दो साल पहले एक दौरे पर दुर्गापुर गया था। साथ में कोई सहकर्मी ना होने के कारण दफ़्तर से वापस आकर शामें गुजारना काफी मुश्किल हो रहा था। ऐसी ही एक खाली शाम को कोई और विकल्प ना रहने की वज़ह से एक फिल्म देखनी पड़ी थी 'दस कहानियाँ'।
दुर्गापुर के नए मल्टीप्लेक्स में हॉल में उस रात मेरे साथ मात्र सात आठ दर्शक रहे होंगे। दस अलग अलग कहानियों को एक ही साथ प्रस्तुत करने के इस अनूठे प्रयोग के लिए कहानियों के चुनाव में निर्देशक को जो सतर्कता बरतनी चाहिए थी, वो नहीं की गई।
सो दस कहानियों में तीन चार को छोड़कर बाकी किसी गत की नहीं थी। खैर अब नब्बे रुपये खर्च किए थे तो मैं फिल्म को झेलने के लिए मज़बूर था, पर कमाल की बात ये देखी कि मेरी पंक्ति में एक सज्जन आए और पहली कहानी को आधा देखने के बाद ऍसा सोए कि सीधे फिल्म खत्म होने के बाद चुपचाप उठे और चल दिये। मैंने मन ही मन सोचा कि जरूर ये बंदा अपनी घरवाली से त्रस्त होगा वर्ना एक मीठी नींद के लिए इतना खर्चा करने की क्या जरूरत थी।
खैर फिल्म में गीत भी दमदार नहीं थे। बाद में एक दिन नेट पर विचरण कर रहा था तो ये पता लगा कि गुलज़ार साहब ने इसकी दस कहानियों की स्क्रिप्ट पढ़कर हर कहानी पर एक नज़्म तैयार की है जिसे फिल्म के अलग अलग कलाकारों ने अपनी आवाज़ में पढ़ा है।
दस कहानियों के गीतों के साथ ही निकला एलबम तो मुझे जल्द ही मिल गया पर मुझे अचरज इस बात का हुआ कि फिल्म में इन बेहतरीन नज़्मों को किसलिए इस्तेमाल नहीं किया गया। शायद समय की कमी एक वज़ह रही हो। इस चिट्ठे पर इस एलबम की अपनी चार पसंदीदा नज़्मों में से तीन तो आपको सुना चुका हूँ। तो आइए करें कुछ बातें 'गुब्बारे' कहानी पर केंद्रित गुलज़ार की इस चौथी नज़्म के बारे में जिसे अपना स्वर दिया है नाना पाटेकर ने ।
पुराने दिन, पुरानी यादें किसी भी कवि मन की महत्त्वपूर्ण खुराक़ होती है। बीते हुए लमहों में हुई हर इक छोटी बड़ी बात को याद रखना तो शायद हम में से कइयों का प्रिय शगल होगा। पर उन बातों को शब्दों के कैनवास पर बखूबी उतार पाना कि वो सीधे दिल को बिंधती चली जाए गुलज़ार के ही बस की बात है। नाना जब अपनी गहरी आवाज़ में बस इतना सा कहते हैं
तेरे उतारे हुए दिन टँगे हैं लॉन में अब तक
ना वो पुराने हुए हैं न उनका रंग उतरा
कहीं से कोई भी सीवन अभी नहीं उधड़ी
तो हमारी अपनी पुरानी यादों के कुछ बंद दरवाजे तो अनायास खुल ही जाते हैं। गुलज़ार का ये अंदाज़ भी दिल को करीब से छू जाता है
गिलहरियों को बुलाकर खिलाता हूँ बिस्कुट
गिलहरियाँ मुझे शक़ की नज़रों से देखती हैं
वो तेरे हाथों का मस्स जानती होंगी...
तो सुनें नाना पाटेकर की आवाज़ में ये नज़्म
दरअसल नज़्मों को पढ़ना भी एक कला से कम नहीं है गुलज़ार को जितना पढ़ना पसंद आता है उतना ही उन्हें सुनना। यही खासियत अमिताभ जी में भी है। वैसे कुछ शब्दों के उच्चारण को अगर नज़रअंदाज कर दें तो नाना पाटेकर ने भी नज़्म की भावनाओं को आत्मसात कर इसे पढ़ा है।
तेरे उतारे हुए दिन टँगे हैं लॉन में अब तक
ना वो पुराने हुए हैं न उनका रंग उतरा
कहीं से कोई भी सीवन अभी नहीं उधड़ी
इलायची के बहुत पास रखे पत्थर पर
ज़रा सी जल्दी सरक आया करती है छाँव
ज़रा सा और घना हो गया है वो पौधा
मैं थोड़ा थोड़ा वो गमला हटाता रहता हूँ
फकीरा अब भी वहीं मेरी कॉफी देता है
गिलहरियों को बुलाकर खिलाता हूँ बिस्कुट
गिलहरियाँ मुझे शक़ की नज़रों से देखती हैं
वो तेरे हाथों का मस्स जानती होंगी...
कभी कभी जब उतरती हैं चील शाम की छत से
थकी थकी सी ज़रा देर लॉन में रुककर
सफेद और गुलाबी मसुंदे के पौधों में घुलने लगती है
कि जैसे बर्फ का टुकड़ा पिघलता जाए विहस्की में
मैं स्कार्फ ..... गले से उतार देता हूँ
तेरे उतारे हुए दिन पहन कर अब भी मैं तेरी महक में कई रोज़ काट देता हूँ
तेरे उतारे हुए दिन टँगे हैं लॉन में अब तक
ना वो पुराने हुए हैं न उनका रंग उतरा
कहीं से कोई भी सीवन अभी नहीं उधड़ी....
इस एलबम की अन्य पसंदीदा नज़्में..
दुर्गापुर के नए मल्टीप्लेक्स में हॉल में उस रात मेरे साथ मात्र सात आठ दर्शक रहे होंगे। दस अलग अलग कहानियों को एक ही साथ प्रस्तुत करने के इस अनूठे प्रयोग के लिए कहानियों के चुनाव में निर्देशक को जो सतर्कता बरतनी चाहिए थी, वो नहीं की गई।
सो दस कहानियों में तीन चार को छोड़कर बाकी किसी गत की नहीं थी। खैर अब नब्बे रुपये खर्च किए थे तो मैं फिल्म को झेलने के लिए मज़बूर था, पर कमाल की बात ये देखी कि मेरी पंक्ति में एक सज्जन आए और पहली कहानी को आधा देखने के बाद ऍसा सोए कि सीधे फिल्म खत्म होने के बाद चुपचाप उठे और चल दिये। मैंने मन ही मन सोचा कि जरूर ये बंदा अपनी घरवाली से त्रस्त होगा वर्ना एक मीठी नींद के लिए इतना खर्चा करने की क्या जरूरत थी।
खैर फिल्म में गीत भी दमदार नहीं थे। बाद में एक दिन नेट पर विचरण कर रहा था तो ये पता लगा कि गुलज़ार साहब ने इसकी दस कहानियों की स्क्रिप्ट पढ़कर हर कहानी पर एक नज़्म तैयार की है जिसे फिल्म के अलग अलग कलाकारों ने अपनी आवाज़ में पढ़ा है।
दस कहानियों के गीतों के साथ ही निकला एलबम तो मुझे जल्द ही मिल गया पर मुझे अचरज इस बात का हुआ कि फिल्म में इन बेहतरीन नज़्मों को किसलिए इस्तेमाल नहीं किया गया। शायद समय की कमी एक वज़ह रही हो। इस चिट्ठे पर इस एलबम की अपनी चार पसंदीदा नज़्मों में से तीन तो आपको सुना चुका हूँ। तो आइए करें कुछ बातें 'गुब्बारे' कहानी पर केंद्रित गुलज़ार की इस चौथी नज़्म के बारे में जिसे अपना स्वर दिया है नाना पाटेकर ने ।
पुराने दिन, पुरानी यादें किसी भी कवि मन की महत्त्वपूर्ण खुराक़ होती है। बीते हुए लमहों में हुई हर इक छोटी बड़ी बात को याद रखना तो शायद हम में से कइयों का प्रिय शगल होगा। पर उन बातों को शब्दों के कैनवास पर बखूबी उतार पाना कि वो सीधे दिल को बिंधती चली जाए गुलज़ार के ही बस की बात है। नाना जब अपनी गहरी आवाज़ में बस इतना सा कहते हैं
तेरे उतारे हुए दिन टँगे हैं लॉन में अब तक
ना वो पुराने हुए हैं न उनका रंग उतरा
कहीं से कोई भी सीवन अभी नहीं उधड़ी
तो हमारी अपनी पुरानी यादों के कुछ बंद दरवाजे तो अनायास खुल ही जाते हैं। गुलज़ार का ये अंदाज़ भी दिल को करीब से छू जाता है
गिलहरियों को बुलाकर खिलाता हूँ बिस्कुट
गिलहरियाँ मुझे शक़ की नज़रों से देखती हैं
वो तेरे हाथों का मस्स जानती होंगी...
तो सुनें नाना पाटेकर की आवाज़ में ये नज़्म
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दरअसल नज़्मों को पढ़ना भी एक कला से कम नहीं है गुलज़ार को जितना पढ़ना पसंद आता है उतना ही उन्हें सुनना। यही खासियत अमिताभ जी में भी है। वैसे कुछ शब्दों के उच्चारण को अगर नज़रअंदाज कर दें तो नाना पाटेकर ने भी नज़्म की भावनाओं को आत्मसात कर इसे पढ़ा है।
तेरे उतारे हुए दिन टँगे हैं लॉन में अब तक
ना वो पुराने हुए हैं न उनका रंग उतरा
कहीं से कोई भी सीवन अभी नहीं उधड़ी
इलायची के बहुत पास रखे पत्थर पर
ज़रा सी जल्दी सरक आया करती है छाँव
ज़रा सा और घना हो गया है वो पौधा
मैं थोड़ा थोड़ा वो गमला हटाता रहता हूँ
फकीरा अब भी वहीं मेरी कॉफी देता है
गिलहरियों को बुलाकर खिलाता हूँ बिस्कुट
गिलहरियाँ मुझे शक़ की नज़रों से देखती हैं
वो तेरे हाथों का मस्स जानती होंगी...
कभी कभी जब उतरती हैं चील शाम की छत से
थकी थकी सी ज़रा देर लॉन में रुककर
सफेद और गुलाबी मसुंदे के पौधों में घुलने लगती है
कि जैसे बर्फ का टुकड़ा पिघलता जाए विहस्की में
मैं स्कार्फ ..... गले से उतार देता हूँ
तेरे उतारे हुए दिन पहन कर अब भी मैं तेरी महक में कई रोज़ काट देता हूँ
तेरे उतारे हुए दिन टँगे हैं लॉन में अब तक
ना वो पुराने हुए हैं न उनका रंग उतरा
कहीं से कोई भी सीवन अभी नहीं उधड़ी....
इस एलबम की अन्य पसंदीदा नज़्में..
23 टिप्पणियाँ:
Gulzaar Sahab ke geeton mein ageeb kashish hoti thi..kuch alg alag sa ehsaas liye hiye hote hai unake geet..
badhiya prstuti..badhayi..
Shukriya...
bahut bahut shukriya.......
फ़िल्म तो हम देखते ही नही, लेकिन यह गजल सच मै बहुत सुंदर लगी.
धन्यवाद
Bahut badhiya Manish ji, Is nazm main bhi gulzar saheb ne kamaal kar diya. Thanks for sharing a beautiful creation.
Ek baat aur Is blog ka naya look to bahut he pasand aaya.
नाना की आवाज में सुनकर अच्छा लगा। सच पूछिए तो नाना जी बातचीत करने का तरीका और वो तू करके बात करना मन को हमेशा भाता है।
और हाँ टेम्पलेट भी अच्छा लग रहा है।
वाह !!! आनंद आ गया....बहुत बहुत आभार आपका,इस नायब चीज को सुनवाने का....
अपने शहर में जब यह फिल्म देखने टाकिज में गयी तो पूरे हाल में मेरी भाभी,जिसे मैं जबरदस्ती अपने साथ ले गयी थी के अलावे तीन या चार लोग ही थे...दसों कहानियों में से गुब्बारे मुझे सबसे अच्छी लगी थी..इतनी अच्छी कि अभीतक यह मानस पटल पर तनिक भी धूमिल नहीं हो पाई है...
आपने सही कहा..इतनी कहानियों में कुछ ही कहानियां मन को छूने लायक थीं...और इतनी उम्दा नज्मे उन्होंने क्यों नहीं रखीं,उनकी समझ पर तरस आ रहा है....क्योंकि अगर ये उसमे होतीं तो निश्चित ही उसे एक बहुत बड़ा दर्शक वर्ग मिलता..
अभी तो नहीं सुन पा रहा लेकिन आज ही ढूंढ़ता हूँ.
bबहुत बडिया पोस्ट आभार्
han.. das kahaniyo ki in poetries ke bare mein suna tha....par aap ne padha diya shukriya
गज़ब रहा यह नज़्म पढ़ना और नाना की आवाज में सुनना...बहुत आभार!!
khuub pasand hai...shukriyaa
हाय, तब मैंनें ध्यान ही न दिया था ।
यदि डाउनलोड लिंक दे देते, तो मेरा कलेक्शन और पुख़्ता हो, आपका शुक्रिया करता !
gilhariyon ko bulakar khilata hoon biskut glihariyaan mujhe shque ki nazar se dekhti hai wo tere haathon ka massa janti hongi....
simply awesome.
Once again "Hats Off Gulzaar"
...For u Thousand times and over.
@विनोद कुमार पांडेय
hoti thi.. ?????
:(
धन्यवाद....
गुलजार साहब तो वैसे ही पसंद हैं मुझे, नाना पाटेकर की आवाज भी अच्छी लगी। ये सचमुच आश्चर्यजनक है कि इन नज़्मों को शामिल क्यों न किया गया??
is film ki dusari nazmo ke bare me bhi aap se hi suna tha...ise bhi sunana achchchha laga...Gulzar sahab ki Nazmo ke vishay me kya kaha jaye... aksar to kahti hi hun
नज़्म तो पहले से पढ़ी हुई है पर इसे यूँ ढूंढ़ना आपके बस में ही है ......अब एक काम करे इसे हमें मेल करे....इसे गुजारिश समझे ......एक गुलज़ार भक्त की दूसरे से
dhnyavaad......dhanyavaad......dhanyavaad.....bahut....bahut...bahut.... dhanyavaad.....manish....aaj to dil baag-baag ho gayaa.....yaar....!!
aapki jitni tareef ki jaye kam hai.net ka itba shandaar istemal kabile tarif hai...
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