पिछले एक हफ्ते से ब्लॉगों की दुनिया से दूर रहा। सोचा था कि जाने के पहले सुरेश वाडकर की ये सर्वप्रिय ग़ज़ल सिड्यूल कर आपके सुपुर्द करूँगा पर उसके लिए भी वक़्त नहीं मिला। ख़ैर अब अपनी यात्रा से लौट आया हूँ तो ये ग़ज़ल आपके सामने हैं। इसे लिखा था शहरयार यानि कुँवर अखलाक़ मोहम्मद खान साहब ने।
यूँ तो शहरयार ने चंद फिल्मों के लिए ही अपनी ग़ज़लें लिखी हैं पर वे ग़ज़लें हिन्दी फिल्म संगीत के लिए मील का पत्थर साबित हुई हैं। अब चाहे आप उमराव जान की बात करें या गमन की। ये बात गौर करने की है कि इन दोनों फिल्मों के निर्देशक मुजफ़्फर अली थे। दरअसल शहरयार अलीगढ़ मुस्लिम विश्वविद्यालय में जब उर्दू विभाग में पढ़ाते थे तब मुजफ्फर भी वहीं के छात्र थे और शहरयार साहब के काव्य संग्रह से वो इतने प्रभावित हुए कि उनकी दो ग़ज़लों को उन्होंने फिल्म गमन में ले लिया।
उनकी शायरी को विस्तार से पढ़ने का मौका तो अभी तक नहीं मिला पर उनकी जितनी भी ग़ज़लें सुनी हैं उनकी भावनाओं से खुद को जोड़ने में कभी दिक्कत महसूस नहीं की। लेखक मोहनलाल, भारतीय साहित्य की इनसाइक्लोपीडिया (Encyclopedia of Indian Literature, Volume 5) में शहरयार साहब की शायरी के बारे में लिखते हैं
शहरयार ने अपनी शायरी में कभी भी संदेश देने या निष्कर्ष निकालने की परवाह नहीं की। वो तो आज के आदमी के मन में चल रहे द्वन्दों और अध्यात्मिक उलझनों को शब्दों में व्यक्त करते रहे। उनकी शायरी एक ऍसे आम आदमी की शायरी है जो बीत रहे समय और आने वाली मृत्यु जैसी जीवन की कड़वी सच्चाइयों के बीच झूलते रहने के बावज़ूद अपनी अभी की जिंदगी को खुल कर जीना चाहता है। शहरयार ऍसे ही व्यक्ति के ग़मों और खुशियों को अपने अशआरों में समेटते चलते हैं।
खुद वांगमय पत्रिका में डा. जुल्फिकार को दिये साक्षात्कार में शहरयार का कहना था कि
मेरी सोच यह है कि साहित्य को अपने दौर से अपने समाज से जुड़ा होना चाहिए, मैं साहित्य को मात्र मन की मौज नहीं मानता, मैं समझता हूँ जब तक दूसरे आदमी का दुख दर्द शामिल न हो तो वह आदमी क्यों पढ़ेगा आपकी रचना को। जाहिर है दुख दर्द ऐसे हैं कि वो कॉमन होते हैं। जैसे बेईमानी है, झूठ है, नाइंसाफी है, ये सब चीजें ऐसी हैं कि इनसे हर आदमी प्रभावित होता है। कुछ लोग कहते हैं कि अदब से कुछ नहीं होता है। मैं कहता हूँ कि अदब से कुछ न कुछ होता है।
अब १९७९ में प्रदर्शित गमन फिल्म की इसी ग़ज़ल पर गौर करें मुझे नहीं लगता कि हममें से ऍसा कोई होगा जिसने इन सवालातों को जिंदगी के सफ़र में कभी ना कभी अपने दिल से ना पूछा हो। मुझे यूँ तो इस ग़ज़ल के सारे अशआर पसंद हैं पर दिल है तो धड़कने का बहाना कोई ढूँढे.. वाला शेर सुनते ही मन खुद बा खुद इस गीत को गुनगुनाते हुए इसमें डूब जाता है।
दरअसल एक शायर की सफलता इसी बात में है कि वो अपने ज़रिए कितने अनजाने दिलों की बातें कह जाते हैं।
सीने में जलन आँखों में तूफ़ान सा क्यूँ है?
इस शहर में हर शख़्स परेशान सा क्यूँ है?
इस शहर में हर शख़्स परेशान सा क्यूँ है?
दिल है तो धड़कने का बहाना कोई ढूँढे
पत्थर की तरह बेहिस-ओ-बेज़ान सा क्यूँ है?
पत्थर की तरह बेहिस-ओ-बेज़ान सा क्यूँ है?
तन्हाई की ये कौन सी मंज़िल है रफ़ीक़ों
ता-हद्द-ए-नज़र एक बयाबान सा क्यूँ है?
ता-हद्द-ए-नज़र एक बयाबान सा क्यूँ है?
क्या कोई नई बात नज़र आती है हम में
आईना हमें देख के हैरान सा क्यूँ है?
आईना हमें देख के हैरान सा क्यूँ है?
ऊपर से जयदेव का कर्णप्रिय सुकून देने वाला संगीत जिसमें सितार , बाँसुरी और कई अन्य भारतीय वाद्य यंत्रों का प्रयोग मन को सोहता है। तो लीजिए सुनिए इस गीत को सुरेश वाडकर की आवाज़ में
17 टिप्पणियाँ:
oh....thats why i put this on facebook...
यह ग़जल मेरी पसन्दीदा रही है।
आभार बन्धु!
इस गज़ल को सुनना बेहद खूबसूरत अनुभव है । अमिट प्रभाव है इसका । आभार ।
बहुत सुंदर लेख ओर सुंदर गजल सुनबाने के लिये धन्यवाद
मनीष दिलचस्प बात ये है कि शहरयार से निजी तौर पर राब्ता रहा है । कम बोलने वाली गंभीर शख्सियत । उनके अकसर फ़ोन पर बातें होती हैं । रेडियो के लिए एक लंबी बातचीत भी की थी मैंने उनसे । उनको क़रीब से जानकर बहुत अच्छा लगा है । तुमने इस गाने की याद दिलाकर उनके साथ से जुड़े कई लम्हे याद दिला दिए । शुक्रिया ।
बहुत सुंदर गीत ।
mera bhi pasandeeda geet...
ye aina hai hairaan ki nazrain juda hain,
hai pareshaan jo khud se fir takti kahan hain
sharyaar saahab ka parichay karwne ke liye dhanyawad,khair mere ashaar itne mukammal to nahi par fir bhi muflisi me mureedain kahan marti hain.
आभार इसे सुनवाने के लिए.
आप इतना मधुर गाते भी हैं,यह तो बिलकुल भी नहीं पता था....
क्या कहूँ मनीष जी....इक्कीस वर्षों बाद आज यह गीत सुना है मैंने,जो की मुझे इतना पसंद था कि यह हमेशा ही होंठों पर सजा रहता था.....आपकी ह्रदय से आभारी हूँ इस गीत को सुनवाने के लिए...
हाँ,एक बात है आपके गीतों का चयन ऐसा है कि अब मैं संकोच नहीं रख सकती...प्लीज अपने कोष में से मुझे भी कुछ दीजिये...अगले महीने सेल आने की सम्भावना है...आप तैयार रखियेगा...मैं सी डी ले लुंगी आपसे...
हो सके तो मेरे मेल में अपना सेल नंबर भेज दीजिये...
Abhi tak gyarah baar ise sun chuki hun ,par man hai ki bhar hi nahi raha....
शहरयार साब को पढ़ा है मैंने और खूब-खूब पढ़ता हूँ। लेकिन उनकी ये वाली ग़ज़ल तो तब से सुन रहा हूं जब पता भी नहीं था कि शहरयार कौन हैं।
शहरयार साहब के बारे में कमाल की जानकारी दी है आपने मैं इसे अपनी किताबों की दुनिया श्रृंखला के अंतर्गत उपयोग में लाने वाला हूँ...इजाज़त देंगे ना?
नीरज
so sweet voice . So nice of you to sing this song .
शहरयार में शर्तिया कुछ तो बात थी
इस खूबसूरत ग़ज़ल को सुरेश वाडेकर साहब की मखमली आवाज़ ने और दिलकश बना दिया है... शहरयार साहब का जवाब ही क्या। शुक्रिया इस उम्दा शाम के लिए..
तीसरी बार कमेंट कर रही हूं :( पता नहीं कहां जा रहा है... ख़ैर यह उम्दा ग़ज़ल सुरेश वाडेकर साहब की मखमली आवाज़ में सुनाने का शुक्रिया.. सुनी तो कई बार है लेकिन जितनी बार सुना जाए, उतनी बार नई सी लगती है..
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