बात १९९० की है। हमें इंजीनियरिंग कॉलेज में गए हुए छः महिने बीत चुके थे यानि यूँ कहें कि शुरुआती दो तीन महिनों वाली रैगिंग का फेज़ समाप्त प्रायः हो गया था। घर से निकलने के बाद की पहली पहल आज़ादी का असली स्वाद चखने का यही समय था। यानि अब हम आराम से कॉलेज हॉस्टल से राँची के फिरायालाल के चक्कर लगा पा रहे थे। फुर्सत के लमहों में पढ़ाई के आलावा नई नई बालाओं की विशिष्टताओं की चर्चा में भी खूब आनंद आने लगा था। ऍसे में पता चला कि मार्च के महिने में मेसरा का सालाना महोत्सव जिसे वहाँ बिटोत्सव (Bitotsav) कहा जाता है आरंभ होने वाला है।
अब अपन इन कार्यक्रमों में हिस्सा-विस्सा तो नहीं लिया करते थे पर सारे कार्यक्रमों को देखने की इच्छा जरूर होती थी। और सबसे अधिक इंतज़ार रहता था इस उत्सव की समाप्ति पर होने वाले संगीत महोत्सव का जिसमें पूरे आर्केस्ट्रा के साथ पाश्चात्य और हिन्दी दोनों तरह के संगीत का कार्यक्रम हुआ करता था। मार्च महिने की वो रात मुझे कभी नहीं भूलती। बहुत सारे गीत गाए जा चुके थे पर वो लुत्फ़ अभी तक नहीं आया था जिसकी अपेक्षा लिए हम खुले आकाश के नीचे मैदान में दो घंटे से बैठे थे। तभी हमारे सीनियर बैच की दो छात्राओं के नाम स्टेज़ पर उद्घोषित किए गए। हम सब ने सोचा कोई युगल गीत होगा। और फिर शुरु हुआ आशा ताई का गाया वो गीत जिसके प्रभाव से मैं वर्षों मुक्त नहीं हो पाया।
वो गीत था गुलज़ार का लिखा हुआ और पंचम का संगीत बद्ध कतरा कतरा मिलती है, कतरा कतरा जीने दो... । भावना भंडारी और बी. सुजाता की जोड़ी ने आशा ताई के इस एकल गीत को मिल कर इतनी खूबसूरती से निभाया कि हम रात भर पागलों की तरह इस गीत को गुनगुनाते रहे।
अगले दिन छुट्टी थी पर इस गीत को फिर से सुनने की इच्छा इतनी बलवती थी कि नाश्ता करने के ठीक बाद अगली बस से राँची इस फिल्म की कैसेट खरीदने के लिए निकल पड़े। अब कैसेट तो दिन तक हॉस्टल में आ गई पर अगली समस्या थी कि इसे बजाया कैसे जाए क्यूँकि मेरे पास उस वक़्त कोई टेपरिकार्डर तो था नहीं। लिहाज़ा बारी बारी से पड़ोसियों के दरवाजे ठकठकाए गए ताकि एक अदद टेपरिकार्डर उधारी पर माँगा जा सके। तीसरे या चौथे दरवाज़े पर हमारी इल्तिज़ा रंग लाई और चार घंटे के लिए हमें टेपरिकार्डर मिल गया। फिर तो ये गीत घंटों रिवाइण्ड कर कर के बजाया गया। गुलज़ार के प्रति मेरा अनुराग ऍसे कई अनुभवों की बदौलत मेरे दिल में सतत पलता बढ़ता रहा है। खैर बात हो रही थी कतरा कतरा की...
दरअसल गीत को इतना खूबसूरत बनाने में गुलज़ार, पंचम और आशा जी की तिकड़ी का बराबर का हाथ है। क्या धुन बनाई थी पंचम दा ने और अपनी प्यारी चहकती छनछनाती आवाज़ में कितनी खूबसूरती से निभाया था आशा जी ने। पंचम तो संगीत में नित नए प्रयोग करने में माहिर रहे हैं। इस गीत में पंचम ने आशा जी की आवाज़ का इस्तेमाल मल्टी ट्रैक रिकार्डिंग में इस तरह किया है कि पूरे गीत में दो आशाएँ एक साथ सुनाई देती है।
तो आइए गुलज़ार के लिखे शब्दों को महसूस कीजिए पंचम की अद्भुत स्वरलहरियों और आशा जी की बहती आवाज़ में ...
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कतरा कतरा मिलती है
कतरा कतरा जीने दो
जिंदगी है, जिंदगी है
बहने दो, बहने दो
प्यासी हूँ मैं, प्यासी रहने दो
रहने दो ...
कल भी तो कुछ ऐसा ही हुआ था
नींद में थी तुमने जब छुआ था
गिरते गिरते बाहों में बची मैं
सपने पे पाँव पड़ गया था
सपनों में रहने दो
प्यासी हूँ मैं प्यासी रहने दो
तुम ने तो आकाश बिछाया
मेरे नंगे पैरो में जमीं है
पा के भी तुम्हारी आरजू है
हो शायद ऐसी जिंदगी हसीं है
आरजू में बहने दो
प्यासी हूँ मैं ,प्यासी रहने दो
रहने दो, ना ...
कतरा कतरा मिलती है....
हल्के हल्के कोहरे के धुएँ में
शायद आसमाँ तक आ गयी हूँ
तेरी दो निगाहों के सहारे
देखो तो कहाँ तक आ गयी हूँ
कोहरे में बहने दो
प्यासी हूँ मैं, प्यासी रहने दो
रहने दो, ना ...
कतरा कतरा मिलती है.....
गुलज़ार का लिखा गीत तो आपने सुन लिया पर उनकी लिखी नज़्मों या ग़ज़लों को आपने नहीं सुना तो फिर गुलज़ार के शब्द चित्रों में डूबने का मौका तो खो दिया आपने। इसलिए चलते चलते उनसे जुड़ी मेरी चार पसंदीदा कड़ियाँ भी पढ़ते सुनते जाइए। मैं जानता हूँ कि अगर आपने इन्हें पहले नहीं सुना तो बार बार जरूर सुनना चाहेंगे...
- बहुत दिन हो गए सच्ची तेरी आवाज़ की बौछार में भींगा नहीं हूँ मैं.. अनुपम खेर की आवाज़ में
- तेरे इश्क़ में बादल धुने मौसम बुने...रेखा भारद्वाज की आवाज़ में
- रात भर बुझते हुए रिश्ते को तापा हमने खुद गुलज़ार की आवाज़ में
- ख़ुमार- ए -गम महकती फिज़ा में जीते हैं.... जगजीत सिंह की आवाज़ में
आज गुलज़ार साहब के जन्मदिन पर मेरी यही कामना है कि वे इसी तरह अपने कलम की विलक्षणता से मामूली शब्दों में भावों के जादुई रंग भरते रहें और हमें यूँ ही अपनी रचनाओं से अचंभित, मुदित और निःशब्द करते रहें...आमीन
18 टिप्पणियाँ:
आपका गुलजार प्रेम और पसंद दोनों प्रशंशनीय हैं...इस खूबसूरत गीत को सुनवाने के लिए शुक्रिया...
नीरज
हम तो डूब गए जी इस गाने में। दो बार सुनकर अब कमेंट करने आया हूँ। और इसके बाद फिर से सुनुँगा। वैसे संगीत होता ही ऐसा कि आदमी घंटो तक भटककर जब आता है और आकर संगीत सुनता है तो सुकुन मिलता है।
gulzaar ke diwane to ham bhi hai.... par aapki diwangi ka agaza aapki prastuti se lagaya jata hain...... bahut achcha
katra katra jeene दो ......... gulzaar sahab की shaayri padhta padhta किसी doosri दुनिया में निकल जाता है insaan ......... आपका शुक्रिया इन nazmon के लिए ...
javab nahi manish....post ka...shukriyaa
गुलज़ार के गीतों का क्या कहना. बडे सादगी से अपने शब्दों को पिरोतें हैं.
आश्चत्य यह है, कि सन १९६३ से बंदिनी से अपनी फ़िल्मी यात्रा शुरु करने वाले गुलज़ार के केवल ११ गीत ही रफ़ी जी नें गाये हैं-
४ एकल
६ युगल
१ मिश्र
गुलज़ार....! एक ऐसा नाम...! जिसे सुनते ही कुछ अच्छी अनुभूति हो जाती है....! कहने को कुछ नही उनकी प्रशंसा में..! ये गीत भी और सारे ही गीत अद्भुत लगते हैं मुझे उनके....!
और इस गीत के पीछे कही गई आपकी कहानी से बड़ी अच्छी खुशबू आ रही है...!!! :)
बढ़िया प्रविष्टि है, आनन्द आ गया!
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ना लाओ ज़माने को तेरे-मेरे बीच
सुंदर गीत सुनवाने के लिए आभार।
10th मे 1989 को शादी के तीसरे दिन मुझे विदा करा कर ले जाने के क्रम में घर पहुँचने से पहले मेरे पतिदेव मुझे बी आई टी मेसरा के कैम्पस में ले गए थे,यह दिखाने के लिए कि जो जगह उनके दिल के सबसे करीब है,उसे मैं सबसे पहले देख लूं और कैम्पस देख कर मैंने कहा था कि इस जगह पर तो कोई भी कवि लेखक साहित्यकार या साधू बन जाएगा...आपलोगों ने इतनी बदमाशियां कैसे पालीं...
खैर,यह स्थान अब चूँकि उसके ह्रदय के निकट है जो मेरे ह्रदय का हिस्सा है तो मैं भी यहाँ से उतनी ही अंतरंगता अनुभूत करती हूँ...आपलोगों के यहाँ जब गोल्डन जुबली समारोह मनाया गया था,जिसमे राखी संवत जी भी अपने कला प्रदर्शन के लिए आयीं थीं,तो हम सपरिवार दो दिन कैम्पस में ही रहे थे....वह समय सदा अविस्मर्णीय रहेगा....
जिन गीतों और गीतकार की आपने बात की है,उनकी प्रशंशा के लिए उपयुक्त शब्द का संधान सहज नहीं,इसलिए बस उनका नमन कर ही निकल चलती हूँ.....और इस सुन्दर आलेख और गीतों को सुनवाने के लिए आपको बहुत बहुत बधाई देती हूँ....
अब इस पर आभार के अलावा और क्या कहें.
जबरदस्त पोस्ट । बधाई ।
गुलजार जी को जन्म दिन की शुभकामनाएं .....और आपको ढेरों बधाई इस सुंदर आलेख के लिए ....गीत पसंदीदा थे ....!!
रंजना जी सही कहा आपने मेसरा में नैसर्गिक सुंदरता की कमी नहीं है । आपका संस्मरण सुन कर मन खुश हुआ। मैं उस समारोह में शिरकत नहीं कर सका इसका मलाल है।
इस आलेख को पसंद करने के लिए आप सभी लोगों का शुक्रिया !
Manish, my comment would sound pretty late, actually it is now almost 22 years since I also heard this song in the same Music Nite. You wouldn't believe but I did something similar - went to Ranchi, bought the cassette and played it on a borrowed player. Later during the semester prep leave this became the lobby song (we were in lobby 2, hostel 6). Those, really, were the days. How I miss BIT. Thanks for this blog.
बहुत अच्छा लगा समीर ये जानकर कि तुम्हारे साथ भी इस गीत को सुनकर वैसा ही हुआ था जैसा मेरे साथ हुआ था। कॉलेज की स्मृतियों को यहाँ साझा करने के लिए कोटिशः धन्यवाद ।
बहुत ही रोचक संस्मरण है.....और इतने दिनों बाद भी आपको अपनी सीनियर्स के नाम भी याद हैं...क्या बात है..:)
कतरा..कतरा बहुत ही चहकता हुआ चुलबुला सा गीत है...अनुराधा पटेल के किरदार की तरह.
अभी रंजना जी का कमेन्ट देखा...वार्षिक समारोह में 'राखी सावंत बुलाई जाती हैं??...जायका खराब हो गया..:(
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