कविता ! रेडिफ पर पढ़ा था पहली बार.
हमने भी इस कविता को टाइम्स आफ इण्डिया में पढ़ा था.....! तभी पसंद आई थी...! बौखलाहाट तो खेर हुई ही है सबको..! और इसी बौखलाहट से रास्ते निकालने की एक उम्मीद इस कविता में...पसंद आई
Bahut badthia. By the way, aap Varshik Sangeetmala 2008 ki shuraat kab kar rahen hai?
Kish...
Ottawa, Canada
किश वार्षिक संगीतमाला जनवरी २००८ से शुरु होगी। क्या आपने पिछली संगीतमाला से जुड़ी पोस्ट्स को पढ़ा था। अच्छा लगा जानकर कि आप कनाडा के एक रेडिओ स्टेशन से जुड़े हैं
Manishbhai, yeh mahaul toh aisa hai ki marham lagane ki sakht zaroorat hai. Yeh kaam kavita hee kar sakti hai, aur agar kavi hee iss zimmedari ko nahi nibhaye, to kya kahen? Iss phaltu kavita ko bhi itna response mil raha hai iska matlab hai nirih log sakoon dhoondh rahe hain - kissi tarah, kahin se bhi.
Yeh kavita logon ko latka ke hee chhor deti hai, koi sundarta ya samadhan nahin deti. Yeh sirf ek aur Op-Ed hai, kavita nahin.
सुन्दर कविता को बाँटने के लिये धन्यवाद ।
मेरे क़ातिल मेरे दिलदार मेरे पास रहो
जिस घडी रात चले
आसमानों का लहू पी कर सियाह रात चले
मरहम-ए-मुश्क लिए, नश्तर-ए-अल्मास चले
बैन करती हुई हंसती हुई गाती निकले
दर्द का कासनी पाज़ेब बजाती निकले
जिस घड़ी सीनों में डूबते हुए दिल
आस्तीनों में निहाँ हाथों की राह तकने निकले
आस लिए,
और बच्चों के बिलखने की तरह कुल्कुल-ए-मे
बहर-ए-ना-आसूदगी मचले तो मनाए न मने
जब कोई बात बनाए न बने
जब न कोई बात चले
जिस घड़ी रात चले
जिस घड़ी मातमी सुनसान सियाह रात चले
पास रहो
मेरे क़ातिल मेरे दिलदार मेरे पास रहो
फैज़ अहमद फैज़
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