चंदन दास पर आधारित इस श्रृंखला का समापन आज निदा फ़ाज़ली की इस बेहतरीन ग़ज़ल से। पर जैसा कि पिछली पोस्ट में मैने जिक्र किया था, आज ये भी जानेंगे कि क्या सोचते हैं चंदन दास ग़ज़ल गायिकी, इसके श्रोताओं और भविष्य में इसकी लोकप्रियता के बारे में ? कुछ साल पहले अंग्रेजी दैनिक ट्रिब्यून और यूनआई को उन्होंने अलग अलग साक्षात्कारों में बताया था कि
चाहे कितनी तरह का संगीत आए या जाए, ग़ज़लों के प्रशंसक हर काल में रहे हैं और आगे भी रहेंगे। हाँ ये जरूर है कि ग़ज़ल जैसी विधा हर संगीत प्रेमी को आकर्षित नहीं करती। हर कालखंड में ग़ज़ल वैसे ही लोगों द्वारा सराही गई हे जिन्हें उच्च दर्जे की कविता की समझ हो। ग़ज़ल सुनने से थिरकने का मन नहीं होता या जोर से झूमने की इच्छा होती है ये तो अपने अशआरों की अन्तरनिहित भावनाओं से सीधे दिल के पुर्जों को झिंझोड़ देती है। अब गालिब की शायरी को ही लें, उनकी मृत्यु की दो शताब्दियों के बाद भी उसके असर का मुकाबला किसी अन्य लोकप्रिय संगीत से नहीं किया जा सकता। इसका मतलब ये भी नहीं कि संगीत के अन्य रूपों डिस्को, जॉज, पॉप , रिमिक्स की जगह नहीं। है पर दोनों की प्रकृति में कोई साम्य नहीं , दोनों की दुनिया ही अलग है।
ग़ज़ल में शब्दों का बहुत महत्त्व है। वैसे तो ग़ज़ल गायक कई बार जनता का ध्यान रखते हुए ऍसी ग़ज़लों को चुनते हैं जो उनकी आसानी से समझ आ जाए। पर इस बाबत एक सीमा से ज्यादा समझौता करने वाले गायक ज्यादा दिनों तक लोकप्रियता का दामन नहीं छू पाते।
ग़ज़लों को बढ़ावा देने में टीवी के रोल से चंदन असंतुष्ट हैं. वो कहते हैं कि ".....एक ज़माने में जब दूरदर्शन था तो ग़ज़लों और मुशायरों के कई कार्यक्रम हुआ करते थे पर आज जब टीवी के पर्दे पर चैनलों की बाढ़ आई हुई है तो संगीत की अन्य विधाओं के सामने शेर ओ शायरी और कविता से जुड़े कार्यक्रम कहीं नज़र ही नहीं आते।..."
चंदन की बात वाज़िब है। यूँ तो संगीत चेनल के नाम पर MTV, etc और चैनल V जैसे कई चैनल हैं पर इनमें से किसी ने भी ग़ज़लों को केंद्रित कर दैनिक या साप्ताहिक श्रृंखला नहीं चलाई। आज के हिट गीतों को तो ये दिन में बीसियों बार बजा सकते हैं पर एक अच्छा ग़ज़लों का कार्यक्रम करने के बारे में ये सोचते तक नहीं। विविध भारती को छोड़ दें तो निजी एफ एम चैनलों की भी कमोबेश यही हालत है। ये स्थिति चिंतनीय है और इसे सुधारने के लिए आम श्रोताओं को भी एक दबाव बनाना होगा नहीं तो आगे की पीढ़ियाँ संगीत की इस अनमोल विधा को सुनने से वंचित रह जाएँगी।
इस श्रृंखला में
तो लौटते हैं आज की ग़ज़ल पर जो मुझे तीनों ग़ज़लों में सबसे अधिक प्रिय है। ये ग़ज़ल चंदन दास की अब तक पेश की गई ग़ज़लों से भिन्न एक दूसरे मिज़ाज़ की ग़ज़ल है जिसका हर शेर आपको कुछ सोचने पर मजबूर कर देता है। खासकर एक शेर तो आज के इस सोशल नेटवर्किंग के दौर में खास मायने रखता है। फेसबुक, आर्कुट में सैकड़ों की संख्या में हम दोस्त बना लेते हैं पर क्या हमारे पास उनमें से सभी तो छोड़ें कुछ खास के लिए भी पर्याप्त वक़्त होता है। इसी लिए मुझे निदा फ़ाज़ली का ये शेर सबसे ज्यादा कचोटता है
मैले हो जाते हैं रिश्ते भी लिबासों की तरह
दोस्ती हर दिन की मेहनत है चलो यूँ ही सही
दोस्ती हर दिन की मेहनत है चलो यूँ ही सही
चंदन दास ने जिस संयमित और सधी आवाज़ में इस ग़ज़ल का निर्वाह किया है उसे आप उनकी आवाज़ में इस ग़ज़ल को सुनकर ही महसूस कर सकते हैं।
आती जाती हर मोहब्बत है चलो यूँ ही सही
जब तलक़ है खूबसूरत है चलो यूँ ही सही
जैसी होनी चाहिए थी वैसी तो दुनिया नहीं
दुनियादारी भी जरूरत है चलो यूँ ही सही
मैले हो जाते हैं रिश्ते भी लिबासों की तरह
दोस्ती हर दिन की मेहनत है चलो यूँ ही सही
हम कहाँ के देवता हैं, बेवफा वो हैं तो क्या
घर में कोई घर की ज़ीनत है चलो यूँ ही सही
यूँ तो चंदन दास की ग़ज़लों की फेरहिस्त बेहद लंबी है पर मैंने अभी तक उनके कई एलबमों को नहीं सुना है। इस बार की श्रृंखला तो आज यहीं खत्म कर रहा हूँ पर फिर कभी उनकी कुछ और बेहतरीन ग़ज़लें हाथ लगेंगी तो आपके साथ उन्हें जरूर शेयर करूँगा।
9 टिप्पणियाँ:
चन्दन दास जी ने टी.वी. पर ग़ज़लों और मुशायरों के कार्यकमों की कमी की जो बात कही है उस से मैं शत प्रतिशत सहमत हूँ सिर्फ ई-उर्दू पर मुशायरे आते हैं लेकिन ई-उर्दू हर कहीं दिखाया जाता...साहित्य की इस अनमोल विधा का ये अपमान है...नयी पीढी ग़ज़लों की खूबसूरती से कैसे वाकिफ होगी...
चन्दन दास जी मेरे पसंदीदा ग़ज़ल गायक रहे हैं...उनके लगभग सभी केसेट मेरे पास हैं...उनका गया "दुआ करो की ये पौधा सदा हरा ही रहे..."मुझे हमेशा सुनना अच्छा लगता है...
नीरज
चंदन दास जी..काफी पसंद हैं. आलेख बहुत बढ़िया और विचारणीय है.
ये गज़ल नही सुनी थी पहले..सुनना अच्छा लगा! आपके द्वारा उद्धृत शेर और उस शेर पर आपके बयान भी सटीक लगे...!
MTV, etc और चैनल V जैसे कई चैनल भले ही गजल को बढावा ना दें पर चाहने वाले तो रहेंगे ही ! अच्छी प्रस्तुति.
वाकई हर शेर दाद देने के काबिल है। काफ़ी कुछ सोचने पर मजबूर करता हुआ। शानदार प्रस्तुति के लिये शुक्रिया।
चंदन दास की आवाज़ उनकी एक अलग पहचान है. उनका गीत 'पिया नहीं जिस गाँव में आग लगे उस गाँव में....' बहुत चर्चित हुआ था.
बहुत खूब!
चंदन साहब के विचारों से अवगत कराने हेतु आभार।
-Zakir Ali ‘Rajnish’
{ Secretary-TSALIIM & SBAI }
Bhuat hi zabardast ghazal hai manish ji! and comes a saddening fact: i am reading a ghazal after a long time
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