वार्षिक संगीतमाला की छठी पॉयदान पर एक बार फिर है फिल्म गुलाल का एक और गीत। इस गीत के तीनो पक्षों यानि बोल, संगीत और गायिकी में जान डालने वाला एक ही शख़्स हैं और वो हैं पीयूष मिश्रा!
ग्वालियर में जन्मे और पले बढ़े पीयूष मिश्रा, बहुमुखी प्रतिभा के धनी एक कमाल के कलाकार हैं। नाटककार, चरित्र अभिनेता, संवाद लेखक, गीतकार, संगीतकार, गायक के रूप में तो सारे संगीतप्रेमी उन्हें जान ही गए हैं। पर क्या आप जानते हैं कि पीयूष को अपने अंदर के कलाकार को ढूँढने के लिए कितनी मशक्कत करनी पड़ी? पाँच साल तक सितार वादन में लगे रहे तो भी सुकून नहीं मिला। फिर ग्वालियर के शिल्प महाविद्यालय में दाखिला लिया पर वहाँ भी बात नहीं बनी। मन था कि रचनात्मकता के कुछ और आयाम तलाशने में लगा था। आखिरकार उनकी प्रतिभा को उचित मंच राष्ट्रीय नाट्य विद्यालय में प्रवेश लेने के साथ मिल गया।
पीयूष फिल्मों में पहली बार 1998 में मणि रत्नम की फिल्म 'दिल से' में दिखे। मुंबई में अपने विद्यालय के पुराने साथियों विशाल भारद्वाज, आशीष विद्यार्थी, अनुराग कश्यप, मनोज वाजपेयी की वज़ह से नाटकों में काम मिलता रहा पर उन्हें मुंबई से प्यारी दिल्ली ही लगती रही। जब पारिवारिक जिम्मेदारियाँ उन्हें सताने लगीं तो वो मुंबई आ गए। ये नहीं कि रंगमंच से उन्होंने नाता तोड़ लिया है पर समय रहते उन्होंने ये महसूस कर लिया कि आर्थिक स्थायित्व उन्हें फिल्म उद्योग ही दे सकता है।
पिछले साल वार्षिक संगीतमाला में पीयूष, सुखविंदर सिंह के गाए मस्तमौला नग्मे दिल हारा रे... की वज़ह से चर्चा में आए थे। वैसे ब्लैक फ्राइडे के चर्चित गीत ओ रुक जा रे बंदे के रचयिता भी वही थे। पर इस बार उन्होंने गुलाल के गीत लिखकर ये दिखला दिया कि एक गीतकार को अगर निर्देशक द्वारा खुली छूट दी जाए तो वो लीक से अलग हटकर भी बहुत कुछ दे सकता है। पीयूष कहते हैं कि अनुराग कश्यप के निर्देशन में बनी इस फिल्म के गीतों को रचने में उन्हें मात्र एक हफ्ते का समय लगा।
पॉयदान संख्या 18 पर हम उनके लिखे पॉलटिकल मुज़रे की चर्चा कर चुका हूँ। छठी पॉयदान पर विराजमान आज का ये गीत पीयूष ने मशहूर गीतकार और शायर साहिर लुधियानवी के अज़र अमर गीत ये दुनिया अगर मिल भी जाए तो क्या है से प्रेरित हो कर लिखा है और उन्हीं को ये गीत समर्पित भी किया है। मोहम्मद रफ़ी जैसे महान गायक ने साह़िर के शब्दों की संवेदनाओं को पकड़ते हुए इतने बेहतरीन तरीक़े से उस गीत को अपनी आवाज़ बख्शी थी कि शायद ही कोई उस गीत को भूल पाएगा।
पीयूष ने अपने इस गीत में साहिर की भावनाओं को आज के परिपेक्ष्य में देखने की कोशिश की है। वैसे तब और अब की दुनिया की समस्याओं में फर्क़ कुछ ज्यादा नहीं आया है। साहिर ने अपनी कालजयी रचना में गरीबी, सामाजिक और आर्थिक असमानता, व्यक्ति के भावनात्मक और नैतिक अवमूल्यन की बात की थी। पीयूष भी आज के समाज की भौतिकवादी मानसिकता का जिक्र अपने गीत में करते हैं जो इंसान को सत्ता, धन के मोह जाल में क़ैद किए हुए है। फिल्म गुलाल के अंत में पार्श्व में बजने वाला ये गीत दिल को झकझोरता सा निकल जाता है और हमें कुछ सोचने पर मज़बूर कर देता है।
तो आइए पढ़ें और सुनें पीयूष मिश्रा जी को
ओ री दुनिया, ओ री दुनिया…
ऐ ओ री दुनिया….
ऐ सुरमयी आँखों के प्यालों की दुनिया ओ दुनिया,
सुरमयी आँखों के प्यालों की दुनिया ओ दुनिया,
सतरंगी रंगों गुलालों की दुनिया ओ दुनिया,
सतरंगी रंगों गुलालों की दुनिया ओ दुनिया,
अलसाई सेजों के फूलों की दुनिया ओ दुनिया रे,
अंगड़ाई तोड़े कबूतर की दुनिया ओ दुनिया रे,
ऐ करवट ले सोई हकीक़त की दुनिया ओ दुनिया,
दीवानी होती तबियत की दुनिया ओ दुनिया,
ख्वाहिश में लिपटी ज़रुरत की दुनिया ओ दुनिया रे,
ऐ इंसान के सपनों की नीयत की दुनिया ओ दुनिया,
ओ री दुनिया, ओ री दुनिया,
ओ री दुनिया, ओ री दुनिया,
ये दुनिया अगर मिल भी जाए तो क्या है, ये दुनिया अगर मिल भी जाए तो क्या है,
ये दुनिया अगर मिल भी जाए तो क्या है…
ममता की बिखरी कहानी की दुनिया ओ दुनिया,
बहनों की सिसकी जवानी की दुनिया ओ दुनिया,
आदम के हव्वा से रिश्ते की दुनिया ओ दुनिया रे,
ऐ शायर के फीके लफ्ज़ों की दुनिया ओ दुनिया ,
ओ...............ओ...............
गा़लिब के मोमिन के ख़्वाबों की दुनिया,
मज़ाज़ों के उन इन्कलाबों की दुनिया,
फैज़, फिराको, साहिर व मखदूम,
मीर की, ज़ौक की, दाग़ों की दुनिया,
ये दुनिया अगर मिल भी जाए तो क्या है, ये दुनिया अगर मिल भी जाए तो क्या है,
ये दुनिया अगर मिल भी जाए तो क्या है…
पल छिन में बातें चली जाती हैं हैं,
पल छिन में रातें चली जाती हैं हैं,
रह जाता है जो सवेरा वो ढूँढे,
जलते मकान में बसेरा वो ढूँढे,
जैसी बची है वैसी की वैसी बचा लो ये दुनिया,
अपना समझ के अपनों के जैसी उठा लो ये दुनिया,
छिटपुट सी बातों में जलने लगेगी सँभालो ये दुनिया,
कटकुट के रातों में पलने लगेगी सँभालो ये दुनिया,
ओ री दुनिया, ओ री दुनिया,
वो कहे हैं की दुनिया ये इतनी नहीं है,
सितारों से आगे ज़हाँ और भी हैं,
ये हम ही नहीं हैं वहाँ और भी हैं,
हमारी हर एक बात होती वहीं हैं,
हमें ऐतराज़ नहीं हैं कहीं भी,
वो आलिम हैं फ़ाज़िल हैं होंगे सही ही,
मगर फलसफा ये बिगड़ जाता है जो वो कहते हैं,
आलिम ये कहता वहाँ ईश्वर है,
फ़ाज़िल ये कहता वहाँ अल्लाह है,
काबिल यह कहता वहाँ ईसा है,
मंजिल ये कहती तब इंसान से कि तुम्हारी है तुम ही सँभालो ये दुनिया,
ये बुझते हुए चंद बासी चरागों, तुम्हारे ये काले इरादों की दुनिया,
हे ओ.... री दुनिया…
कुन्नूर : धुंध से उठती धुन
-
आज से करीब दो सौ साल पहले कुन्नूर में इंसानों की कोई बस्ती नहीं थी। अंग्रेज
सेना के कुछ अधिकारी वहां 1834 के करीब पहुंचे। चंद कोठियां भी बनी, वहां तक
पहु...
6 माह पहले
14 टिप्पणियाँ:
बीते साल की यह मेरी सबसे पसंदीदा फिल्म थी और यह सबसे पसंदीदा गाना.
ज्यादा बता नहीं सकता... सबको पता है.
एक गज़ब का एहसास होता है इसे सुनते हुए ।
लिखाई और गवाई दोनों बेहतरीन है इस गीत की !
आभार इस प्रस्तुति का ।
ये तो और ऊपर आना दिजाव करता है ! अपना फेवरेट गीत. वैसे ऊपर वालों को देखकर बताऊंगा इससे ज्यादा पसंद है या कम.
अभिषेक व सागर सही कहा आपने..गीत की भावनाएँ और फिलॉसफी इसे एक अलग ही कोटि में खड़ा करती है। मेरी लिस्ट में ये दूसरे से आठवे नंबर तक घटता बढ़ता रहा है। जैसे मैंने कहा है कि शुरुआती दसों गीत मेरे अज़ीज़ हैं। इस साल के संगीत एलबमों में गुलाल मेरा भी चहेता एलबम रहा है वैसे फिल्म का प्रथम भाग बेहतरीन लगा था।
पिछले कुछ समय की अनुपस्थिति मे गीतमाला कई पायदान आगे निकल गयी.मगर खुशी हुई जब एक बार फिर गुलाल का गीत देखा..पीयूष मिश्र के रूप मे एक बहुआयामी कलाकार हिंदी सिनेमा को मिला है..जो हर बार अपनी प्रतिभा से सभी को चौँकाने की सामर्थ्य रखता है..और गुलाल फ़िल्म व उसके संगीत के बारे मे मै इतना इमोशनल हूँ कि अगर पिछले साल की अपनी कोई लिस्ट बनाऊँ तो गुलाल और उसके संगीत को उससे परे रख कर ही किसी और फ़िल्म या संगीत की बात कर पाऊँगा..फिर यह गीत....प्यासा से गुलाल तक दुनिया कितनी ’सेम’ रही है...
मनीष जी आप तो जानते ही यह मेरा फेवरेट गाना है। और अभी इसको कई बार सुन चुका हूँ। इस गाने में एक अलग ही कशिश है। जो अपनी और खिंचती है। और पीयूष जी ने जो शब्द दिये है वाकई कमाल के है। पहली बार जब सुना था आँखे गीली हो गई थी, ना जाने क्यों? और फिर अमिताभ जी फोन किया कि क्या आपने ये गाना सुना है तो कहने नही तो मैंने कहा कि फिर क्या सुना है। खैर उनको भी उसी वक्त मोबाईल को स्पीकर पर रख सुनाया। और उस दिन तो पता नही कितनी बार सुना होगा। हमारी मैडम जी ने भी कहा क्या एक गाने के पीछे पड़ गए हो। सच इस गाने ने जादू ही ऐसा किया है। शुक्रिया मनीष जी फिर से सुनवाने के लिए।
गुलाल देखने के बाद पियूष जी की बहुमुखी प्रतिभा ने हतप्रभ कर दिया था। किसी एक अतिप्रसिद्ध गीत को इस तरह मोल्ड करना और दोनो को अलग रखना स्वयं में दुष्कर होने के साथ साथ रचनात्मकता का अद्भुत उदाहरण है। सबकी तरह गुलाल के गीत मेरे लिये भी वर्ष के सर्वश्रेष्ठ गीतों में हैं।
आपकी नजर जौहरी है....और क्या कहूँ आपको.....
बस, आभार....आभार....आभार....
not to say much as song itself speelbounds and as the artist been dicussed was good to know.'gulal' movie remained in discussion among the college art group for long time and definately its' songs are still in ipods
the song was much higher the charts for me last year :) i shared the song with a few friends who dont tend to listen to Hindi film music and are not tuned into Hindi literature etc.. but they loved it so much too!
Sorry to nitpick but isn’t the line “Mir ki, Zauq ki, Daagon ki duniya ..” :) – the poets all.
oh that mad hatter was me, suparna :)
Mad Hatter :loz ye geet agar chart mein yahan hai to uska kuch blame tum pe bhi jata hai becoz iske oopar ke 5 songs mein do ko pehli baar tumhare batane par hi suna tha.
Aur haan correction kar diya hai.
lol .. now im waiting even more eagerly for the rest of the list :) :)
bahut sundar geet hai or us se bhi sundar ye blog h or aap ka karye h thnks for nise song
एक टिप्पणी भेजें