तीसरी कसम के गीतों की इस श्रृंखला में मेरी पसंद का तीसरा गीत वो है जो अक्सर पिताजी के मुख से बचपन में सुना करता था। मुझे याद हे कि गीत के बोल इतने सरल थे कि बड़ी आसानी से पिताजी से सुन सुन कर ही मुखड़ा और पहला अंतरा याद हो गया था। उस वक्त तो इस गीत से पापा हमें झूठ ना बोलने की शिक्षा दिया करते थे। आज इतने सालों बाद जब यही गीत फिर से सुनाई देता है तो दो बातें सीधे हृदय में लगती हैं। पहली तो ये कि हिंदी फिल्मों में फिलॉसफिकल गीत आजकल नाममात्र ही सुनने को मिलते हैं और दूसरी ये कि गीतकार शैलेन्द्र ने जिस सहजता के साथ जीवन के सत्य को अपनी पंक्तियों में चित्रित किया है उसकी मिसाल मिल पाना मुश्किल है। अब इन पंक्तियों ही को देखें
लड़कपन खेल में खोया,
जवानी नींद भर सोया
बुढ़ापा देख कर रोया
बुढ़ापा देख कर रोया, वही किस्सा पुराना है
जवानी नींद भर सोया
बुढ़ापा देख कर रोया
बुढ़ापा देख कर रोया, वही किस्सा पुराना है
बड़े बड़े ज्ञानी महात्मा जिस बात को भक्तों को प्रवचन, शिविरों में समझाते रहे हैं वो कितनी सरलता से शैलेंद्र ने अपने इस गीत की चंद पंक्तियों में समझा दी। चलिए ज़रा कोशिश करें ये जानने कि शैलेंद्र के मन में ऍसा बेहतरीन गीत कैसे पनपा होगा?
शैलेंद्र की उस वक़्त की मानसिक स्थिति के बारे में उनके मित्र फिल्म पत्रकार रामकृष्ण लिखते हैं
वो उन दिनों के किस्से सुनाता... जब परेल मजदूर बस्ती के धुएँ और सीलन से भरी गंदी कोठरी में अपने बाल बच्चों को लेकर वह आने वाली जिन्दगी के सपने देखा करता था और इन दिनों के किस्से जब रिमझिम जैसे शानदार मकान और आस्टिन-कैम्ब्रिज जैसी लंबी गाड़ी का स्वामी होने के बावजूद अपने रीते लमहों की आग उसे शराब की प्यालियों से बुझानी पड़ती।
शैलेंद्र कहा करता...उन दिनों की याद, रामकृष्ण, सच ही भूल नहीं पाता हूं मैं। मानसिक शांति का संबंध, लगता है, धनदौलत और ऐशोआराम के साथ बिलकुल नहीं है, ऐसी बात न होती तो आज मुझे वह सुकून, वह चैन क्यों नहीं मिल पाता आखिर जो उस हालत में मुझे आसानी से नसीब था-आज, जब मेरे पास वह सब कुछ है जिसकी तमन्ना कोई कर सकता है-नाम, इज्जत पैसा... यह सब कहते कहते शैलेंद्र अचानक ही बड़ी गंभीरता के साथ चुप हो जाया करता था और देखने लगता था मेरी आँखों की ओर, जैसे उसके सवालों का जवाब शायद वहां से उसे मिल सकें।
सच्ची और खरी बात कहना और सुनना शैलेन्द्र को अच्छा लगता था। कई बार गीत के बोलों को लेकर हम खूब झगड़ते थे, लेकिन गीत की बात जहाँ खत्म होती, फिर वोही घी-शक्कर.. शैलेन्द्र एक सीधा सच्चा आदमी था, झूठ से उसे नफ़रत थी क्यूँकि उसका विश्वास था, 'ख़ुदा के पास जाना है'
करेंगे पर पहले सुनिए ये गीत..
सजन रे झूठ मत बोलो, खुदा के पास जाना है
न हाथी है ना घोड़ा है, वहाँ पैदल ही जाना है
तुम्हारे महल चौबारे, यहीं रह जाएँगे सारे
अकड़ किस बात कि प्यारे
अकड़ किस बात कि प्यारे, ये सर फिर भी झुकाना है
सजन रे झूठ मत बोलो, ख़ुदा के पास जाना है
भला कीजै भला होगा, बुरा कीजै बुरा होगा
बही लिख लिख के क्या होगा
बही लिख लिख के क्या होगा, यहीं सब कुछ चुकाना है
सजन रे झूठ मत बोलो, ख़ुदा के पास जाना है...
लड़कपन खेल में खोया,
जवानी नींद भर सोया
बुढ़ापा देख कर रोया
बुढ़ापा देख कर रोया, वही किस्सा पुराना है
सजन रे झूठ मत बोलो, ख़ुदा के पास जाना है
न हाथी है ना घोड़ा है, वहाँ पैदल ही जाना है
सजन रे झूठ मत बोलो, ख़ुदा के पास जाना है...
और इससे पहले की इस श्रृंखला का समापन करूँ कुछ और बातें गीतकार शैलेंद्र के बारे में। शैलेंद्र की फिल्म तीसरी कसम बुरी तरह फ्लॉप हुई और लोगों का मानना है कि वो इस फिल्म के असफल होने का आघात नहीं सह पाए थे। पर आपको ये भी बताना मुनासिब रहेगा कि शैलेंद्र मँहगी शराब के बेहद शौकीन थे और इस वज़ह से उनका स्वास्थ दिनों दिन वैसे भी गिरता जा रहा था।
नेट पर विचरण करते हुए मुझे उनके मित्र और फिल्म पत्रकार रहे रामकृष्ण का आलेख मिला जो शैलेंद्र के व्यक्तित्व की कई कमियों को उजागर करता है। मिसाल के तौर पर हर रात शराब के नशे में धुत रहना, अपनी आलोचना को बर्दाश्त ना कर पाना, अपने स्वार्थ के लिए मित्रों में फूट डालना और यहाँ तक कि अपने पक्ष में पत्र पत्रिकाओं में लेख छपवाने के लिए पैसे देना। अगर आप गीतकार शैलेंद्र के बारे में रुचि रखते हैं तो ये लेखमाला 'गुनाहे बेलात 'अवश्य पढ़ें।
ये कुछ ऍसी बाते हैं जो शायद प्रतिस्पर्धात्मक फिल्म इंडस्ट्री के बहुतेरे कलाकारों में पाई जाती हों। पर इससे यह स्पष्ट है कि बतौर कलाकार हम क्या सृजन करते हैं और वास्तविक जिंदगी में हम कैसा व्यवहार करते हैं इसमें जरूरी नहीं कि साम्य रहे।
जैसा कि मैंने इस श्रृंखला की पहली पोस्ट में कहा कि तीसरी कसम के अन्य सभी गीत भी अव्वल दर्जे के है। पिछली पोस्ट में आप में से कुछ ने तीसरी कसम के अन्य गीतों को भी पेश करने की इच्छा ज़ाहिर की थी। शीघ्र ही उन्हें आपके सामने संकलित रूप से पेश करता हूँ।
13 टिप्पणियाँ:
मनीष शुक्रिया शानदार पोस्ट के लिए। इन दिनों अकाल पड़ा है ऐसे पोस्टों का।
लाजवाब गीत, जिसमें जिंदगी के फलसफे को बहुत ही सुंदर ढंग से पिरो दिया गया है।
-Zakir Ali ‘Rajnish’
{ Secretary-TSALIIM & SBAI }
"बतौर कलाकार हम क्या सृजन करते हैं और वास्तविक जिंदगी में हम कैसा व्यवहार करते हैं इसमें जरूरी नहीं कि साम्य रहे" सामान्यतः तो ऐसा ही होता है। पर जहां दोनों में साम्यता आ जाती वहां कवि, कवि न रहकर ऋषि बनने तक की यात्रा पूरी कर लेता है। ऋषि आवश्यक रूप से कवि भी होता है पर सभी कवि ऋषि नहीं हो पाते। कवि कल्पनाओं के सहारे लिखता है, ऋषि अनुभूत सत्य को लिखता है। ये गीत तो पसंद है, काफ़ी पहले से।
शैलेंद्र .तीसरी कसम .रेनू...ओर पर कई कथाये लिखी जा सकती है ..कई पढ़ी भी है...पर सबसे ज्यादा मै रेनू जी की लिखी बात को सच मानता हूँ.....शैलेंद्र एक बेमिसाल इन्सान थे ....ये गीत तो खैर अमर है ही.
behtreen behtren behtreen
नायब गीत ! बहुत अच्छी लगी ये श्रृंखला !
ऑटो प्ले में गाने मिक्स हो रहे हैं..दो तीन एक साथ बजने लगते हैं. जरा देखियेगा..वैसे गाया बहुत बेहतरीन है जो सुनाई पड़ रहा फ्रंट में:
सजनवा बैरी हो गये....
ओह..! तो आप इस गीत की बात कर रहे थे पिछली पोस्ट में और मुझे लगा कि दुनिया बनाने वाले की बात कर रहे हैं..!
खैर ये गीत भी बेमिसाल है..! कभी मित्रों के साथ हँसी मजाक और कभी बड़ों से सीख के रूप में ये गीत अक्सर ही गाया जाता रहा है यहाँ तक की महिला मण्डली के सत्संग में भी ढोलक के साथ गा लिया जाता है ये गीत। बिलकुल सही कहा क अपने सहज बोलो के साथ ये गीत जुबान पर चढ़ता भी बहुत जल्दी है।
गीत सुनवाने का शुक्रिया...!
तीसरी कसम की असफ़लता के लिये हमेशा से शैलेन्द्र जी और राज कपूर साब (के असहयोग) को दिया जाता रहा है.. मगर फ़िल्म यूनिट के जुड़े एक सदस्य ने मुझे बताया था, कि बासु भट्टाचार्य का गैर जिम्मेदाराना व्यवहार (उन दिनो वे नये नये प्रेम में पड़े थे बिनल दा की बेटी के साथ) तो सैट से कभी भी गायब हो जाते या फोन पर लगे रहते.. राज कपूर ने तो ज़रूरत से ज्यादा साथ दिया जब एक बार फ़िल्म बासु दा की वजह से ओवर बजट हो गयी और लेट हो गयी तो वो भी नहीं बचा पाए...
शैलेन्द्रजी जैसे चोखे इंसान दुनिया में कभी कभी आते हैं.मेरे पिताजी को शैलेन्द्रजी के साथ रतलाम के एक कवि सम्मेलन में काव्य-पाठ का सौभाग्य प्राप्त है.साठ के द्शक की शुरूआत के पहले शैलेन्द्रजी एक स्थापित नाम बन चुके थे. पिताजी बताते हैं कि हम उनके सामने बहुत ही छोटे नाम थे लेकिन जैसे ही पिताजी ने शैलेन्द्रजी को बताया कि मैं भी इप्टा से जुड़ा हूँ वे इतने सहज और मित्रवत हो गए कि कवि सम्मेलन के बाद सुबह उनकी ट्रेन आने तक युवा कवियों से रतलाम स्टेशन के प्लेटफ़ार्म पर बतियाते रहे थे. ऐसी सहजता आज के सितारा गीतकारों में कहाँ.पिताजी ने बताया कि फ़िल्मी गीतकार का चोला वे मुम्बई में ही छोड़ आए थे और एक सामान्य कवि की तरह मंच पर पूरे समय विराजित रहे.और आज के दौर के देखिये एक आध गीत हिट हुआ नहीं फ़िल्मी लटके झटके शुरू.
purane geeton ka shauk mujhe bhi bahut hain...aur sunti bhi hoon par is geet ko lekar itni jaankari nahi thi..... information share karne ka shukriya
ये गीत मुझे भी बहुत अच्छा लगता है....
क्या खूब कही I आपका article बहुत अच्छा लगा मुझे।
शैलेंदर और शंकर जयकिशन की क्या लाजवाब जोड़ी थी !
मैं भी इन गीतों में रूचि रखता हूँ और येही गीत मैंने 'Hindi Movies And The Songs Of Innocence' में अभी हाल में ही डाला है I
बहुत खूबसूरत ब्लॉग है आपकी I
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