वार्षिक संगीतमाला 2009 का एक महिने का सफ़र तय करते हुए आज हम आ पहुँचे हैं 17 वीं पॉयदान पर। पिछली पॉयदान पर आपने देखा की किस तरह पीयूष मिश्रा ने अपने गीत को तत्कालीन राष्ट्रीय और अंतरराष्ट्रीय मसलों को जनता के सामने पेश करने का माध्यम बनाया था। आज का ये युगल गीत राजनीतिक नहीं पर एक सामाजिक संदेश जरूर दे रहा है और वो भी इस अंदाज़ में जिसे सुनने का मन बार बार करता है।
इस युगल गीत के साथ पहली बार इस गीतमाला में अपनी उपस्थिति दर्ज करा रहे हैं आज के युग के दो बेमिसाल गायक सुखविंदर सिंह और कैलाश खेर। इन दोनों महारथियों को एक साथ सुनना किसी भी संगीतप्रेमी के लिए सोने पर सुहागा जैसी बात होती है। वैसे तो इन गायकों की खासियत रही हे कि आम से गीत को भी अपनी अदाएगी से खास बना दें पर जब बोल गुलज़ार के हों और धुन विशाल भारद्वाज की तो उनका काम और आसान हो जाता है।
इस युगल गीत के साथ पहली बार इस गीतमाला में अपनी उपस्थिति दर्ज करा रहे हैं आज के युग के दो बेमिसाल गायक सुखविंदर सिंह और कैलाश खेर। इन दोनों महारथियों को एक साथ सुनना किसी भी संगीतप्रेमी के लिए सोने पर सुहागा जैसी बात होती है। वैसे तो इन गायकों की खासियत रही हे कि आम से गीत को भी अपनी अदाएगी से खास बना दें पर जब बोल गुलज़ार के हों और धुन विशाल भारद्वाज की तो उनका काम और आसान हो जाता है।
कमीने फिल्म के इस गीत ने जितनी चुनौती गायकों के लिए थी उससे कहीं ज्यादा गीतकार संगीतकार की जोड़ी के लिए। गीत लिखना था एक ऐसी स्थिति पर जिसमें नायक जो एक सामाजिक कार्यकर्ता है , घूम घूम कर रेड लाइट एरिया में कंडोम का वितरण कर रहा है और साथ ही लोगों को एड्स के खतरे के बारे में बता रहा है। किसी भी गीतकार के लिए इस विषय को बिना उपदेशात्मक हुए कविता में बाँधना एक टेढ़ी खीर थी। पर गुलज़ार ने इस काम को बड़े सलीके से अंजाम दिया। वहीं विशाल का संगीत संयोजन और फटाक शब्द का गीत की लय के साथ बेहतरीन इस्तेमाल श्रोताओं का ध्यान सहज ही आकर्षित कर लेता है।
तो आइए सुनें कैलाश और सुखविंदर की आवाज़ में ये नग्मा
कि भँवरा भँवरा आया रे फटाक फटाक
गुन गुन करता आया रे
सुन सुन करता गलियों से
अब तक कोई ना भाया रे
सौदा करे सहेली का
सर पर तेल चमेली का
कान में इतर का फाहा रे
कि भँवरा भँवरा आया रे फटाक फटाक.. ..
गिनती ना करना इसकी यारों में
आवारा घूमे गलियारों में
ये चिपकू हमेशा सताएगा
ये जाएगा फिर लौट आएगा
खून के मैले कतरे हैं
जान के सारे खतरे ...
कि आया रात का जाया रे..फटाक ...
जितना भी झूठ बोले थोड़ा है
कीड़ों की बस्ती का मकौड़ा है
ये रातों का बिच्छू है काटेगा
ये ज़हरीला है ज़हर चाटेगा
दरवाजे में कुन्दे दो
दफ़ा करो ये गुंडे ये शैतान का साया रे फटाक फटाक..
ये इश्क़ नहीं आसान, अजी AIDS का खतरा है
पतवार पहन जाना ये आग का दरिया है
ये नैया डूबे ना ये भँवरा काटे ना
ये नैया डूबे ना ये भँवरा काटे ना ...
और हाँ गीत सुनने के साथ बगल की साइड बार में चल रही वोटिंग में अपनी पसंद का इज़हार जरूर कीजिए।
7 टिप्पणियाँ:
बेहतरीन चयन!!
सीढ़ी दर सीढ़ी चयन गानों का बेहतरीन तो है ही, किंतु हर गीत के साथ आपकी बातें पूरे पोस्ट को बहुत दिलचस्प बना देती है।
Henry Bhaiya Raham Keejiye humein nahin chahiye aapke ye 5$
"kadam dar kadam karwa badh raha hai
geetoon ka silsila ban raha hai
mala-e-sangeet ke mootiyoon ki chamak
thahrav sare shravan ke har rahi hai"
aap jis shram aur samarpan ke saath in pravishtiyoon ko hamare liye taiyaar karte hain,nishchit dhanyawaad dene yogya to hai hi saath hi udahran hai ek mitr ka jo apni har pravishti ke madhyam se apne mitroon ko ek gultdasta deta hai jisme geet,jankari,gyan rupi prasoon sanjoye gaye hote hain.
AABHAR
समीर जी, गौतम धन्यवाद।
प्रियंक अरे तुम तो कवि ही बन गए। तुम्हारे जैसे पाठकों का स्नेह ही तो शक्ति देता है इन गुलदस्तों को पेश करने में। वैसे भी मेहनत तभी हो पाती है जब उसे कर आप आनंद का अनुभव करें और ब्लागिंग के प्रति मेरा अनुराग इसी तरह का है।
जाहिराना तौर पर गुलजार साहब के गीतों का अलग आनन्द है ! इस संगीतमाला के सोपान चढ़ते और भी चेहरे ऐसे मिले/मिलेंगे जिन्हें चाहने लगूँगा, यह समझ गया हूँ मैं !
रुचि फिर लौट आयी है समकालीन फ़िल्म-संगीत मे !
गीत,गायन और आपके चयन,सबने मिलकर हतप्रभ ही कर दिया है....फिल्म देखने की उत्सुकता चरम पर पहुँच गयी है...
मैंने पहली बार ही यह गीत सुना है...और यदि आप इस तरह ध्यान न दिलाते तो कहीं सुनने पर भी शायद ही ध्यान इस ओर जा पाता...
पिछले कुछ दिनों से नेट की स्थिति बहुत खराब चल रही है हमारे यहाँ...इस कारण इतनी सुन्दर पोस्ट उपलब्ध होते हुए इसका आनंद न उठा पायी...
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