पुराने दिनों को याद करते हुए मैंने आपको दस पन्द्रह दिन पहले राजेंद्र और नीना मेहता का एक गैर फिल्मी गीत जब आँचल रात का लहराए सुनवाया था। उन्हीं दिनों की याद करते हुए आज बात मेहता युगल के समकालीन कलाकार राजकुमार रिज़वी जी जो गायिकी की दृष्टि से मुझे कहीं ज्यादा मँजे हुए कलाकार लगते हैं।
राजकुमार रिज़वी की आवाज़ से मेरी पहली मुलाकात विविध भारती के रंग तरंग कार्यक्रम में हुई थी। उन दिनों एक ग़ज़ल बेहद चर्चित हुई थी और पहली बार रेडिओ पर जब रिज़वी साहब को इसे गाते हुए सुना तो मेरे किशोर मन पर उस ग़ज़ल का जबरदस्त असर हुआ था। ग़ज़ल के बोल थे
शाख से टूट के गिरने की सज़ा दो मुझको
इक पत्ता ही तो हूँ क्यूँ ना हवा दो मुझको
इक पत्ता ही तो हूँ क्यूँ ना हवा दो मुझको
शायद ही मेरी आयु वर्ग के किसी ग़ज़ल प्रेमी ने ये ग़ज़ल उस ज़माने में नहीं सुनी या सराही होगी। फिलहाल ये ग़ज़ल मेरी कैसेट में है और जब भी ये अच्छी गुणवत्ता के साथ मुझे मिलेगी आपको एक शाम मेरे नाम पर सुनवाउँगा। पर फिर भी इसकी याद दिलाने के लिए इन दो पंक्तियों को गुनगुनाना देना ही शायद आपके लिए काफी रहेगा
इससे पहले आज की ये रूमानियत भरी ग़ज़ल आपके सामने परोसूँ, राजकुमार रिज़वी के बारे में आपको कुछ बताना चाहूँगा। रिज़वी साहब राजस्थान में गीत संगीत से जुड़े परिवार में पैदा हुए। संगीत की शुरुआती शिक्षा इन्होंने अपने पिता नूर मोहम्मद से ली जिनका ताल्लुक कलावंत घराने से था। फिर इन्होंने सितार भी सीखा पर इनके दिल में गायिकी के प्रति विशेष प्रेम था। अपनी इसी इच्छा को फलीभूत करने के लिए राजकुमार रिज़वी जनाब महदी हसन साहब के प्रथम शिष्य बने। यही वजह है कि इनकी गायिकी में अपने उस्ताद का असर स्पष्ट दिखता है। अपने उस्ताद के बारे में राजकुमार रिज़वी साहब ने एक साक्षात्कार में कहा था
मुझे महदी हसन का शास्त्रीय रागों से अनुराग और लिखे हुए अलफाज़ों के प्रति उनकी संवेदनशीलता ने खासा प्रभावित किया। वे हमेशा कविता की रूमानियत के हिसाब से ही शास्त्रीय रागों का चुनाव करते थे। इसी तरह जब ग़ज़ल के अशआर गंभीरता का पुट लिए होते वो उसके लिए उसी किस्म का संगीत तैयार करते।
दरअसल अगर महदी हसन साहब की ग़ज़ल गायिकी के तरीके को आज के समय तक लाने की बात हो तो राजकुमार रिज़वी का नाम अग्रणी रूप में लिया जाना चाहिए।
आजकल रिज़वी साहब का ज्यादा समय देश विदेश में आमंत्रित श्रोताओं के बीच महफिल जमाने में होता है। बीच बीच में उनके कुछ एलबम भी निकलते रहे हैं। फर्क इतना जरूर आया है कि पहले वो अपनी पत्नी और गायिका इन्द्राणी रिज़वी के साथ इन महफिलों में शरीक होते थे और आज उनकी गायिका पुत्री रूना रिज़वी साथ होती हैं । खैर तो लौटते हैं क़तील शिफ़ाई की इस ग़ज़ल की तरफ। पिछले साल मैंने क़तील शिफ़ाई के बारे में इस चिट्ठे पर एक लंबी श्रृंखला की थी । क़तील को लोग मोहब्बतों के शायर के नाम से जानते हैं। सहज शब्दों की चाशनी में रूमानियत का तड़का लगाना उन्हें बखूबी आता है इसलिए जब वो कहते हैं कि
जीत ले जाए कोई मुझको नसीबों वाला
जिंदगी ने मुझे दावों पे लगा रखा है।
जिंदगी ने मुझे दावों पे लगा रखा है।
इम्तिहान और मेरे ज़ब्त का तुम क्या लोगे
मैंने धड़कन को भी सीने में छुपा रखा है।
तो मन बस वाह वाह कर उठता है।
मैंने धड़कन को भी सीने में छुपा रखा है।
तो मन बस वाह वाह कर उठता है।
रिज़वी साहब ने इस ग़ज़ल को इतने सलीके से गाया है कि घंटों इस ग़ज़ल का खुमार दिल में छाया रहता है। तो लीजिए आप भी सुनिए...
तूने ये फूल जो जुल्फ़ों में सजा रखा है
इक दीया है जो अँधेरों में जला रखा है
जीत ले जाए कोई मुझको नसीबों वाला
जिंदगी ने मुझे दावों पे लगा रखा है।
जाने कब आए कोई दिल में झांकने वाला
इस लिए मैंने गरेबान खुला रखा है।
इम्तिहान और मेरे ज़ब्त का तुम क्या लोगे
मैंने धड़कन को भी सीने में छुपा रखा है।
इक दीया है जो अँधेरों में जला रखा है
जीत ले जाए कोई मुझको नसीबों वाला
जिंदगी ने मुझे दावों पे लगा रखा है।
जाने कब आए कोई दिल में झांकने वाला
इस लिए मैंने गरेबान खुला रखा है।
इम्तिहान और मेरे ज़ब्त का तुम क्या लोगे
मैंने धड़कन को भी सीने में छुपा रखा है।
यू ट्यूब वाला वर्सन भी आडियो वर्सन ही है इस लिए ज्यादा बफरिंग में वक़्त जाया नहीं होगा ऐसी उम्मीद है...
वैसे एक शेर और है इस ग़ज़ल में जिसे गाया नहीं गया है
दिल था एक शोला मगर बीत गए दिन वो क़तील
मत कुरेदो इसे अब राख में क्या रखा है..
दिल था एक शोला मगर बीत गए दिन वो क़तील
मत कुरेदो इसे अब राख में क्या रखा है..
ये ग़जल HMV के पाँच भागों में निकाली हुई ग़ज़लों का सफर (Year: 2001) RPG/Saregama ~ ISBN: CDNF15206367 ADD) का एक हिस्सा है।
12 टिप्पणियाँ:
मधुर अनुभव रहा इन्हें सुनना!!
मनीष भाई, बहुत मज़ा आया
ये गज़ल मेरी बेहद पसन्ददीदा गज़लों में से एक हुआ करती थी. मेरे शुरूआती दिनों में यह एलबम बहुल मक़बूल हुआ करता था. इसे डाउनलोड करके सुबह से अनेकों बार सुन रहा हूं.
इस एलबम की और भी गज़लें हुआ करतीं थीं, जैसे
मेरे पहलू से वो हटी है अभी
ये कहानी नई नई है अभी
बहुत अच्छा लगा
वाह ! कहाँ कहाँ से आप ढूंढ़ के ले आते हैं !
मैथिली जी जानकर खुशी हुई कि ये ग़ज़ल आपकी पसंदीदा है। आपने जिस ग़ज़ल का जिक्र किया है वो शायद मैंने नहीं सुनी पर अगर मिली तो जरूर सुनने की कोशिश करूँगा।
... लाजवाब !!!!!
मनीष जी, बेहद नाज़ुक गज़ल है। हर शेर दिल को छू लेने वाला। इससे आगे क्या कहूं...एक शेर याद आ रहा है-
एक ऐसा राज इस दिल के निहाखाने में है
जिसका मजा न समझने में है और न समझाने में है
बहुत खूब। बहुत बहुत बधाई।
-Zakir Ali ‘Rajnish’
{ Secretary-TSALIIM & SBAI }
जगजीतजी नें सही फ़रमाया है,कि राजकुमार रिज़वी मेहदी साहब के काफ़ी करीब है.
तूने ये फूल जो ... में वही रवानी , वही अंदाज़ है.
वैसे आज की ताज़ा खबर ये है, कि आपने इस गीत को बखूबी सुरीले अंदाज़ में गाया है, जो तारीफ़े काबिल है. यूं ही सुनाते रहें, बात निकलेगी तो दूर तलक जायेगी... जाने दिजिये!!
वैसे आपने गायी हुई गज़ल की धुन मेहदी जी की या तो अफ़सर , मेरा शायर ना बनाया.. से मिलती जुलती है, आखिर गुरु ही तो है..
आप सबने ग़ज़ल पसंद की शुक्रिया !
दिलीप भाई गुनगुनाना पुरानी आदत है ... बाथरूम सिंगर रहे हैं। पहले कॉलेज के मित्रगण झेलते थे अब आप लोगों की बारी है :)
राज कुमार रिज़वी का गाया एक नगमा याद आता है, शायद कुछ इस तरह :
"मदभरे नैन शराबों वाले,
रसभरे होंट गुलाबों वाले,
अब कहाँ वो मेरे खाबों वाले..."
आप को जानकारी हो तो ज़रूर बताएं...
@Unknown आप जिस ग़ज़ल की बात कर रहे हैं वो यहाँ है
https://www.youtube.com/watch?v=KsfXkptBSug
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