सोमवार, मई 04, 2009

तन पे लगती काँच की बूँदें मन पे लगें तो जाने...

पिछली पोस्ट में बातें गर्मी की बेतहाशा तपिश की हो ही रही थीं कि इन्द्रदेव ने दया कर कुछ घंटों के लिए अपने द्वार खोल दिए। तपती धरा पहली बारिश की बूँदों को पाकर अपनी सोंधी सोंधी खुशबू बिखेरने लगी। वैसे बारिश की ये बूँदे हमारे तन को तो ठंडक दे गईं पर अगर मन अब भी दहकता रहे तो ? ना ना ये प्रश्न मेरी जानिब से नहीं बल्कि खुद गुलज़ार साहब कर रहे हैं इस गीत में जिसे आज मैं आपको सुनाने जा रहा हूँ।

१९९७ में बासु भट्टाचार्य के निर्देशन में एक फिल्म आई थी। नाम था आस्था..In the prision of spring फिल्म तो मुझे कुछ खास जमी नहीं थी पर इसके कुछ गीतों ने खासा प्रभावित किया था। फिल्म के संगीतकार थे शारंग देव।


संगीतकार के रूप में शारंग देव बहुत ज्यादा सुना हुआ नाम नहीं है। हो भी कैसे अपने मूल्यों से समझौता ना करने वाले कलाकारों को फिल्म इंडस्ट्री ज्यादा तरज़ीह नहीं देती। वैसे आपको अगर नहीं पता तो बता दूँ की शारंग देव, महान शास्त्रीय गायक पंडित जसराज के पुत्र हैं। शारंग देव आजकल टेलीविजन के प्रोड्यूसर बन गए हैं और अपने बनाए सीरिएल्स में खुद संगीत देते हैं। एक साक्षात्कार में शारंग ने कहा था कि आस्था के गीतों की सफलता के बाद भी वो फिल्म निर्माताओं द्वारा हाथों हाथ नहीं लिए गए। शायद उनकी पारिवारिक पृष्ठभूमि और कलात्मकता के प्रति ज्यादा रुझान एक आम मुंबईया निर्माता को पसंद नहीं आई। गायिका श्रीराधा बनर्जी भी इस फिल्म में गाए गीतों के बाद नाममात्र ही सुनाईं पड़ीं।

इसी फिल्म का एक गीत था तन पे लगती काँच की बूँदें .. कुछ गीत ऐसे होते हैं जिनके पीछे के भावों की गहराई में जाने के पहले ही, अपनी गायिकी और संगीत की वज़ह से वो दिल में समा जाते हैं। इस गीत के मामले में मेरे साथ भी कुछ ऍसा ही हुआ। गुलज़ार के बोलों से पूर्णतः उलझने के पहले ही श्रीराधा बनर्जी की आवाज की टीस और शारंग देव के बेहतरीन संगीत ने मुझे इस गीत के प्रति आकर्षित कर दिया। जब फिल्म देखी तो गुलज़ार के शब्दों के पीछे की निहित भावनाओं को समझने में सहूलियत हुई।

अब अकेलापन हो, हृदय में उथल पु्थल मची हो और एकमात्र सहचरी प्रकृति हो तो फिर उसे ही अपने मन का राजदार बनाएँगे ना आप। और फिर गुलज़ार और उनके बिम्ब.. गीत के पहली की अपनी कमेंट्री में ही वो कमाल कर जाते हैं

जिसे तुम भटकना कहती हो ना मानसी
मैं उसे और जानने की तलाश कहता हूँ
एक दूसरे को जानने की तलाश
मैं इस ज़मीं पर भटकता हूँ इतनी सदियों से
गिरा है वक़्त से हटके लमहा उसकी तरह
वतन मिला तो गली के लिए भटकता रहा
गली में घर का निशाँ ढूँढता रहा बरसों
तुम्हारी रुह में , जिस्म में भटकता हूँ
तुम्हीं से जन्मूँ तो शायद मुझे पनाह मिले


तो आइए सुनें ये संवेदनशील नग्मा



तन पे लगती काँच की बूँदें
मन पे लगें तो जाने
बर्फ से ठंडी आग की बूँदें
दर्द चुगे तो जाने
तन पे लगती काँच की बूँदें .....

लाल सुनहरी चिंगारी सी
बेलें झूलती रहती हैं
बाहर गुलमोहर की लपटें
दिल में उगे तो जानें
तन पे लगती काँच की बूँदें .....

बारिश लंबे लंबे हाथों
से जब आ कर छूती है
ये लोबान* सी सासें हैं जो
ये लोबान सी सासें थोड़ी
देर रुकें तो जाने
तन पे लगती काँच की बूँदें .....

* A type of incense

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24 टिप्पणियाँ:

ghughutibasuti on मई 04, 2009 ने कहा…

बहुत ही मधुर गीत! पहली बार सुना और अब बार बार सुन रही हूँ। धन्यवाद।
घुघूती बासूती

रंजू भाटिया on मई 04, 2009 ने कहा…

वाकई यह गाना बेहद खुबसूरत है ..कुछ लफ्ज़ सीधे दिल पर असर करते हैं यह उन्ही में से एक है .गुलजार का लिखा कब दिल पर असर नहीं करता ..शुक्रिया इसको यहाँ सुनवाने का

नीरज गोस्वामी on मई 04, 2009 ने कहा…

मनीष जी मैंने रेखा और ओम पुरी वाली ये फिल्म सिर्फ इस गाने के लिए देखी थी... अरसे बाद इसे फिर से सुन और याद कर आनंद आ गया...शुक्रिया आपका...दुनिया में कुछ लोग होते हैं जो अपने सिधान्तों के साथ समझौता नहीं करते...सारंग देव उन में से एक हैं...अपनी संतुष्टि के लिए संगीत देते हैं और क्या खूब देते हैं...
नीरज

पारुल "पुखराज" on मई 04, 2009 ने कहा…

तुम्हारी रुह में , जिस्म में भटकता हूँ
तुम्हीं से जन्मूँ तो शायद मुझे पनाह मिले..ye bhi bahut acchha hai....बाहर गुलमोहर की लपटें
दिल में उगे तो जानें..aakhir gulzaar hain :)...behtareen post

Yunus Khan on मई 04, 2009 ने कहा…

बढिया गाना । कई दिनों से मन की किसी तह में दबा पड़ा था ये गाना । पूरी की पूरी फिल्‍म ही याद आ गयी । 'लबों से चूम लो' वाला गाना भी तो है इसमें । गुलज़ार के रूपकों की एक अनूठी ऊंचाई

कंचन सिंह चौहान on मई 04, 2009 ने कहा…

तुम्हारी रूह में जिस्म में भटकता हूँ.
तुम्ही से जनमू तो शायद मुझे पनाह मिले

कहँ तक सोच जाती है इन कल्पनाशीलों की... मन को लगता है कि कैसे सोच लिया होगा इतना सब

खैर बड़ि मुश्किल से सारी बफरिंग्स झेलते हुए सुना ये गीत, क्योंकि आडियो वर्ज़न तो सुनाई नही दिया और आगाज़ ने ही मन को ऐशा खिंच लिया था कि सुने बिना रह सकना नामुममकिन ही था।

बारिश लंबे लंबे हाथों से जब आकर छूती है,
ये लोबान सी साँसे हें जो,
ये लोबान सी साँसें थोड़ी देर रुके तो जानें

गुलजार की उपमाएं, उन्ही के वश की चीज है।

शारंग देव के विषय में जानना, नई बात थी दुर्गा जसराज उनकी पुत्री हैं ये तो अनत्याखरी के शो में पता चला था, मगर उनके पुत्र के विषय में भी जानना अच्छा लगा।

MANVINDER BHIMBER on मई 04, 2009 ने कहा…

बहुत ही मधुर गीत.... पहली बार सुना ...... बढिया गाना ।

जितेन्द़ भगत on मई 04, 2009 ने कहा…

अभी पश्‍चि‍मी दि‍ल्‍ली में ओले पड़े हैं, इस बारि‍श में इस गीत ने मजा दुगुना कर दि‍या।

P.N. Subramanian on मई 04, 2009 ने कहा…

बहुत ही सुन्दर गीत. हमारे संफ्रह में भी है.

Udan Tashtari on मई 04, 2009 ने कहा…

कर्णप्रिय!!

डॉ .अनुराग on मई 04, 2009 ने कहा…

गुलज़ार .गुलज़ार है..ओर अभी इत्तिफकान तीन दिन पहले इसे यू ट्यूब से डाउनलोड किया है....

दिलीप कवठेकर on मई 04, 2009 ने कहा…

वाकई में मनभावन गीत है!!

Abhishek Ojha on मई 05, 2009 ने कहा…

वाह सुन्दर ! इन्द्रदेव इधर भी कृपा कर देते तो... इंतज़ार है.

अनूप भार्गव on मई 05, 2009 ने कहा…

फ़िल्म तो ठीक ठीक थी लेकिन गीत सभी अच्छे थे । इस गीत को एक अरसे के बाद सुनवाने के लिये शुक्रिया । शारंग देव जी और पं.जसराज जी के रिश्ते का पता नहीं था ।

अनिल कान्त on मई 05, 2009 ने कहा…

behtreen bhai maja aa gaya ...1st time suna aur ab aage bhi sunta rahunga

Meri Kalam - Meri Abhivyakti

Ashish Khandelwal on मई 05, 2009 ने कहा…

गुलज़ार साहब का यह गीत मुझे भी बहुत पसंद है.. आभार

रविकांत पाण्डेय on मई 05, 2009 ने कहा…

तुम्हारी रूह में, जिस्म में भटकता हूँ
तुम्ही से जनमू तो शायद मुझे पनाह मिले

बहुत खूबसूरत! और "लोबान सी सांसें"...कितना अद्भुत प्रयोग है! मन को आनंदित करनेवाला।

राकेश जैन on मई 06, 2009 ने कहा…

madhur geet! pahli bar suna, aur achha lagaa.

Manish Kumar on मई 08, 2009 ने कहा…

इस गीत को पसंद करने और अपनी प्रतिक्रियाओं को व्यक्त करने के लिए आप सभी का हार्दिक शुक्रिया !

shama ने कहा…

itnaa sundar geet, lekin atak,atak ke chala aur mazaa kirkiraa kar gayaa..
Gulzaar likhte hain,gazabkaa...aur sabse ilahidaa..
Unkaa," hamne dekhee hain un aankhonkee mehektee khushboo.." mai taumr nahee bhool paungee..
Nahee wo geet," ...Seedhiyaa dhadaktee hain..apne aap"..ye film to prakashit nahee huee lekin ye geet, ek haunting melody hai..wahee Lata kee aawaaz...ismebhee
Kahir, jo baj raha hai wo to Asha kee aawaaz me hai..
shukryaa..
shama

Manish Kumar on मई 12, 2009 ने कहा…

Shama ji aapne mere roman blog par u tube ki link se is gane ko sunne ki koshish ki hogi. Is geet ko aap is link par audio player par sunein atakne wala ahsaas jata rahega

http://ek-shaam-mere-naam.blogspot.com/2009/05/blog-post_04.html

Unknown on जून 07, 2009 ने कहा…

kuch geet aise hate hain... jo khud ko bhi bhulne par majbur kar dete hain... kuch aisa hi geet ye hai... thanks to u for brining such nice song

सुशील छौक्कर on अगस्त 18, 2009 ने कहा…

ये गीत भी बेहतरीन है। वैसे पहले आपने जिस गुलजार जी की कमेंट्री जिक्र किया है " जिसे तुम भटकना कहती हो ना मानसी...." कही मैने इसे भी सुना था क्या ये गीत में ही है। ये भी मुझे बहुत पसंद आई। सुनने को मिल जाती तो मजा आ जाता। और हाँ आपका प्लेयर नही चल रहा।

rashmi ravija on अगस्त 28, 2012 ने कहा…

ओह!! तब मैंने ब्लॉग जगत नहीं ज्वाइन किया था तभी ये पोस्ट पढ़ने से रह गयी.

गीत के बोल..संगीत और आवाज़ तीनो ने मिलकर इस गाने को अविस्मर्णीय बना दिया है.
सारंग देव जैसे लोग कहाँ चल पाते हैं...इस बॉलिवुड में .पर कुछ गीतों को वे अमर बना गए हैं.
मुझे तो बहुत ही पसंद है ये गीत.

 

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