आज से करीब २५ साल पहले २० नवंबर १९८४ को लाहौर के मेयो अस्पताल से फ़ैज़ अहमद फैज़ हमें छोड़ कर चले गए। पर फ़ैज़ की ग़ज़लें, उनकी नज़्में रह रह कर दिल में उभरती रहती हैं। आज की सुबह एक ऍसी ही सुबह है जब उनकी इस नज़्म की याद मुझे बारहा आ रही है। क्यूँ आ रही है ये बात बाद में । पहले ये जान लें कि फ़ैज ने इस नज़्म में क्या लिखा था?
फ़ैज़ ने अगस्त १९४७ में पाकिस्तान के तत्कालीन हालातों के मद्देनज़र एक नज़्म लिखी थी सुबह-ए- आज़ादी। कम्युनिस्ट विचारधारा से जुड़े फ़ैज़ आज़ादी को एक ऍसे परिवर्तन के रूप में देखना चाहते थे जो अमीरी और गरीबी की खाई को मिटा दे। पर जब ऍसा कुछ नहीं हुआ तो मायूस हो कर उन्होंने लिखा
कैसी दागदार रौशनी के साथ निकली है ये सुबह जिसमें कुछ दिखाई नहीं दे रहा। जब हम अपने इस सफ़र में चले थे तो हमने ऐसी सुबह की तो कल्पना नहीं की थी। हमारी कल्पनाओं की सुबह तो उस मुकाम की तरह थी जैसे कोई आसमान की चादर पर चलते हुए जगमगाते तारों के पास पहुँच जाए या जैसे भटकती हुई समुद्र की धारा को उसका किनारा मिल जाए।
ये दाग दाग उजाला, ये शबगज़ीदा सहर
वो इन्तज़ार था जिस का, ये वो सहर तो नहीं
ये वो सहर तो नहीं जिस की आरज़ू लेकर
चले थे यार कि मिल जायेगी कहीं न कहीं
फ़लक के दश्त में तारों की आख़िरी मंज़िल
कहीं तो होगा शब-ए-सुस्त मौज का साहिल
वो इन्तज़ार था जिस का, ये वो सहर तो नहीं
ये वो सहर तो नहीं जिस की आरज़ू लेकर
चले थे यार कि मिल जायेगी कहीं न कहीं
फ़लक के दश्त में तारों की आख़िरी मंज़िल
कहीं तो होगा शब-ए-सुस्त मौज का साहिल
आखिर कहीं तो ग़म से भरे इस दिल की नैया को किनारा मिलेगा? युवावस्था की रहस्यमय दहलीज़ को पार करते वक़्त इस सफ़र पर चलने से हमें जाने कितने ही हाथों ने रोका। हुस्न की परियाँ हमें आवाज़ देकर अपनी ओर आकृष्ट करने का प्रयास करती रहीं पर फिर भी वो हमें अपने मार्ग से विचलित ना कर सकीं, थका ना सकीं। आखिर क्यूँ ? क्यूँकि दिल में उस सुबह को लाने का एक जोश था, एक उमंग थी। हमारे लिए तो उस बिल्कुल करीब आ गई सुबह के हसीं दामन को छू लेना ही अंतिम मुकाम था।
कहीं तो जा के रुकेगा सफ़ीना-ए-ग़म-ए-दिल
जवाँ लहू की पुर-असरार शाहराहों से
चले जो यार तो दामन पे कितने हाथ पड़े
दयार-ए-हुस्न की बे-सब्र ख़्वाब-गाहों से
पुकारती रहीं बाहें, बदन बुलाते रहे
बहुत अज़ीज़ थी लेकिन रुख़-ए-सहर की लगन
बहुत क़रीं था हसीनान-ए-नूर का दामन
सुबुक सुबुक थी तमन्ना, दबी दबी थी थकन
जवाँ लहू की पुर-असरार शाहराहों से
चले जो यार तो दामन पे कितने हाथ पड़े
दयार-ए-हुस्न की बे-सब्र ख़्वाब-गाहों से
पुकारती रहीं बाहें, बदन बुलाते रहे
बहुत अज़ीज़ थी लेकिन रुख़-ए-सहर की लगन
बहुत क़रीं था हसीनान-ए-नूर का दामन
सुबुक सुबुक थी तमन्ना, दबी दबी थी थकन
सुन रहे हैं कि जुल्म के बादल अब छँट चुके हैं और लोग तो ये भी कह रहे हैं कि जिस मंजिल की तलाश में हम चले थे वो हमें मिल भी चुकी है। पर कहाँ है चेहरों पर लक्ष्य मिलने की खुशी? अगर हालात बदले हैं तो उनका असर क्यूँ नहीं दिखाई देता? जिस सुबह की हवा का हमें बेसब्री से इंतज़ार था वो किधर से आई और किधर चली गई? अब देखिए ना सड़क के किनारे जलते इस प्रकाशपुंज को भी उसके जाने का रास्ता नहीं मालूम। रात का भारीपन भी तो कम होता नहीं दिखता। इसीलिए तो मुझे लगता है आँखों और दिल को जिस सुबह की तलाश थी वो अभी नहीं आई। तुमलोग भी आगे का सफ़र करने को तैयार हो जाओ कि मंज़िल तक पहुँचना अभी बाकी है.....
सुना है हो भी चुका है फ़िराक़-ए-ज़ुल्मत-ओ-नूर
सुना है हो भी चुका है विसाल-ए-मंज़िल-ओ-गाम
बदल चुका है बहुत अहल-ए-दर्द का दस्तूर
निशात-ए-वस्ल हलाल-ओ-अज़ाब-ए-हिज्र-ओ-हराम
जिगर की आग, नज़र की उमंग, दिल की जलन
किसी पे चारा-ए-हिज्राँ का कुछ असर ही नहीं
कहाँ से आई निगार-ए-सबा, किधर को गई
अभी चराग़-ए-सर-ए-राह को कुछ ख़बर ही नहीं
गिरानि-ए-शब में कमी नहीं आई
निजात-ए-दीद-ओ-दिल की घड़ी नहीं आई
चले चलो कि वो मंज़िल अभी नहीं आई
सुना है हो भी चुका है फ़िराक़-ए-ज़ुल्मत-ओ-नूर
सुना है हो भी चुका है विसाल-ए-मंज़िल-ओ-गाम
बदल चुका है बहुत अहल-ए-दर्द का दस्तूर
निशात-ए-वस्ल हलाल-ओ-अज़ाब-ए-हिज्र-ओ-हराम
जिगर की आग, नज़र की उमंग, दिल की जलन
किसी पे चारा-ए-हिज्राँ का कुछ असर ही नहीं
कहाँ से आई निगार-ए-सबा, किधर को गई
अभी चराग़-ए-सर-ए-राह को कुछ ख़बर ही नहीं
गिरानि-ए-शब में कमी नहीं आई
निजात-ए-दीद-ओ-दिल की घड़ी नहीं आई
चले चलो कि वो मंज़िल अभी नहीं आई
ये तो थी मेरी समझ के हिसाब से इस उर्दू नज़्म का अनुवाद करने की एक कोशिश। संभवतः इसमें कुछ त्रुटियाँ भी हो सकती हैं। वैसे कुछ दिनों पहले मुझे कुर्तुलीन हैदर की किताब आग का दरिया के अंग्रेजी अनुवाद The River of Fire के एक अंश को पढ़ने का मौका मिला था। उस किताब में फ़ैज की इस नज़्म का संक्षिप्त अनुवाद करते हुए कुर्तुलीन जी ने लिखा था
This blighted dawn , this darkened sun. This is not the morning we waited for.We went forth in the desert of heaven, hoping to reach our destination of stars. We hoped that, somewhere, we would come ashore from the placid river of the night, that the barge of sorrow would end its cruise. Whence came the early morning breeze, where did it go? The wayside lamp does not know. The night's burden has not diminished, the hour of deliverance for eye and heart has not arrived. Face forward! For our destination is not yet
in sight.
तो आइए सुनें जाने माने अभिनेता नसीरुद्दीन शाह की धारदार आवाज़ में फ़ैज़ की ये नज़्म
17 टिप्पणियाँ:
नसीर को सुनूँगी आराम से लेकिन नज़्म पढ़कर एक बार फिर ..अच्छा लगा..कहना बेमानी होगा।
वैसे कुर्तुल ने कई शीर्षक फैज़ की नज़्मों से लिये थे ..
झारखण्ड को किसी शहर या प्रान्त से रिप्लेस कर दीजिये तो हालात यही है !
फैज साहब की ये नज्म पहले नही पढी थी। आपके जरिए आज पढी ली वो भी आपके सरल अनुवाद के रुप में। और सोने पर सुहागा देखिए कि नसीर साहब की एक अलग आवाज में इसको सुनना। आप बहुत मेहनत करते है पोस्ट को करने के लिए। शुक्रिया आपका।
Manish Kumar-ji,
Aapki Blogg pe hamesha jaa ke lutf uthata hun aur uske liye dhanyawad.
"Ye Daagh Daagh Ujala" Nasir ki awaz mein sooni. Yehi Gazal Madhurani Faizabadi ne gaayee hai aur unka sumadhur aawaz aur Faiz ki benamun
shaayri main sunte thakta nahin hun.
Agar is comment ke saath woh gazal attach karne ko aata to attach karta. Aapka e-mail pe bhejne ki koshish karta hun. Aapke asankhya bloggers ko ho sake to sunaayiga.
Bharat Upadhyay
Andheri, Mumbai
बहुत सुंदर जी.
धन्यवाद
Bharat ji
Is post par aapki pratikriya ke liye aabhar. Aap mujhe madhurani ji ki ghazal mere e mail par bhej sakte hain. Main use isi post ke sath laga doonga.
mujhe kabhi kisi shayer ko live sunne ka saubhagy to nahi mila, par jab kabhi aap logo ke jariye unlo sunta hun, to main khud to khayalo ki duniya main pata hun.........
kab main vahaan pahuch jata hun pata hi nahi chalta,
hame in khubsoort lamho me le jane ke liye aapka sukriya...........
फैज साहब का अंदाज निराला है जी।
फैज़ साहब को इस तरह याद करना अच्छा लगा ।
bookmark karne si post hai .
बहुत सुन्दर पोस्ट, पर नज़्म नहीं सुन पाया ।
Is adwiteey post ke liye sadhuvaad !!
Bahut sahi kaha aapne,jharkhand aaj jis mod par khada hai aage sab kuchh andhera hee andhera dikh raha hai....cnunaav ke nateeje aane dijiye dekhiyega,sthiti usse behtar nahi hogee jaisi pichhlee kai chunavon ke baad thi...
Manish,
Waah...bahut bahut saal baad yeh nazm padhee...sunee pehlee baar...
Yeh audio kahan sey down load kar saktey hain?
Naseer reciting Faiz!!!!!!!!!
आत्मप्रकाश जी ये नज़्म नंदिता दास की बनाई फिल्म फिराक़ से है जिसकी CD व कैसेट, Times Music पर उपलब्ध है। सीडी के बारे में और जानकारी आप यहाँ से ले सकते हैं।
http://www.infibeam.com/Music/firaaq-piyush-kanojia-audio-cd/C89917EDB01C0.html
Dear Manish ji,
I read your post on Faiz and his poem "Yeh dag dag Ujala" and your
translation in Hindi helped me to understand this poem.
Have you translated other poems of Faiz? If yes, let me know.
Thanks.
Sukhwant
धन्यवाद मनीषजी। मैं एक अनुवाद के सिलसिले में फैज को खोजते-खोजते आपके ब्लाग पर चला आया। आपके अनुवाद ने मेरी बहुत मदद की। अंग्रेजी में इसी शेर का अनुवाद मुझे कहीं मिल गया था जिसका मुझे हिंदी करना था। लेकिन अंग्रेजी इतना कठिन था कि मेरी समझ में नहीं आ रहा था। आपका शुक्रिया।
If someone is out there reading this,
एक वक्त आएगा, जब ख़त्म हो जाएगा शायरों का फसाना
खुशकिस्मती है, की वो वक्त अभी नहीं।
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