पर इससे पहले की माणिक मुल्ला की कहानियों की तह में जाएँ, कथा लेखन के बारे में उनके फलसफ़े पर भी जरा गौर फ़रमा लें ...
कुछ पात्र लो, और एक निष्कर्ष पहले से सोच लो, फिर अपने पात्रों पर इतना अधिकार रखो, इतना शासन रखो कि वे अपने आप प्रेम के चक्र में उलझ जाएँ और अंत में वे उसी निष्कर्ष पर पहुँचे जो तुमने पहले से तय कर रखा है।
प्रेम को अपनी कथावस्तु का केंद्र बनाने के पीछे माणिक मुल्ला टैगोर की उक्ति आमार माझारे जे आछे से गो कोनो विरहणी नारी (अर्थात मेरे मन के अंदर जो बसा है वह कोई विरहणी नारी है) पर ध्यान देने को कहते हैं। उनकी मानें तो ये विरहणी नारी हर लेखक के दिल में व्याप्त है और वो बार बार तरह तरह से अपनी कथा कहा करती है ।
माणिक मुल्ला की कहानियाँ एक दूसरे से जुड़ी हुई हैं और सूत्रधार होने के आलावा वे खुद कई कहानियों के नायक बन बैठे हैं यद्यपि उनके चरित्र में नायक होने के गुण छटाँक भर भी नहीं हैं। माणिक, लिली से अपने प्रेम को कोरी भावनाओं के धरातल से उठाकर किसी मूर्त रूप में ला पाने में असमर्थ हैं और जब सती पूर्ण विश्वास के साथ उनके साथ जिंदगी व्यतीत करने का प्रस्ताव रखती है तो वे कायरों की तरह पहले तो भाग खड़े होते हैं और बाद में पश्चाताप का बिगुल बजाते फिरते हैं।
माणिक मुल्ला की कहानियाँ एक दूसरे से जुड़ी हुई हैं और सूत्रधार होने के आलावा वे खुद कई कहानियों के नायक बन बैठे हैं यद्यपि उनके चरित्र में नायक होने के गुण छटाँक भर भी नहीं हैं। माणिक, लिली से अपने प्रेम को कोरी भावनाओं के धरातल से उठाकर किसी मूर्त रूप में ला पाने में असमर्थ हैं और जब सती पूर्ण विश्वास के साथ उनके साथ जिंदगी व्यतीत करने का प्रस्ताव रखती है तो वे कायरों की तरह पहले तो भाग खड़े होते हैं और बाद में पश्चाताप का बिगुल बजाते फिरते हैं।
सौ पृष्ठों का ये लघु उपन्यास माणिक मुल्ला की प्रेम कहानियों के अतिरिक्त उनकी जिंदगी में आई तीन स्त्रिओं जमुना, लिली और सती के इर्द गिर्द भी घूमता है। ये तीनों नायिकाएँ समाज के अलग अलग वर्गों (मध्यम, कुलीन और निम्न ) का प्रतिनिधित्व करती हैं। उपन्यास की नायिकाएँ अपने आस पास के हालातों से किस तरह जूझती हैं ये जानना भी दिलचस्प है। जहाँ जमुना का अनपढ़ भोलापन सहानुभूति बटोरता है वहीं उसकी समझौतावादी प्रवृति पाठक के चित्त से उसे दूर ले जाती है। लिली में भावुकता और विद्वता है तो अहंकार भी है। एक सती ही है जो बौद्धिक रूप से निम्नतर होते हुए भी एक ठोस, ईमानदार व्यक्तित्व की स्वामिनी है। सच पूछें तो सती को छोड़कर लेखक का बनाया कोई किरदार आदर्श नहीं है। दरअसल लेखक मध्यम वर्ग की भेड़ चाल वाली सोच, समझौता और पलायनवादी प्रवृति से आहत हैं। अपनी इसी यंत्रणा को शब्द देते हुए लेखक अपने सूत्रधार के माध्यम से लिखते हैं..
हम जैसे लोग जो न उच्च वर्ग के हें और न निम्नवर्ग के, उनके यहाँ रुढ़ियाँ, परम्पराएँ, मर्यादाएँ भी ऍसी पुरानी और विषाक्त हैं कि कुल मिलाकर हम सभी पर ऍसा प्रभाव पड़ता है कि हम यंत्र मात्र रह जाते हैं. हमारे अंदर उदार और ऊँचे सपने खत्म हो जाते हैं और एक अज़ब सी जड़ मूर्छना हम पर छा जाती है। .....एक व्यक्ति की ईमानदारी इसी में है कि वह एक व्यवस्था द्वारा लादी गयी सारी नैतिक विकृति को भी अस्वीकार करे और उसके द्वारा आरोपित सारी झूठी मर्यादाओं को भी, क्योंकि दोनों एक ही सिक्के के दो पहलू होते हैं। लेकिन हम विद्रोह नहीं कर पाते और समझौतावादी हो जाते हैं।
पर बात यहीं तक खत्म नहीं हो जाती। तथाकथित बुद्धिजीवियों पर कटाक्ष करते हुए वे कहते हैं कि सिर्फ नैतिक विकृति से अपने आप को अलग रख कर ही भले ही हम अपने आप को समाज में सज्जन घोषित करवा लें पर तमाम व्यवस्था के विरुद्ध ना लड़ने वाली प्रवृति परिष्कृत कायरता ही होगी।
ये लघु उपन्यास छः किरदारों की कथा पर आधारित है और हर एक भाग में कथा एक किरदार विशेष के नज़रिए से बढ़ती है। हर कथा के बाद का विश्लेषण अनध्याय के रूप में होता है जहाँ भारती की व्यंग्यात्मक टिप्पणिया दिल को बेंध जाती है। इसीलिए इस उपन्यास की भूमिका में महान साहित्यकार अज्ञेय लिखते हैं
सूरज का सातवाँ घोड़ा’ एक कहानी में अनेक कहानियाँ नहीं अनेक कहानियों में एक कहानी है। एक पूरे समाज का चित्र और आलोचन है; और जैसे उस समाज की अनन्त शक्तियाँ परस्पर-सम्बद्ध, परस्पर आश्रित और परस्पर सम्भूत हैं, वैसे ही उसकी कहानियाँ भी। वह चित्र सुन्दर, प्रीतिकर या सुखद नहीं है; क्योंकि उस समाज का जीवन वैसा नहीं है और भारती ने चित्र को यथाशक्य सच्चा उतारना चाहा है। पर वह असुन्दर या अप्रीतिकर भी नहीं, क्योंकि वह मृत नहीं है, न मृत्युपूजक ही है।
और अंत में बात इस पुस्तक के प्रतीतात्मक शीर्षक की। कथा के सूत्रधार को ये विश्वास है कि भले ही सूर्य के छः घोड़े जो मध्यम वर्ग में व्याप्त नैतिक पतन, अनाचार, आर्थिक संघर्ष, निराशा, कटुता के पथ पर चलकर अपने राह से भटक गए हैं पर सूर्य के रथ का सातवाँ घोड़ा अभी भी मौजूद है जो पथभ्रष्ट समाज को सही रास्ते पर ला सकता है। इसीलिए वो लिखते हैं
".....पर कोई न कोई चीज़ ऐसी है जिसने हमेशा अँधेरे को चीरकर आगे बढ़ने, समाज-व्यवस्था को बदलने और मानवता के सहज मूल्यों को पुनः स्थापित करने की ताकत और प्रेरणा दी है। चाहे उसे आत्मा कह लो, चाहे कुछ और। और विश्वास, साहस, सत्य के प्रति निष्ठा, उस प्रकाशवाही आत्मा को उसी तरह आगे ले चलते हैं जैसे सात घोड़े सूर्य को आगे बढ़ा ले चलते हैं।....वास्तव में जीवन के प्रति यह अडिग आस्था ही सूरज का सातवाँ घोड़ा है, ‘‘जो हमारी पलकों में भविष्य के सपने और वर्तमान के नवीन आकलन भेजता है ताकि हम वह रास्ता बना सकें जिस पर होकर भविष्य का घोड़ा आयेगा।.....’’
धर्मवीर भारती की भारतीय ज्ञानपीठ से प्रकाशित किताब नेट पर यहाँ उपलब्ध है। भारत में इसका मूल्य सिर्फ ३५ रुपया है और ये दो से तीन घंटे की सिटिंग में आराम से पढ़ी जा सकती है। श्याम बेनेगल ने इस लघु उपन्यास पर आधारित एक फिल्म भी बनाई थी जो नब्बे के दशक में काफी सराही गई थी। मैंने वो फिल्म नहीं देखी पर इस पटकथा पर बेनेगल के निर्देशन में बनी फिल्म पुस्तक से भी असरदार होगी ऍसा मेरा विश्वास है।
17 टिप्पणियाँ:
शानदार उपन्यास है। फिल्म भी बेहतरीन बनी है। दिल्ली विश्वविद्यालय के पहले साल के पाठ्यक्रम मंे भी है मैं हर साल पढ़ाता हूँ, फिल्म का प्रदर्शन भी करते हैं... सामाजिक नैतिकता के खोखलपन को सही बेनकाब करती हे ये रचना।
फिल्म तो मैंने भी देखी है.... अच्छी है. पुस्तक नहीं पढ़ पाया हूँ अब तक.
यह पुस्तक हमें अजित वाडनेकर जी ने उपहार में दी थी. शानदार है.
धर्म वीर भारती की ये अद्भुत रचना है...माणिक मुल्ला का चरित्र गज़ब का है...इस पर बनी फिल्म में माणिक का किरदार रजत कपूर ने किया था और भाई क्या अभिनय किया था...वाह...
नीरज
मेरी पसंदीदा मूवी में से एक है सूरज का सातवा घोड़ा.....रजत कपूर श्याम बेनेगल की जोड़ी के शायद शुरूआती दिन थे वो.....
मनीष 'सूरज का सातवां घोड़ा'कई बार देखी और हर बार उस फिल्म ने मन मोह लिया है । पुस्तक तो ख़ैर कई कई बार पढ़ी ही है और हमारे संग्रह का हिस्सा है । कुछ बरस पहले रेडियो के लिये श्याम बेनेगल से इस बारे में लंबी चर्चा करने का मौक़ा मिला था तब हमने बहुत सारी बातें पूछी थीं उनसे । इस रचना की खासियत ये है कि एक ही टाइम-फ्रेम को अलग अलग पात्रों के नज़रिये से बार बार पकड़ा गया है । श्याम बेनगल ने कहा था कि ये फिल्म कुछ इस तरह बनाई जानी थी कि खुद को ही डी-कंस्ट्रक्ट करती चले । और इसके लिए धर्मवीर भारती के साथ खासी बैठकें करनी पड़ीं । उनकी पत्नी पुष्पा जी ने बताया था कि किस तरह बेनेगल ने भारती जी को अनुमति देने के लिए मनाया था । सब कुछ याद आ गया । और ये भी कि इस फिल्म का एक गीत मैं अरसे से ढूंढ रहा हूं ।
फिर अभी अभी हाथ भी लग गया है ।
जल्दी ही सुनवाता हूं ।
यूनुस भाई आप जिस गीत की बात कर रहे हैं वो मेरी अगली पोस्ट होगी। इस पोस्ट को लिखने के पहले मैंने उसे खोज लिया था :)
धर्मवीर भारती की बेहतरीन कृतियों में से है, हमने तो किताब और फिल्म दोनों ही कई बार चाटी है। इसे पढ़ने के बारे में एक खास बात ये है कि इसे जितनी बार पढ़ें उतनीही बार इसमें कुछ नया नजर आता है।
manishji, mene syam benegal dwara banai gayi film pahle dekhi thi,yah muje bahut pasand aayi , khastor par film ka last seen jisme ''satti'' apne bchche ko uthaye hue aur uss apahiz aadmi ko gadi par khicte hue le ja rahi hai jisne use kharida tha,piche se suraj ka rath avtarit hota hai jisme 7 ashva jute hue hain. syam benegal ne behtarin film banayi thi. iske baad mene dharmvir bhartiji ki book padhi jo hame ander tak zakzor deti hai, bade hi saral shabdon me unhone kai gahri baaten kahi hain.
क्या मनीष जी..! वाक़ई खल रही है मुझे..! पता है मेरी अगली पोस्ट यही होनी थी। लगभग रोज लिखी जानी थी, मगर कार्यालय में अचानक स्टाफ कम हो जाने से कार्य बढ़ जाने से लिख नही पा रही थी। और आज आपकी समीक्षा पढ़ने के बाद अब कुछ दिन तो विश्राम करना ही पड़ेगा। :) :)
वैसे गुनाहों का देवता से बिलकुल भिन्न धर्मवीर भारती की इस पुस्तक को पढ़ने के अलग अनुभव थे। अपने विचार भी बाँटती हूँ कुछ दिन में।
achha aalekh . . .
bahut achhi jaankaari . . .
badhaaee .
---MUFLIS---
film bhi bahut shaandaar hai bhai...zaroor dekho....gaane ka audio version sun nahi paaya....aapne bahut purani baten yaad dila di
जरूर देखियेगा फ़िल्म सूरज का ......दो दिग्गजोन के कला सन्योग के ऐसे उदाहरण कम मिलते हैन .फ़िल्म विधा के विस्त्रित पर साथ ही मन को प्रकट करने के माम्ले मे शब्दोन की सीमित विस्तार छमता के बव्ज़ूद बेनेगल ने गज़ब की प्रस्तुति की है.तिप्पणियोन से ही जान लेन और खस कर युनुस जी की तिप्पणी मे सब कह उथा है .
मैने डरते डरते यह फ़िल्म देखी थी ,क्योन्कि यह कथा फ़िल्मान्कन के लिये एक चुनौती ही थी पर देख्ने के बाद मन को जो सन्तो मिला कहना मुश्किल है .सच कहून तो इस कथा को त्रिआयामी रूप दे कर बेनेगल ने इस लघु उपन्यासिका को येक सम्पूरकता दे दी है.
BAHUT ACHI MOVIE HAI.......
HAR KISI KO DEKHNI CHAAHIYE
कल रात एक मासिक पत्रिका अहा-जिंदगी पढ़ने के दौरान अभिनेता रजित कपूर का इंटरव्यू पढा और इस में आये 'सूरज का सातवाँ घोड़ा'के जिक्र के चलते यू ट्यूब पर इसे ढूँढा़ देखना शुरू करने पर मंत्त्रमुग्ध सा रह गया और पूरी फिल्म देख डाली 'अद्भुत' शब्द भी फीका है इस की प्रशंसा के लिए.....। अमरीश पुरी जी के साथ सभी कलाकारों ने प्रभावित किया। एक पात्र 'सत्ती'(नीना गुप्ता जी द्वारा अभिनीत) मन को विचलित करने के साथ साथ मुझे झकझोर कर रख दिया।ऐसा निश्छल किरदार नीना गुप्ता जी ने जिया कि कह सकता हूँ कि उन्होने इस से बेहतर अभिनय शायद ही किया हो। 'माणिक मुल्ला' की कायरता पर बहुत गुस्सा भी आया।
श्याम बेनेगल जी के निर्देशन का कायल हूँ। उन्होंने धर्मवीर भारती जी के उपन्यास के साथ (हाँ मैं ने इसे पढ़ा नहीं है) इस से बेहतर न्याय नहीं हो सकता था।
चिरैया गीत ह्रदयस्पर्शी है।
सबसे अच्छा किरदार 'सत्ती' लगा।अद्भुत मन को विचलित कर दिया उस को न्याय नहीं मिलता...
आप तो इसे पढ़ाते हैं। आप अपने विचार से जरूर अवगत करायें।
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