सोमवार, अप्रैल 06, 2009

अकेले देखी पहली फिल्म का वो प्यारा सा नग्मा : प्यार के मोड़ पे छोड़ोगे जो बाहें मेरी

सिनेमा देखना मेरे लिए कभी लत नहीं बना। शायद ही कभी ऍसा हुआ है कि मैंने कोई फिल्म शो के पहले ही दिन जा कर धक्का मुक्की करते हुए देख ली हो। पर इसका मतलब ये भी नहीं कि हॉल में जाकर फिल्म देखना अच्छा नहीं लगता था। बस दिक्कत मेरे साथ यही है कि मन लायक फिल्म नहीं रहने पर मुझे तीन घंटे पिक्चर झेल पाना असह्य कार्य लगता है। इसीलिए आजकल काफी तहकीकात करके ही फिल्म देखने जाता हूँ।

पर बचपन की बात दूसरी थी। दरअसल हमारे पिताजी पढ़ाई लिखाई के साथ परिवार के मनोरंजन का भी खासा ख्याल रखते थे। सो उनकी वजह से हर हफ्ते या फिर दो हफ्तों में एक बार, दो रिक्शों में सवार होकर हमारा पाँच सदस्यों का कुनबा पटना के विभिन्न सिनेमाहॉलों मोना, एलिफिस्टन, अशोक, अप्सरा और वैशाली आदि का चक्कर लगा लेता था। ये सिलसिला तब तक चला जब तक पापा का तबादला पटना से बाहर नहीं हो गया। १९८३ में रिलीज हुई राजेश खन्ना की अवतार सारे परिवार के साथ देखी गई मेरी आखिरी फिल्म थी।

एक बार दसवीं में लड़कों ने स्कूल में फ्री पीरियड का फायदा उठाकर फिल्म देखने की सोची। योजना ये थी कि फ्री पीरियड्स के समय फिल्म देख ली जाए और फिल्म की समाप्ति तक घर पर हाजिरी भी दे दी जाए। अब फिल्म भी कौन सी ? ब्रुक शील्ड की ब्लू लैगून :) । मन ही मन डर रहे थे कि सही नहीं कर रहे हैं। पर साथियों के जोश दिलाने पर स्कूल से बाहर निकल आए, पर ऍन वक़्त पर मुख्य शहर की ओर जाने वाली बस के पॉयदान पर पैर रखकर वापस खींच लिया। दोस्त बस से पुकारते रहे पर मैं अनमने मन से वापस लौट आया।

उसके बाद फिल्म देखना एक तरह से बंद ही हो गया। ८९ में इंजीनियरिंग में दाखिला हुआ तो पहली बार घर से निकले। पहले सेमस्टर की शुरुआत में कॉलेज कैंपस से बाहर जाना तो दूर, रैगिंग के डर से हम हॉस्टल के बाहर निकलना भी खतरे से खाली नहीं समझते थे। जाते भी तो कैसे, प्रायः ऐसी कहानियाँ सुनने को मिलती की लोग गए थे फिल्म देखने पर सीनियर्स ने फिरायालाल चौक पर जबरदस्ती का ट्राफिक इंस्पेक्टर बना दिया। यानि खुद का मनोरंजन करने के बजाए दूसरों की हँसी का पात्र बन गए।

खैर, एक महिने के बाद जब रैगिंग का दौर कम हो गया तो हम दोस्तों ने मिलकर एक फिल्म देखने का कार्यक्रम बनाया। पहली बार अकेले किसी फिल्म देखने के आलावा ये मौका छः साल के अंतराल के बाद सिनेमा हॉल में जाने का था। सीनियर्स से बचने के लिए स्टूडेंट बस की जगह स्टॉफ बस ली और चल दिए राँची के रतन टॉकीज की ओर।


वो फिल्म थी विधु विनोद चोपड़ा की परिंदा। इतने सालों बाद बड़े पर्दे पर फिल्म देखना बड़ा रोमांचक अनुभव रहा। नाना पाटेकर का कसा हुआ अभिनय और माधुरी दीक्षित की मासूमियत भरी खूबसूरती बहुत दिनों तक स्मृति पटल पर अंकित रही। और साथ में छाया रहा इस फिल्म में आशा और सुरेश वाडकर के स्वरों में गाया हुआ ये युगल गीत

प्यार के मोड़ पे छोड़ोगे जो बाहें मेरी
तुमको ढूँढेगी ज़माने में निगाहें मेरी


गाने की जान आशा ताई का गाया ये मुखड़ा ही था जिसके बोल और धुन सहज ही मन को आकर्षित कर लेती थी।

ये वो समय था जब फिल्म जगत ने ही आर डी बर्मन को एक चुका हुआ संगीतकार मान लिया गया था। पर इस फिल्म का संगीत काफी सराहा गया और इस गीत के आलावा तुमसे मिलके ऐसा लगा तुमसे मिलके..भी काफी पसंद किया गया। परिंदा के गीतों को लिखा था खुर्शीद (Khursheed Hallauri) ने। तो आइए सुनें परिंदा फिल्म का ये युगल गीत...


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वैसे आपने अपने दोस्तों के साथ पहली फिल्म कौन सी और कब देखी ? इतना तो तय है कि मेरी तरह आपने इस मौके के लिए कॉलेज जाने तक इंतजार नहीं किया होगा। :)
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16 टिप्पणियाँ:

अनिल कान्त on अप्रैल 06, 2009 ने कहा…

परिंदा फिल्म मुझे बहुत पसंद है ...खासकर अभिनय ....और मैं फिल्में देखने का बहुत शौकीन हूँ

मेरी कलम - मेरी अभिव्यक्ति

शोभा on अप्रैल 06, 2009 ने कहा…

विद्यार्थी जीवन की यादे बहुत सुहावनी होती हैं। परिन्दा फिल्म बहुत अच्छी लगी थी मुझे भी और ये गीत भी। आभार।

दर्पण साह on अप्रैल 06, 2009 ने कहा…

nostalgia ! nostalgia !!

Yunus Khan on अप्रैल 06, 2009 ने कहा…

पहली चोरी से देखी फिल्‍म थी राम-बलराम जो री-रिलीज़ होकर लगी थी । ये स्‍कूल के ज़माने की बात है जी । फिर तो सिलसिला जारी रहा । गिनती भूल गए ।

एस. बी. सिंह on अप्रैल 06, 2009 ने कहा…

भाई मैंने तो पहली फ़िल्म देखी थी राजेंद्र कुमार वैजयंतीमाला की 'सूरज' । १९७४ में किसी शादी में । पर इस फ़िल्म का गीत 'बहारों फूल बरसाओ ' अब भी वही पहला एहसास ताजा कर जाता है।

suparna ने कहा…

i love this song a lot more than the more spoken about "Tumse Milke" .. ran into it by chance and fell completely in love :)

Neeraj Rohilla on अप्रैल 07, 2009 ने कहा…

एक बार हमने अपने मित्र के साथ स्कूल बंक किया। उस समय ११वीं कक्षा में थे, और सडक पर ऐसा लग रहा था कि हर कोई हमें ही देख रहा है। हर दूसरा आदमी पिताजी का जानकार दिखता था और लगता था कि तुरन्त पिताजी की बैंक में जाकर शिकायत कर देगा। मित्र ने सलाह दी कि पिक्चर देख लेते हैं, हमने हामी भर दी। सबसे नजदीक सिनेमा में गये तो ऋषी कपूर और रेखा की फ़िल्म लगी हुयी थी "आजाद देश के गुलाम"। ध्यान रहे ये १९९६-१९९७ की बात है, जब हमारी उम्र के लडके "तुझे देखा तो ये जाना सनम" देख रहे थे हम "आजाद देश के गुलाम" देख रहे थे।

उसके बाद तो आदत लग गयी और गिनती छूट गयी।

संगीता पुरी on अप्रैल 07, 2009 ने कहा…

विद्यार्थी जीवन की यादों का रोचक वर्णन ... गीत अच्‍व्‍छी लगी ... धन्‍यवाद।

डॉ .अनुराग on अप्रैल 07, 2009 ने कहा…

परिंदा फिल्म से जो विधु विनोद उभरे थे आजकल कही खो गये है ...नाना अनिल ओर जैकी दोनों पर भरी पड़े थे ...वैसे मुझे इस फिल्म का एक गाना ओर पसंद है....."तुमसे मिलके ऐसा लगा तुमसे मिलके..."

Dr.Bhawna Kunwar on अप्रैल 07, 2009 ने कहा…

देखी है फिल्म बहुत पंसद आई थी गाने भी बहुत पसंद आये कभी हमने तो दोस्तों के साथ फिल्म नहीं देखी अच्छी लगी पोस्ट बधाई

Dr.Bhawna Kunwar on अप्रैल 07, 2009 ने कहा…

देखी है फिल्म बहुत पंसद आई थी गाने भी बहुत पसंद आये कभी हमने तो दोस्तों के साथ फिल्म नहीं देखी अच्छी लगी पोस्ट बधाई

रंजना on अप्रैल 07, 2009 ने कहा…

Rochak sansmaran hamare saath baantne ke liye dhanyawaad.Aapka yah sansmaran hame bhi purane dino me le gaya....

Wakai yah film aur iske geet lajwaab the...Aaj bhi kahin prasarit hote dekh utne hi ras se dekhte hain...

कंचन सिंह चौहान on अप्रैल 08, 2009 ने कहा…

यह फिल्म छोटे भईया एण्ड कंपनी की फेवरिट फिल्म थी़। वीडिओ पर सबने बैठ कर देखी भी थी,लेकिन कुछ बहुत ज्यादा याद नही है इस फिल्म की।

हाँ गीत मुझे तुम से मिल के ही ज्यादा अच्छा लगता है। प्यार के मोड़ पे गीत का मुखड़ा खींचता है मगर अंतरे में वो बात नही लगती मुझे

Manish Kumar on अप्रैल 08, 2009 ने कहा…

Kanchan ji Mujhe bhi is geet ka mukhda bahut aakarshit karta hai. Waise to shayad aapne u tube version nahin suna hoga. Usmein is geet ka sirf wo potion hai jo asha ji ne gaya hai aur use sunne mein jyada anand ata hai.

RAJ SINH on अप्रैल 09, 2009 ने कहा…

haan vah gana bada hee bhavpoorn aur achcha laga tha .

Raju Bathija on फ़रवरी 03, 2012 ने कहा…

I had seen Parinda several times, when it was released, only for this song and for Madhuri Dixit. There is something in this song which I cannot describe in words, a kind of vulnerability or helplessness which Madhuri's character feels if the hero leaves her, which has been emoted so excellently by Asha ji in her singing. And the tune of the song by Pancham is simple, and the pauses have been used very effectively. One of my all time favourite song. Thanks, Manish for sharing your memories of lovely song.

 

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