भारत की ग्रामीण और कस्बाई संस्कृति में मेलों का एक प्रमुख स्थान है। और अगर वो मेला कुंभ जैसे मेले सा वृहद हो तो फिर उसका महत्त्व और भी बढ़ जाता है। फिलहाल हरिद्वार की पवित्र नगरी में कुंभ मेला चल रहा है और परसों यानि 14 अप्रैल को मेष संक्रांति के अवसर पर लाखों की संख्या में आम जन प्रमुख शाही स्नान में हिस्सा लेंगे। लाखों लोगों का इस धार्मिक महोत्सव में अपने गाँव, कस्बों और शहरों से पलायन करना और फिर एक जगह इकठ्ठा होना अपने आप में एक बड़ी सामाजिक सांस्कृतिक घटना है।
साहित्यकार और गीतकार इन मेलों को अपनी लेखनी का विषय बनाते रहे हैं। पर कुंभ मेले पर बनारस के समीप स्थित चँदौली में जन्मे कवि कैलाश गौतम की इस आंचलिक रचना का मेरे हृदय में एक विशेष स्थान है।
इसकी वज़ह ये है कि जिस माहौल, जिन घटनाओं को कैलाश जी ने अपनी इस कविता में उतारा है वो इतनी आस पास की, इतनी सजीव दिखती हैं कि कवि की इन छोटी छोटी घटनाओं को सूक्ष्मता से पकड़ने की क्षमता पर दिल बाग बाग हो उठता है।
अब मेले में कंधे पर चलने वाली गठरी मुठरी के अंदर के अनिवार्य सामानों की चर्चा हो चाहे नई नवेली दुल्हन के चाल ढाल की, दो सहेलियों की आत्मीय बातचीत के झगड़े में बदलने की दास्तान हो या अटैची के ताले के मोलाने या ड्रामा देख कर भौजी के उछलने की बात हो..हर जगह अपने सूक्ष्म अवलोकन, आंचलिक बोली के ठेठ शब्दों के प्रयोग व प्रवाहपूर्ण शैली से कैलाश गौतम पाठकों को सम्मोहित करते चलते हैं।
कवि सम्मेलन की एक रिकार्डिंग में कैलाश गौतम खुद इस कविता के बारे में कहते हैं
कि भक्ति के रंग में रंगल गाँव देखा
धरम में करम में सनल गाँव देखा
अगल में बगल में सगल गाँव देखाअमौसा नहाये चलल गाँव देखा
एहू हाथे झोरा, ओहू हाथे झोरा
अ कान्ही पे बोरी, कपारे पे बोरा
अ कमरी में केहू, रजाई में केहू
अ कथरी में केहू, दुलाई में केहू
कि आजी रंगावत हईं गोड़ देखा
हँसत हउवैं बब्बा तनी जोड़ देखा
घुँघुटवै से पूछै पतोहिया कि अइया
गठरिया में अब का रखाई बतइहाएहर हउवै लुग्गा ओहर हउवै पूड़ी
रमायन के लग्गे हौ मड़ुआ के ढूँढ़ी
ऊ चाउर अ चिउरा किनारे के ओरी
अ नयका चपलवा अचारे के ओरी
अमौसा का मेला अमौसा का मेला...
मचल हउवै हल्ला चढ़ावा उतारा
खचाखच भरल रेलगाड़ी निहारा
एहर गुर्री-गुर्रा ओहर लोली-लोला
अ बिच्चे में हउवै सराफत से बोला
चपायल है केहू, दबायल है केहू
अ घंटन से उप्पर टँगायल है केहू
केहू हक्का-बक्का केहू लाल-पीयर
केहू फनफनात हउवै कीरा के नीयर
अ बप्पा रे बप्पा, अ दइया रे दइया
तनी हम्मैं आगे बढ़ै दे त भइया
मगर केहू दर से टसकले न टसकै
टसकले न टसकै, मसकले न मसकै
छिड़ल हौ हिताई नताई के चरचा
पढ़ाई लिखाई कमाई के चरचा
दरोगा के बदली करावत हौ केहू
अ लग्गी से पानी पियावत हौ केहू
अमौसा का मेला अमौसा का मेला...
जेहर देखा ओहरैं बढ़त हउवै मेला
अ सरगे के सीढ़ी चढ़त हउवै मेला
बड़ी हउवै साँसत न कहले कहाला
मूड़ैमूड़ सगरों न गिनले गिनाला
एही भीड़ में संत गिरहस्त देखा
सबै अपने अपने में हौ ब्यस्त देखा
अ टाई में केहू, टोपी में केहू
अ झूँसी में केहू, अलोपी में केहू
अखाड़न के संगत अ रंगत ई देखा
बिछल हौ हजारन के पंगत ई देखा
कहीं रासलीला कहीं परबचन हौ
कहीं गोष्ठी हौ कहीं पर भजन हौ
केहू बुढ़िया माई के कोरा उठावै
अ तिरबेनी मइया में गोता लगावै
कलपबास में घर क चिन्ता लगल हौ
कटल धान खरिहाने वइसै परल हौ
अमौसा का मेला अमौसा का मेला...
गुलब्बन के दुलहिन चलैं धीरे-धीरे
भरल नाव जइसे नदी तीरे-तीरे
सजल देह जइसे हो गौने का डोली
हँसी हौ बताशा शहद हउवै बोली
अ देखेलीं ठोकर बचावैलीं धक्का
मनै मन छोहारा मनै मन मुनक्का
फुटेहरा नियर मुस्किया-मुस्किया के
निहारे लैं मेला सिहा के चिहा के
सबै देवी देवता मनावत चलैंलीं
अ नरियर पे नरियर चढ़ावत चलैलीं
किनारे से देखैं इशारे से बोलैं
कहीं गांठ जोड़ैं कहीं गांठ खोलैं
बड़े मन से मन्दिर में दरसन करैलीं
अ दूधे से शिवजी क अरघा भरैलीं
चढ़ावैं चढ़ावा अ गोठैं शिवाला
छुवल चाहे पिन्डी लटक नाहीं जाला
अमौसा का मेला अमौसा का मेला...
एही में चम्पा चमेली भेटइलीं
अ बचपन के दूनो सहेली भेंटइलीं
ई आपन सुनावैं ऊ आपन सुनावैं
दूनों आपन गहना गदेला गिनावैं
असो का बनवलू असो का गढ़वलू
तू जीजा के फोटो न अब तक पठवलू
न ई उन्हैं रोकैं न ऊ इन्हैं टोकैं
दूनौ अपने दुलहा क तारीफ झोकैं
हमैं अपनी सासू के पुतरी तू जान्या
अ हम्मैं ससुर जी के पगरी तू जान्या
शहरियों में पक्की देहतियो में पक्की
चलत हउवै टेम्पो चलत हउवै चक्की
मनैमन जरै अ गड़ै लगलीं दूनों
भयल तू-तू मैं-मैं लड़ै लगली दूनों
अ साधू छोड़ावैं सिपाही छोड़ावै
अ हलुवाई जइसे कराही छोड़ावैं
अमौसा का मेला अमौसा का मेला...
कलौता के माई का झोरा हेरायल
अ बुद्धू का बड़का कटोरा हेरायल
टिकुलिया को माई टिकुलिया के जो है
बिजुलिया को माई बिजुलिया के जो है
मचल हउवै मेला में सगरो ढुंढाई
चमेला का बाबू चमेला का माई
गुलबिया सभत्तर निहारत चलैले
मुरहुवा मुरहुवा पुकारत चलैले
अ छोटकी बिटिउवा के मारत चलैले
बिटिउवै पर गुस्सा उतारत चलैले
गोबरधन के सरहज किनारे भेंटइलीं
गोबरधन के संगे पउँड़ के नहइलीं
घरे चल ता पाहुन दही-गुड़ खियाइत
भतीजा भयल हौ भतीजा देखाइत
उहैं फेंक गठरी परइलैं गोबरधन
न फिर-फिर देखइलैं धरइलैं गोबरधन
अमौसा का मेला अमौसा का मेला...
केहू शाल सुइटर दुशाला मोलावै
केहू बस अटैची के ताला मोलावै
केहू चायदानी पियाला मोलावै
सोठउरा के केहू मसाला मोलावै
नुमाइस में जातैं बदल गइलीं भउजी
अ भइया से आगे निकल गइलीं भउजी
आयल हिंडोला मचल गइलीं भउजी
अ देखतै डरामा उछल गइलीं भउजी
अ भइया बेचारू जोड़त हउवैं खरचा
भुलइले न भूलै पकौड़ी के मरचा
बिहाने कचहरी कचहरी के चिन्ता
बहिनिया का गौना मसहरी का चिन्ता
फटल हउवै कुरता फटल हउवै जूता
खलित्ता में खाली केराया के बूता
तबौ पीछे-पीछे चलत जात हउवन
गदेरी में सुरती मलत जात हउवन
अमौसा का मेला अमौसा का मेला...
(गैर भोजपुरी पाठकों की सुविधा के लिए शब्दार्थ : झोरा - झोला, कपार - सिर, गोड़ - पैर, चपायल - किसी के ऊपर पैर रखना, कीरा - कीड़ा, नीयर - की तरह, फनफनाना -बिलबिलाना, चपलवा - चप्पल, लुग्गा - साड़ी, चाउर - चावल, चिउरा - चूड़ा, पीयर - पीला, टसकना - हिलना, परबचन - प्रवचन, तिरबेनी - त्रिवेणी, नरियर - नारियल, पक्की - पक्का मकान, हेरायल - गुम हो जाना, सगरो - हर तरफ, मोलाना -दाम पूछना, मसहरी - मच्छरदानी)
कैलाश गौतम को जी को खुद सस्वर इस कविता का पाठ करते देखना चाहें तो ये रहा वीडिओ
और चलते चलते मेरे दो पाठक मित्रों का नाम लेना चाहूँगा जिनकी वज़ह से ये कविता आप तक पहुँच सकी। एक तो मंजुल जी जिन्होंने 2008 अक्टूबर में गाँधी जी पर लिखी कैलाश गौतम की कविता पर मेरी प्रस्तुति के जवाब में इस कविता के बारे में मुझे पहली बार बताया और दूसरे राधा चमोली जिन्होंने इस कविता की रिकार्डिंग मेरे साथ शेयर कर इस कविता के बारे में पुनः स्मरण कराया।
कवि सम्मेलन की एक रिकार्डिंग में कैलाश गौतम खुद इस कविता के बारे में कहते हैं
विश्व का सबसे बड़ा मेला इलाहाबाद में सम्पन्न होता है कभी कुंभ के रूप में कभी अर्ध कुंभ के रूप में। हर साल माघ मेले के नाम से ये ढाई महिने का मेला लगता है। मैंने बचपन में अपने अपने दादा दादी को, अपने माता पिता को इस मेले में आने की तैयारी करते हुए देखा है। रेडिओ में होने के नाते, इलाहाबाद में होने के नाते लगभग 38 वर्षों तक उस मेले का एक हिस्सा होता रहा। सन 1989 के कुंभ में ये कविता लिखी गई थी। चूंकि अमावस्या के स्नान पर्व पर सर्वाधिक भीड़ होती हे इसलिए इस कविता का नाम ही मैंने 'अमौसा का मेला' रखा।
इस रचना की भाषा यूँ तो भोजपुरी है पर ये वो भोजपुरी नहीं जो भोजपुर इलाके (आरा बलिया छपरा के सटे इलाके) में बोली जाती है। दरअसल बनारस से इलाहाबाद की ओर बढ़ने से भोजपुरी बोलने के तरीके और कुछ शब्दों में बदलाव आ जाता है पर जो भोजपुरी की मिठास है वो वैसे ही बनी रहती है। तो आइए इस मिठास को महसूस करें कैलाश जी की आवाज़ में इस हँसाती गुदगुदाती कविता में
हर बड़े मेले में भीड़ का चेहरा एक सा ही होता है। कभी कभी इस भीड़ के चलते बड़ी दुर्घटनाएं हो जाती हैं। दो तीन घटनाओं में मैं खुद शामिल रहा हूँ चाहे वो हरिद्वार का कुंभ हो या नासिक का कुंभ रहा हो। 1954 के कुंभ में भी कई हजार लोग मरे। पर मैंने इस कविता में बड़ी छोटी छोटी घटनाओं को पकड़ा, जहाँ जिंदगी है मौत नहीं है जहाँ हँसी है दुख नहीं है...
कि भक्ति के रंग में रंगल गाँव देखा
धरम में करम में सनल गाँव देखा
अगल में बगल में सगल गाँव देखाअमौसा नहाये चलल गाँव देखा
एहू हाथे झोरा, ओहू हाथे झोरा
अ कान्ही पे बोरी, कपारे पे बोरा
अ कमरी में केहू, रजाई में केहू
अ कथरी में केहू, दुलाई में केहू
कि आजी रंगावत हईं गोड़ देखा
हँसत हउवैं बब्बा तनी जोड़ देखा
घुँघुटवै से पूछै पतोहिया कि अइया
गठरिया में अब का रखाई बतइहाएहर हउवै लुग्गा ओहर हउवै पूड़ी
रमायन के लग्गे हौ मड़ुआ के ढूँढ़ी
ऊ चाउर अ चिउरा किनारे के ओरी
अ नयका चपलवा अचारे के ओरी
अमौसा का मेला अमौसा का मेला...
मचल हउवै हल्ला चढ़ावा उतारा
खचाखच भरल रेलगाड़ी निहारा
एहर गुर्री-गुर्रा ओहर लोली-लोला
अ बिच्चे में हउवै सराफत से बोला
चपायल है केहू, दबायल है केहू
अ घंटन से उप्पर टँगायल है केहू
केहू हक्का-बक्का केहू लाल-पीयर
केहू फनफनात हउवै कीरा के नीयर
अ बप्पा रे बप्पा, अ दइया रे दइया
तनी हम्मैं आगे बढ़ै दे त भइया
मगर केहू दर से टसकले न टसकै
टसकले न टसकै, मसकले न मसकै
छिड़ल हौ हिताई नताई के चरचा
पढ़ाई लिखाई कमाई के चरचा
दरोगा के बदली करावत हौ केहू
अ लग्गी से पानी पियावत हौ केहू
अमौसा का मेला अमौसा का मेला...
जेहर देखा ओहरैं बढ़त हउवै मेला
अ सरगे के सीढ़ी चढ़त हउवै मेला
बड़ी हउवै साँसत न कहले कहाला
मूड़ैमूड़ सगरों न गिनले गिनाला
एही भीड़ में संत गिरहस्त देखा
सबै अपने अपने में हौ ब्यस्त देखा
अ टाई में केहू, टोपी में केहू
अ झूँसी में केहू, अलोपी में केहू
अखाड़न के संगत अ रंगत ई देखा
बिछल हौ हजारन के पंगत ई देखा
कहीं रासलीला कहीं परबचन हौ
कहीं गोष्ठी हौ कहीं पर भजन हौ
केहू बुढ़िया माई के कोरा उठावै
अ तिरबेनी मइया में गोता लगावै
कलपबास में घर क चिन्ता लगल हौ
कटल धान खरिहाने वइसै परल हौ
अमौसा का मेला अमौसा का मेला...
गुलब्बन के दुलहिन चलैं धीरे-धीरे
भरल नाव जइसे नदी तीरे-तीरे
सजल देह जइसे हो गौने का डोली
हँसी हौ बताशा शहद हउवै बोली
अ देखेलीं ठोकर बचावैलीं धक्का
मनै मन छोहारा मनै मन मुनक्का
फुटेहरा नियर मुस्किया-मुस्किया के
निहारे लैं मेला सिहा के चिहा के
सबै देवी देवता मनावत चलैंलीं
अ नरियर पे नरियर चढ़ावत चलैलीं
किनारे से देखैं इशारे से बोलैं
कहीं गांठ जोड़ैं कहीं गांठ खोलैं
बड़े मन से मन्दिर में दरसन करैलीं
अ दूधे से शिवजी क अरघा भरैलीं
चढ़ावैं चढ़ावा अ गोठैं शिवाला
छुवल चाहे पिन्डी लटक नाहीं जाला
अमौसा का मेला अमौसा का मेला...
एही में चम्पा चमेली भेटइलीं
अ बचपन के दूनो सहेली भेंटइलीं
ई आपन सुनावैं ऊ आपन सुनावैं
दूनों आपन गहना गदेला गिनावैं
असो का बनवलू असो का गढ़वलू
तू जीजा के फोटो न अब तक पठवलू
न ई उन्हैं रोकैं न ऊ इन्हैं टोकैं
दूनौ अपने दुलहा क तारीफ झोकैं
हमैं अपनी सासू के पुतरी तू जान्या
अ हम्मैं ससुर जी के पगरी तू जान्या
शहरियों में पक्की देहतियो में पक्की
चलत हउवै टेम्पो चलत हउवै चक्की
मनैमन जरै अ गड़ै लगलीं दूनों
भयल तू-तू मैं-मैं लड़ै लगली दूनों
अ साधू छोड़ावैं सिपाही छोड़ावै
अ हलुवाई जइसे कराही छोड़ावैं
अमौसा का मेला अमौसा का मेला...
कलौता के माई का झोरा हेरायल
अ बुद्धू का बड़का कटोरा हेरायल
टिकुलिया को माई टिकुलिया के जो है
बिजुलिया को माई बिजुलिया के जो है
मचल हउवै मेला में सगरो ढुंढाई
चमेला का बाबू चमेला का माई
गुलबिया सभत्तर निहारत चलैले
मुरहुवा मुरहुवा पुकारत चलैले
अ छोटकी बिटिउवा के मारत चलैले
बिटिउवै पर गुस्सा उतारत चलैले
गोबरधन के सरहज किनारे भेंटइलीं
गोबरधन के संगे पउँड़ के नहइलीं
घरे चल ता पाहुन दही-गुड़ खियाइत
भतीजा भयल हौ भतीजा देखाइत
उहैं फेंक गठरी परइलैं गोबरधन
न फिर-फिर देखइलैं धरइलैं गोबरधन
अमौसा का मेला अमौसा का मेला...
केहू शाल सुइटर दुशाला मोलावै
केहू बस अटैची के ताला मोलावै
केहू चायदानी पियाला मोलावै
सोठउरा के केहू मसाला मोलावै
नुमाइस में जातैं बदल गइलीं भउजी
अ भइया से आगे निकल गइलीं भउजी
आयल हिंडोला मचल गइलीं भउजी
अ देखतै डरामा उछल गइलीं भउजी
अ भइया बेचारू जोड़त हउवैं खरचा
भुलइले न भूलै पकौड़ी के मरचा
बिहाने कचहरी कचहरी के चिन्ता
बहिनिया का गौना मसहरी का चिन्ता
फटल हउवै कुरता फटल हउवै जूता
खलित्ता में खाली केराया के बूता
तबौ पीछे-पीछे चलत जात हउवन
गदेरी में सुरती मलत जात हउवन
अमौसा का मेला अमौसा का मेला...
(गैर भोजपुरी पाठकों की सुविधा के लिए शब्दार्थ : झोरा - झोला, कपार - सिर, गोड़ - पैर, चपायल - किसी के ऊपर पैर रखना, कीरा - कीड़ा, नीयर - की तरह, फनफनाना -बिलबिलाना, चपलवा - चप्पल, लुग्गा - साड़ी, चाउर - चावल, चिउरा - चूड़ा, पीयर - पीला, टसकना - हिलना, परबचन - प्रवचन, तिरबेनी - त्रिवेणी, नरियर - नारियल, पक्की - पक्का मकान, हेरायल - गुम हो जाना, सगरो - हर तरफ, मोलाना -दाम पूछना, मसहरी - मच्छरदानी)
कैलाश गौतम को जी को खुद सस्वर इस कविता का पाठ करते देखना चाहें तो ये रहा वीडिओ
और चलते चलते मेरे दो पाठक मित्रों का नाम लेना चाहूँगा जिनकी वज़ह से ये कविता आप तक पहुँच सकी। एक तो मंजुल जी जिन्होंने 2008 अक्टूबर में गाँधी जी पर लिखी कैलाश गौतम की कविता पर मेरी प्रस्तुति के जवाब में इस कविता के बारे में मुझे पहली बार बताया और दूसरे राधा चमोली जिन्होंने इस कविता की रिकार्डिंग मेरे साथ शेयर कर इस कविता के बारे में पुनः स्मरण कराया।
19 टिप्पणियाँ:
बहुत बढ़िया जीतनी बार इस कविता को सुनता हूँ , अपनी और बहुत अपनी सी लगती अहि,,...
पहली बार इसे अभिनव शुक्ल के याहां इसे सुनी थी और पढ़ी भी ....
आज फिर बातें उतनी ही करीब की लगी ....
ग्रामीण परिवेश पर आजकल लोग बहुत कम लिखते हैं और इस तरह की बातें तो और भी कम हो गयी हैं , लुप्त होती जा रही है इस तरह की साहित्य....
अर्श
ADBHUT HAI BHAI SHABD NAHIN HAI DHANYABAD KE LIYE
BADRI NATH
wah wah Amousa ka mela nice :)
अद्भुत कविता ! कैलाश जी की इस कविता को कई बार उनके मुँह से कवि सम्मेलनों मे सुना है, अपने कस्बे में भी ! उनकी प्रस्तुति का अनोखा अन्दाज इस कविता को एक अलग ही रंग देता था !
कविता की सहज संवेदना और सहज विवरण का चमत्कार देखते ही बनता है !
इस प्रस्तुति का आभार । उनका कविता पाठ करता हुआ वीडियो भी लगाते !
इस कविता को पढ़ और सुनकर जो स्वर्गिक आनंद मिला है,उसे मैं शब्दों में बाँध आपको नहीं बता सकती....
आपका कोटिशः आभार इस अद्भुद कविता का पाठ /श्रवण करवाने के लिए...
मेरे एक देवर हैं जो चंदौली के ही हैं और उनकी भाषा सुन जो मन आनंदित होता है,बस क्या कहूँ....हम सदैव ही इस प्रयास में रहते हैं कि वे अपनी अद्भुद शैली में बोलते बतियाते रहें और हम बस सुनते ही रहें...
अपने यहाँ की आंचलिक बोलियों में जो रस और मिठास होती है,बस ह्रदयहारी ही होती है...
'mani man chuhara, mani man munakka';
maine bachchanji ke kuch lokgeet zaroor padhe hue the par itni thet bhasha ki kavita pehli baar suni, badhiya lagi aur phir kai baar suni.......
kabhi yadi avsar ho to bundelkhandi men bhi kuch padhwaiega.
dhanyawaad
SIMHASTHA is the great bathing festival of UJJAIN. It is celebrated in a cycle of twelve years when SUN AND JUPITER ENTERS THE SIGN OF ARIES AND LEO respectively.It commemorates the falling of nectar into the Shipra river during the fight for amrita between the gods and the demons.
मनै मन छुहारा मनै मन मुनक्का
उक्ति माँ से कई बार सुनी है मगर इसकी उत्पत्ति यहाँ से हुई है ये नही पता था।
लंबी कविता देख समझ गई थी कि कुछ स्पेशल चीज है जिसे समय दे कर पढ़ना होगा इसीलिये आज आई।
कई कई बार आऊँगी अब इसे बार बार पढ़ने।
manish ji, ''amousa ka mela'' sunvakar aapne sahi me dil khush kar diya or ye aanchlik boli sunke muze hamari MALVI BOLI ki bahut saari kavitayen yaad aa gayi jo bachpan me kabhi suni ya padhi thi, unme bhi kahi bete ko ulahna deti maa hai to kahi shahar ke bazar me chakit hota graamin hai, ye boli indore or ujjain ke aas-paas boli jati hai.
aisi hi or bhi kavitaon ka besabri se intzar rahega.
bhai Manish jee,"Amosh ka mela" kavit ko parh kar laga mai khud malai mai ghum kar sakchat lutf mela gumnai ka utha raha hu. wah kaya kvita likha hai Kailash jee nai . dhanwad- AMITABH.
मनीष जी,
भाई वाह! आपने आज दिल खुश कर दिया. कहाँ से आप ढूंढ लाते हो यह मोती. मैं तो कब से इन्टरनेट पे यह कविता ढूंढ रहा था पर सफलता नहीं मिली. जैसा की आपने लिखा भी है की मैंने आपसे २००८ में इस कविता के बारे में बताया था. और २ साल बाद मेरे लिए तो कविता के बोल ही पर्याप्त थे पर आपने तो कैलाश जी की आवाज का ऑडियो भी उपलब्ध करा दिया यह तो किसे लोट्टेरी से कम नहीं. अब तो जब मन होगा आपके ब्लॉग पे आके कविता सुन लिया करूंगा. आज के ब्यस्त जिंदगी से निकालकर छात्र जीवन की जो यादें आपने मुझे लौटा दी हैं उसके लिए धन्यवाद देने के लिए मेरे पास शव्द नहीं हैं. आप जैसा कवी हृदय इसे समझा सकता है. इसे तरह लिखते रहें और हम लोगों को कुछ ख़ुशी प्रदान करते रहें.
धन्यवाद सहित.
राधा चमोली जी को भी बहुत बहुत धन्यवाद, ऑडियो उपलब्ध करने के लिए. अगर आपके पास ऐसे ही और ऑडियो हों तो मनीष जी के माध्यम से हम जैसे पाठकों को कृपया उपलव्ध कराएँ.
मंजुल जी अगर आप ने मुझे इस बेहतरीन कविता के बारे में बताया नहीं होता तो मैं खुद इसका आनंद लेने से वंचित रह जाता। इसलिए जब मुझे राधा के द्वारा इस कविता का जिक्र हुआ तो मुझे आपकी बात याद आ गई।
आप सब लोगों ने इस कविता को दिल से सराहा तो खुशी महसूस हुई और इस बात को बल मिला कि अच्छा लेखन सार्वकालिक है और साहित्य की समृद्धि में आंचलिकता भाषाओं और उनमें लिखने वाले कवि और लेखकों का भी खासा योगदान है। कैलाश गौतम के लेखन को हमेशा ही याद किया जाएगा ऍसी आशा है।
बहुत अच्छा लगा भाई इस ब्लॉग पर आना |
आपका ब्लॉग खुल गया तो समझो उस दिन कहीं दूसरे ब्लॉग पर जाना संभव नहीं।
KAilash GAutam Ji Ki Ye Kavita Hai ..... Man Prafullit Kar Deti Hai.......
Agar Kisi Ke Paas Unki Ek Kavita (Dhurandhar) Ho To Post Karen Please...
Behishal hai ekdum gaon ki yaad dila di in panktion ne
Amit Kumar Kannaujiya gkp-mai S.S.C ki taiyaari k liye ek coaching center me gya. waha hindi k sir ne kailash gautam ki is panktiyo ko sunaya tha.mujhe bahut hi achha laga. maine net k maadhayam se os kavita ko pura padha.waastav me gautam ji kavita ko padhne k baad mujhe bahut hi khusi hui.man prafullit ho gya
आपकी लिखी रचना "पांच लिंकों का आनन्द में" शनिवार 13 जनवरी 2018 को लिंक की जाएगी ....
http://halchalwith5links.blogspot.in पर आप भी आइएगा ....धन्यवाद!
बहुत सुन्दर कविता है
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