चुनावों के चरण दर चरण खत्म होते जा रहे हैं। पर नक्सलियों के आतंक से ज्यादा सूर्य देवता ही अपना रौद्र रूप दिखलाकर मतदाताओं को बाहर निकलने से रोक रहे हैं। मई महिना शुरु होने के पहले ही गर्मी ये रंग दिखाएगी इसकी शायद चुनाव आयोग ने भी कल्पना नहीं की होगी। अपनी कहूँ तो इस जलती तपती गर्मी में घर या आफिस के अंदर दुबके रहने की इच्छा होती है। फिर भी खाने के समय स्कूटर पर बिताए वो दस मिनट ही आग सदृश बहती लपटों से सामना करा देते हैं।
ऍसे में अगर और भी गर्म इलाकों का दौरा करना पड़े तो इससे बदकिस्मती क्या होगी। पर पिछले हफ्ते कार्यालय के काम से छत्तिसगढ़, झारखंड और उड़ीसा के गर्मी से बुरी तरह झुलसते इलाकों से होकर गुजरना पड़ा। रास्ते भर खिड़की की शीशे से सुनसान खेतों और सड़कों का नज़ारा दिखता रहा।
पानी की तलाश में सुबह से ही मटकियाँ भर कर ले जाती औरते हों या गाँव की कच्ची सड़कों पर साइकिल से स्कूल जाते बच्चे सब के सब मौसम की इस मार से त्रस्त दिखे। कम से कम हम लोगों को तो कार्यालय का वातानुकूलित वातावरण गर्मी से राहत दिला देता है, पर जिन्हें दो वक्त की रोटी जुगाड़ने और रोज़मर्रा के कामों के लिए बाहर निकलना ही है उनके लिए इस धूप को झेलने के आलावा और चारा ही क्या है।
मुझे याद आती है गोपाल दास 'नीरज' जी एक एक हिंदी ग़ज़ल जो गर्मी की इस तीव्र धूप से झुलसते हुए एक दिन के हालातों को बखूबी अपनी पंक्तियों में समेटती है। आप भी पढ़े ये ग़ज़ल जिसमें नीरज गर्मी से बदहवास शहर की व्यथा चित्रित करते करते अपने समाज की आर्थिक विषमता को भी रेखांकित कर गए हैं...
कुल शहर बदहवास है इस तेज़ धूप में
हर शख़्स जिंदा लाश है इस तेज धूप में
हारे थके मुसाफ़िरों आवाज़ दो उन्हें
जल की जिन्हें तलाश है इस तेज़ धूप में
दुनिया के अमनो चैन के दुश्मन हैं वही तो
अब छाँव जिनके पास है इस तेज़ धूप में
नंगी हरेक शाख हरेक फूल है यतीम
फिर भी सुखी पलाश है इस तेज़ धूप में
पानी सब अपना पी गई खुद हर कोई नदी
कैसी अज़ीब प्यास है इस तेज़ धूप में
बीतेगी हाँ बीतेगी दुख की घड़ी जरूर
नीरज तू क्या उदास है इस तेज़ धूप में..
इस चिट्ठे पर प्रस्तुत ग़ज़लों और नज़्मों की सूची आप यहाँ देख सकते हैं।
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District of Salzburg
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जाड़ों की भली धूप का आनंद पिछले दो हफ्तों से उठा रहे थे कि अचानक उत्तर भारत
की बर्फबारी के बाद खिसकते खिसकते बादलों का झुंड यहाँ आ ही गया। धूप तो गई
ही, ठं...
5 वर्ष पहले
8 टिप्पणियाँ:
क्या सजीव चित्रण है? उसपर पानी की कमी और धूप में सनी गजल। बेहतर।
इस तरह पानी हुआ कम दुनियाँ में, इन्सान में।
दोपहर के बाद सूरज जिस तरह ढ़लता रहा।।
सादर
श्यामल सुमन
09955373288
www.manoramsuman.blogspot.com
shyamalsuman@gmail.com
गर्मी तो गजब की है इस बार ...कविता बहुत पसंद आई पढ़वाने का शुक्रिया
गर्मी तो इधर भी असहनीय हो रही है ! अच्छा चित्रण है.
गर्मी के इस मौसम में ठंडी छाँव सी लगती है नीरज जी की कविता..!
नंगी हर एक शाख, हर एक फूल है यतीम,
फिर भी सुखी पलाश है इस तेज़ धूप में।
बहुत खूब...! सच इस चिचिलाती धूप में जब धूप में निकलते ही मिचली सी आने लगती है, उफ्फ्फ्फ्..! निकल ही क्यों आई घर से सोचती हुई जब खुद को कोसती हुई नज़र उस शख्स पर पड़ी जो जो पेड़ की ज़रा सी छाया की ओट पा कर अपना अँगौछा बिछा के चैन की नींद सो रहा था, तो कहीं खुद पर शर्म सी आई। और ये ऊपर का शेर पढ़ कर लगा जैसे वो पलाश वही है, जो उस ज़रा सी छाँह में भी सुकूँ से सो रहा है।
गर्मी मे गर्मी की बात करना.....कुछ रहम करिए भाई......वैसे अच्छा लगा।
मुझे आपका ब्लॉग बहुत अच्छा लगा! आपने बहुत ही बढ़िया लिखा है! मेरे ब्लॉग पर आपका स्वागत है!
http://seawave-babli.blogspot.com
http://khanamasala.blogspot.com
गोपाल दास नीरज की ये कविता पसंद करने के लिए आप सभी का शुक्रिया।
कंचन आपकी टिप्पणी आपके संवेदनशील हृदय की परिचायक है। सही कहा आपने उस परिस्थिति के बिल्कुल अनुकूल शेर है वो।
प्रसन्न गर्मी ने इस क़दर आहत कर रखा था कि किसी और चीज के बारे में सोचने की शक्ति ही नहीं रह गई थी।
बबली जी स्वागत है। अवश्य देखूँगा आपका ब्लॉग
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