आज जालियाँवाला बाग त्रासदी की ९० वीं सालगिरह है। इसीलिए सोचा कि इतिहास की परतों में दफ़न इस काले दिन की कहानी कहने वाली इस पुस्तक से रूबरू कराने के लिए ये दिन बिल्कुल उपयुक्त रहेगा। इतिहास और ऐतिहासिक पुस्तकों से मेरा शुरु से लगाव रहा है इसीलिए जब मुझे
स्टेनले वोलपर्ट (Stanley Wolpert) की किताब
Massacre at Jallianwala Bagh हाथ लगी तो इसे पढ़ने की त्वरित इच्छा मन में जाग उठी। ये किताब एक कहानी को ऐतिहासिक तथ्यों के साथ बुनती हुई चलती है। तो चलिए इस किताब के माध्यम से जानते हैं कि कैसे हुआ ये दर्दनाक हादसा!
पुस्तक का आरंभ स्टैनले ने 1919 की ग्रीष्म ॠतु के उन आरंभिक महिनों से किया है जब पंजाब का राजनीतिक माहौल रॉलेट एक्ट के विरोध से गर्माया हुआ था। अमृतसर में इस आंदोलन का नेतृत्व तब पक्के गाँधीवादी नेता
डा. सत्यवान और बैरिस्टर किचलू कर रहे थे। जब उनके द्वारा आयोजित विरोध प्रदर्शनों में भीड़ की तादाद बढ़ने लगी तो अंग्रेज घबरा उठे। अंग्रेजों की इसी घबराहट का नतीजा था कि दोनों नेताओं को गिरफ्तार कर पंजाब के बाहर भेज दिया गया।
अंग्रेजों ने ये सोचा था कि ऍसा करने से आंदोलन शांत हो जाएगा। पर हुआ ठीक इसका उल्टा। शांतिपूर्ण विरोध प्रदर्शन नेतृत्वविहीन होने की वज़ह से हिंसात्मक रुख अख्तियार कर बैठा। हुआ ये कि जब क्रुद्ध भीड़ तत्कालीन कलक्टर के यहाँ अपने नेताओं को छुड़ाने के लिए सिविल लाइंस की ओर चली तो रास्ते में एक सेतु पार करते वक्त जुलूस पर गोलियों की वर्षा कर दी गई। लगभग तीस लोग मौत की गोद में सुला दिए गए। इस नृशंस गोलीकांड से बौखलाए लोगों ने शहर के पुराने इलाकों मे छः अंग्रेजों की हत्या कर दी जिसमें एक महिला भी शामिल थी।
अंग्रेज चाहते तो बचे हुए नरमपंथी नेताओं की मदद लेकर वे स्थिति को सामान्य बनाने का प्रयास कर सकते थे। पर ऍसा करने के बजाए उन्होंने सेना बुला ली। 12 अप्रैल 1919 को स्थानीय नेताओं ने निर्णय लिया कि आंदोलन की आगे की दशा-दिशा निर्धारित करने के लिए 13 अप्रैल 1919 को जालियाँवाला बाग में एक सभा का आयोजन किया जाए। अंग्रेजी सेना के ब्रिगेडिअर जेनेरल डॉयर ने सुबह में ही लोगों के जमा होने पर निषेधाज्ञा लगा दी। दुर्भाग्यवश वो दिन बैसाखी का दिन था और अगल बगल के गांवों के सैकड़ों किसान सालाना पशु मेले में शहर की स्थितियाँ जाने बगैर, शिरकत करने आए थे।
जेनेरल डॉयर ठीक शाम पाँच बजे सभास्थल पर अपने गोरखा जवानों के साथ पहुँचा और बिना चेतावनी के अंधाधुंध फॉयरिंग शुरु करवा दी। बाग में सिर्फ एक ही निकास होने की वजह से लोगों को भागने का कोई रास्ता नहीं था। कुछ लोग वहाँ के कुएँ में कूद कर जान गवां बैठे तो कुछ दीवार फाँदने की असफल कोशिश करते हुए। अंग्रेजों के हिसाब से 300 से ज्यादा लोग इस घटना में मारे गए जबकि दस मिनट तक चली इस गोलीबारी में कांग्रेस के अनुसार मरने वाले लोगों का आँकड़ा 1000 के आस पास था.
स्टानले वोलपर्ट ने उस समय की घटनाओं का जीवंत विवरण देने के साथ साथ जेनेरल डॉयर के मन को भी टटोलने की कोशिश की है। घटना के बाद देश और विदेशों में निंदित होने के बाद भी जेनेरल डॉयर को रत्ती भर पश्चाताप की अनुभूति नहीं हुई। वो अंत तक ये मानने को तैयार नहीं हुआ कि उसने कुछ गलत किया है। उसने हमेशा यही कहा कि उसने जो किया वो इस ब्रिटिश उपनिवेश की सुरक्षा के लिए किया जो बिना आम जनों के मन में अंग्रेजों का आतंक बिठाए संभव नहीं था।
पर इस कांड ने उस मिथक की धज्जियाँ उड़ा दीं जिसके अनुसार अंग्रेज काले और साँवली नस्लों से ज्यादा उत्कृष्ट न्यायपूर्ण, मर्यादित नस्ल हैं जो कि मानवीय गुणों से भरपूर है। 10 अप्रैल से 13अप्रैल तक की अमानवीय घटनाओं और फिर नवम्बर 1919 तक की न्यायिक जाँच तक का विवरण वोलपर्ट ने पूरी निष्पक्षता के साथ दिया है और यही इस पुस्तक की सबसे बड़ी उपलब्धि है।
भारत के इतिहास के इस काले दिन के पीछे की घटनाओं को जानने में अगर आपकी रुचि है तो ये किताब आपको पसंद आएगी। देखिए इसी घटना पर आधारित ये वीडिओ
पुनःश्च : Stanley Wolpert की ये किताब १९८८ में पेंगुइन इंडिया (Penguin India) द्वारा प्रकाशित की गई थी। फिलहाल नेट पर ये किताब आमेजन डॉट काम पर
यहाँ उपलब्ध है।
9 टिप्पणियाँ:
इस अभूतपूर्व जानकारी बाँटने के लिए आपका तहे दिले से शुक्रिया...
नीरज
पुस्तक के जरिए इस ऐतिहासिक घटना की रोचक जानकारियां बांटने के लिए आभार..
ये त्रासदी का दिन आज किसी को भी याद नहीं ... इस पुस्तक के माध्यम से आपने इस दिन को याद करते हुए महत्वपूर्ण जानकारी भी प्रदान की ... बहुत अच्छा।
इस विवरण के लिए धन्यवाद, ये किताब कान्हा से खरीदी जा सकती है ये भी कृपया बतावें. रवि शंकर
ओह....! ९० साल बाद फिर बैसाखी और १३ अप्रैल साथ साथ ही पड़े। इस घटना को सुनने के बाद आज ९० साल बाद जब हम विह्वल हो जाते हैं तो उस समय पैदा हुए भगत सिंग का बागी होना और ऊधम सिंह का दुःसाहसी होना (तत्कालीन सरकार की नज़र में) क्या गलत है।
इस किताब के विषय में बताने का शुक्रिया..!
रवि शंकर जी ये पुस्तक आपको पेंगुइन के retail outlet से मिल सकती है वैसे नेट पर ये उपलब्ध है . लिंक पोस्ट में डाल दी है.
अंग्रेजों की सभ्य सभ्यता और सोच का काला अध्याय है ये...कितनी जाने गईं इसके लिए क्या आज भी अंग्रेज माफ़ी मांगने को तैयार हैं...nahi na....
उत्कृष्ट ब्लाग पर हूँ । सम्पूर्ण आलेख संग्रहणीय । मनोज भाई , आपने मन प्रसन्न कर दिया ।
अरुणेश जी
ब्लॉग पर प्रेषित सामग्री आपको रुचिकर लगी जानकर खुशी हुई। वैसे मेरा नाम मनीष है मनोज नहीं
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