मनुष्य का मन बड़ा विचित्र है। कभी उत्साह से लबरेज़ तो कभी निराशा के भँवरों में अंदर तक धँसा हुआ। पर गनीमत यही की कोई भी मूड, कैफ़ियत हमेशा हमेशा के लिए नहीं रहती। इसलिए व्यक्ति कभी अपने चारों ओर हो रही अच्छी बुरी घटनाओं को निराशा और अवसाद के क्षणों में बिल्कुल ही बेमानी मान लेता है तो कभी जब उसका मन धनात्मक भावनाओं से ओत प्रोत रहता है तो अपने दुख अपनी पीड़ा भी उसे किसी बड़े उद्देश्य की प्राप्ति के लिए भगवान द्वारा ली जा रही परीक्षा मान कर खुशी-खुशी वहन करता जाता है।
अपनी जिंदगी के अब तक के अनुभवों को देखता हूँ तो यही पाता हूँ कि जिन अंतरालों में वक़्त के थपेड़ों ने मुझे हताश किया है, असफलता और अस्वीकृति से सामना हुआ है, उस समय की पीड़ा और दुख भविष्य की चुनौतियों का सामना करने में मेरे लिए सहायक रहे हैं। धर्मवीर भारती की ये कविता मुझे कुछ ऐसी ही शामों के बारे में सोचने को मज़बूर करती है। और जब उन बीती शामों की पीड़ा और अकेलेपन का जिक्र करने के बाद भारती जी ये कहते हैं
ये शामें, सब की सब शामें ...
जाने क्यों कोई मुझसे कहता
मन में कुछ ऐसा भी रहता
जिसको छू लेने वाली हर पीड़ा
जीवन में फिर जाती व्यर्थ नहीं
तो लगता है उनकी लेखनी से मेरे दिल की बात निकल रही है। तो आइए भारती जी के साथ ढूँढते हैं उन बोझिल उदास शामों के मायने..
ये शामें, सब की शामें ...
जिनमें मैंने घबरा कर तुमको याद किया
जिनमें प्यासी सीपी-सा भटका विकल हिया
जाने किस आने वाले की प्रत्याशा में
ये शामें
क्या इनका कोई अर्थ नहीं ?
वे लमहे
वे सूनेपन के लमहे
जब मैनें अपनी परछाई से बातें की
दुख से वे सारी वीणाएँ फेकीं
जिनमें अब कोई भी स्वर न रहे
वे लमहे
क्या इनका कोई अर्थ नहीं ?
वे घड़ियाँ, वे बेहद भारी-भारी घड़ियाँ
जब मुझको फिर एहसास हुआ
अर्पित होने के अतिरिक्त कोई राह नहीं
जब मैंने झुककर फिर माथे से पंथ छुआ
फिर बीनी गत-पाग-नूपुर की मणियाँ
वे घड़ियाँ
क्या इनका कोई अर्थ नहीं ?
ये घड़ियां, ये शामें, ये लमहे
जो मन पर कोहरे से जमे रहे
निर्मित होने के क्रम में
क्या इनका कोई अर्थ नहीं ?
ये शामें, सब की सब शामें ...
जाने क्यों कोई मुझसे कहता
मन में कुछ ऐसा भी रहता
जिसको छू लेने वाली हर पीड़ा
जीवन में फिर जाती व्यर्थ नहीं
अर्पित है पूजा के फूलों-सा जिसका मन
अनजाने दुख कर जाता उसका परिमार्जन
अपने से बाहर की व्यापक सच्चाई को
नत-मस्तक होकर वह कर लेता सहज ग्रहण
वे सब बन जाते पूजा गीतों की कड़ियाँ
यह पीड़ा, यह कुण्ठा, ये शामें, ये घड़ियाँ
इनमें से क्या है
जिनका कोई अर्थ नहीं !
कुछ भी तो व्यर्थ नहीं !
जिनमें मैंने घबरा कर तुमको याद किया
जिनमें प्यासी सीपी-सा भटका विकल हिया
जाने किस आने वाले की प्रत्याशा में
ये शामें
क्या इनका कोई अर्थ नहीं ?
वे लमहे
वे सूनेपन के लमहे
जब मैनें अपनी परछाई से बातें की
दुख से वे सारी वीणाएँ फेकीं
जिनमें अब कोई भी स्वर न रहे
वे लमहे
क्या इनका कोई अर्थ नहीं ?
वे घड़ियाँ, वे बेहद भारी-भारी घड़ियाँ
जब मुझको फिर एहसास हुआ
अर्पित होने के अतिरिक्त कोई राह नहीं
जब मैंने झुककर फिर माथे से पंथ छुआ
फिर बीनी गत-पाग-नूपुर की मणियाँ
वे घड़ियाँ
क्या इनका कोई अर्थ नहीं ?
ये घड़ियां, ये शामें, ये लमहे
जो मन पर कोहरे से जमे रहे
निर्मित होने के क्रम में
क्या इनका कोई अर्थ नहीं ?
ये शामें, सब की सब शामें ...
जाने क्यों कोई मुझसे कहता
मन में कुछ ऐसा भी रहता
जिसको छू लेने वाली हर पीड़ा
जीवन में फिर जाती व्यर्थ नहीं
अर्पित है पूजा के फूलों-सा जिसका मन
अनजाने दुख कर जाता उसका परिमार्जन
अपने से बाहर की व्यापक सच्चाई को
नत-मस्तक होकर वह कर लेता सहज ग्रहण
वे सब बन जाते पूजा गीतों की कड़ियाँ
यह पीड़ा, यह कुण्ठा, ये शामें, ये घड़ियाँ
इनमें से क्या है
जिनका कोई अर्थ नहीं !
कुछ भी तो व्यर्थ नहीं !
धर्मवीर भारती जी की कविताओं को मैंने ज्यादा नहीं पढ़ा और इस कविता पर मेरी नज़र तब गई जब पिछली पोस्ट की पुस्तक चर्चा में सूरज का सातवाँ घोड़ा के बारे में लिख रहा था। जैसा कि आप सब को पता है इस किताब पर श्याम बेनेगल साहब ने एक फिल्म बनाई है। और नेट पर फिल्म की जानकारी ढूँढते हुए मुझे इस फिल्म के एक गीत की तारीफ सुनने को मिली और इस गीत की खोज में ये कविता पहले नज़र आई. बाद में जब गीत सुनने को मिला तो देखा कि ये गीत तो इस कविता से ही प्रेरित है।
इस गीत का संगीत दिया है वनराज भाटिया ने जो कुछ दिन पहले तक श्याम बेनेगल की फिल्मों के स्थायी संगीतकार रहे हैं। गीत के भावों के आलावा इस गीत में सबसे ज्यादा असरदार मुझे उदित नारायण के आवाज़ की मधुरता और उनका स्पष्ट उच्चारण लगता है। इस गीत में उनका साथ दिया है कविता कृष्णामूर्ति ने। राग यमन पर आधारित ये गीत कुछ और लंबा होता तो इसका आनंद और बढ़ जाता। पिछली पोस्ट में किताब के बारे में चर्चा करते हुए मैंने आपको बताया था इस उपन्यास के किरदारों के बारे में । ये गीत फिल्माया गया है माणिक मुल्ला (रजत कपूर) और उनकी प्रेमिका लिली (पल्लवी जोशी) के ऊपर।
ये शामें, सब की सब शामें ...
क्या इनका कोई अर्थ नहीं ?
घबरा के तुम्हें जब याद किया
क्या उन शामों का अर्थ नहीं
क्या उन शामों का अर्थ नहीं
सूनेपन के इन लमहों में
अपनी छाया से बातें की
जिनमें कोई भी स्वर न रहे
दुख से वे वीणाएं फेकीं
ये भीगे पंक्षी से लमहे
क्या इनका कोई अर्थ नहीं ?
ये शामें, सब की सब शामें ...
12 टिप्पणियाँ:
एक अच्छी प्रस्तुति
sundar geet, aur sundar Post.. Badhai ho !
वाह आनंद आ गया।
हमेशा की तरह उम्दा प्रस्तुतिकरण. आभार.
मनीष अदभुत गीत है ये । मजा आ गया
is Geet aur is kavita se parichit karaane ka shukriya..!
bhav adbhut hai is kavita/geet ke
मनीश जी सूरज का ..............और इस गीत तथा कविता का स्मरण कराने का बहुत शुक्रिया .दुर्भाग्य से धर्म्वीर भारती जी की कविता पक़्च को उतनी व्यापकता से आम जन नहीन उतना परिचित हो पाया शायद गुनाहोन का देवता और अन्धा युग मे ही विस्मित रह गया . आप्ने जो विरहणी नारी मन की बात कही है वह भारती जी की कवितओन पे सार्थक होती है ..........और भी बहुत सरी हैन सन्ग्रहित .बहुत ही मन छू लेने वाली . आप्के इन आलेखों से शायद बहुतों का कौतूहल जागे .
बहुत दिनों के बाद आप्के ब्लोग पर आ सका पर ये ना समझिये कि मन नहीन होता था ...........पर सफ़ायी भी क्या दून .
बस ये कि ......तुझसे भी दिल्फ़रेब हैं गम रोज़्गार के !
आते रहेन्गे !
बेहतरीन प्रस्तुति मनीष जी, यह फिल्म तो नहीं देखी पर भारती जी को पढ़ना सदैव अच्छा लगा है. आभार..
bahut hi sunder prstuti ki hai
Dharveer bharti ji ka Gunahon ka devta bhi samay nikaal kar padhe
aapko pasand aayega
niceee geeeeet =) but there is one thing i really miss.. and that is my comprehnsion lol. u have hindi-nized the blog so much tht it is really hard for me to understand but still i think u have made the right move ;-)
इसी फिल्म का एक और गीत 👌जो फ़िल्म में नीना गुप्ता गातीं हैं
@Unknown आप शायद निमिया के पेड़ का जिक्र कर रहे हैं जिसे नीना गुप्ता ने गाया था।
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