वैसे तो कमोबेश पूरे भारत की यही स्थिति होगी पर प्राकृतिक संपदा से परिपूरित इस प्रदेश का ये हाल चौंकाने वाला जरूर है। इसका सीधा-सीधा अर्थ यही है कि कहीं ना कहीं हम सभी अपने आस पास की प्रकृति को नष्ट होते देख के भी संवेदनहीन हुए जा रहे हैं।
आर्थिक विकास की इस दौड़ में कंक्रीट के जंगलों के बीच वो पुरानी आबो हवा कहीं खो सी गई है। क्या हम भूल गए उन पेड़ों को, जिनकी छाँव ने हर गर्मी में तपते सूरज की इन झुलसाती किरणों का रास्ता रोका। जिनकी विशालकाय मोटी शाखें बचपन में हमारे झूलों का अवलंब बनीं। जिनके तनों पर चढ़ उतर कर हमने ना जाने कितनी मस्तियाँ की।
घर के आँगन या अहाते में पलते बढ़ते ये वृक्ष भी हमारे साथ ही बढ़ते गए और साथ ही उनके सीने में समाती गईं वे आनंददायक स्मृतियाँ। बचपन बीता, ठिकाने बदलते रहे और वो पेड़.... वो तो अब आस पास रहे ही नहीं। सो उनसे जुड़ी यादें तो क्षीण होनी ही थीं। पर जब जब हम अपने पुराने आशियाने में वापस लौटे, उन पेड़ पौधों को देख वो यादें इस तीव्रता से वापस आ गयीं जेसे कभी गई ही ना हों। आखिर क्यूँ हुआ ऐसा !
दरअसल हमें एहसास हो ना हो अनजाने में ही हम अपनी आस-पास की प्रकृति से एक रिश्ता बना लेते हैं। एक ऐसा मज़बूत रिश्ता जिसकी गिरहें कटने से हमें वैसी ही पीड़ा होती है जैसे किसी इंसानी रिश्ते के टूटने पर होती है।
गुलज़ार साहब की लिखी एक कविता याद आ रही है जो ऐसे ही एक रिश्ते की कहानी कहती है। गुलज़ार ने जिस खूबी से अपने जिंदगी के सबसे हसीन लमहों को गली के किनारे खड़े उस पेड़ से जोड़ा है, वो आप इस कविता को पढ़ कर ही महसूस कर सकते हैं। इस कविता को बोलते हुए पढ़ना एक पूरे अनुभव से गुजरने जैसा है। तो आइए मेरे साथ पढ़िए इस कविता को...
मोड़ पे देखा है वह बूढ़ा-सा इक पेड़ कभी?
मेरा वाक़िफ़ है, बहुत सालों से मैं उसे जानता हूँ
जब मैं छोटा था तो इक आम उड़ाने के लिए
परली दीवार से कंधे पर चढ़ा था उसके
जाने दुखती हुई किस शाख़ से जा पाँव लगा
धाड़ से फेंक दिया था मुझे नीचे उसने
मैंने खुन्नस में बहुत फेंके थे पत्थर उस पर
मेरी शादी पे मुझे याद है शाख़ें देकर
मेरी वेदी का हवन गर्म किया था उसने
और जब हामिला थी 'बीबा' तो दोपहर में हर दिन
मेरी बीवी की तरफ कैरियां फेंकी थीं इसी ने
वक्त के साथ सभी फूल, सभी पत्ते गए
तब भी जल जाता था जब मुन्ने से कहती 'बीबा'
'हाँ उसी पेड़ से आया है तू, पेड़ का फल है'
अब भी जल जाता हूँ, जब मोड़ गुजरते में कभी
खाँसकर कहता है, 'क्यों सर के सभी बाल गए?'
सुबह से काट रहे हैं वो कमेटी वाले
मोड़ तक जाने की हिम्मत नहीं होती मुझको...
क्या आपको नहीं लगता कि जिस प्रकृति के बीच हम पले बढ़े हैं, उसके साथ बने रिश्तों ने हमारे जीवन में जैसे अनमोल पल दिए हैं वैसा ही कुछ अपने बच्चों को भी हम उपलब्ध कराएँ?
18 टिप्पणियाँ:
बहुत संवेदनशील है ये नज़म..... ऐसा ही एक जामुन का पेड़ हमारी भी यादो में जिसके कटने पर बहत रोई थी।
हमने अपने ऑफिस के एक पेंटिंग कॉम्पटीशन में पेंटिंग बना कर उस पर यही लिखा था ... 'विल योर चिल्ड्रेन सी दिस?' पेंटिंग तो बेकार थी लेकिन लाइन हित हो गयी. पेंटिंग पर्यावरण पर बनानी थी.
पेड़ हमारी संवेदना का बड़ा हिस्सा घेरते हैं ! मेरी भी छत पर झुक आये पेड़ की डालियाँ आज भी मिस करता हूँ मैं ! उस पेड़ के कटने के साथ कितनी यादें विरम गयीं !
बेहद खूबसूरत नज्म है गुलजार साहब की ! यहाँ प्रस्तुति का आभार ।
अब वक्त आ गया है कि हम चैत जाए।
कंक्रीट के जगलों में पेड़ ही पेड़ लगाए
और गुलजार जी की तो बात ही कुछ और है। मुझे लगता है इन्होंने अपनी लेखनी से हर विषय को छूआ है।
kuchh kahanaa chaahate the ham bhi is baat par....magar guljaar saahab ke meethe bolon ke aage hamaari bolti band......!!
गुलज़ार को समझना एक खास फील से गुजरना है ....ओर उसके बाद आप पायेगे कैसे ये इन्सान छोटे छोटे कतरों को पकड़ एक रंग कागज पर बिखेर देता है ......लोग अक्सर या तो उन्हें सरसरी तौर पे पढ़ते है या उन्हें फ़िल्मी लेखक मान कर उतनी तवज्जो नहीं देते जिसके वे हक़दार है .अलबत्ता कई सहितियिक लेखको की कविताएं मुझे बेहद साधारण ओर फीकी लगी है ....
aor haan tumhare blog ko kholne ke liye badi mehnat karni padti hai ab bhi.....kuch karo yaar.....
हम ने इस प्राकृति की कदर नही की, अपने ही सुख ओर ऎश के लिये हम सब ने इस का दोहन किया अपनी अपनी ऒकात के हिसाब से अब फ़ल भी हम सब को भुगतना है....
एक जरूरी पोस्ट, अच्छी आवाज के साथ।
गुलज़ार साहब को सुनता हूँ तो थोडा रूमानी हो जाता हूँ वृक्ष तो वैसे भी मेरे जीवन का अभिन्न अंग रहे हैं सहरों ने हमारे जंगंलो को निगल लिया या फिर पूंजीवाद का साइड effect ने प्रकृति को तहस नहस सा कर दिया है और जंगल नहीं तो चिड़िया की कुक नहीं और कुक नहीं तो श्रृंगार रस की कविताएँ नहीं एक आची पोस्ट बेहतरीन कविता और आवाज़ केसाथ
kya baat, kya baat, kya baat.....gulzaar to hain hi lajawaab
आज तक का सबसे अच्छा पोस्ट. बहुत अच्छा धुंद के निकला. साधुवाद आपको
- रवि
humarey ghar aam k jo pad hai uskey saath bhi esey hee behot see yaaden judi hui hai or usmey sey bijli key taar gujrtey hai jissey aas pass key logo ko peryshani hoti hai aandhi key waqat, dekhiy kab tak reh pata hai wo humrey saath.
गुलज़ार की ये नज़्म तो बस बेमिसाल है...हर एक को अपना दर्द महसूस हुआ इसमें...सबका कभी ना कभी किसी पेड़ से कोई ख़ास रिश्ता जरूर रहा है...
bahut marmik kavita, wastav me humara apni prakriti aur watawarn se gehra nata hai jise hum nazarandaaz kiye jaa rahe hain
आपकी संवेदनाओं और अभिव्यक्ति के तो कायल थे ही.
मगर आपका नेरेशन भी प्रभावित कर गया.
अंतिम लाईन (दो बार) तो अज़ब से दिल के अंदर रूह तक उतर गयी.
आप सब ने गुलज़ार की इस कृति को दिल से महसूस किया और इससे जुड़ी अपनी यादें बाँटी। पढ़कर बहुत अच्छा लगा।
गुलज़ार वाकई कमाल के शायर हैं और ये भी सही है कि अपने इस फ़न के लिए जिस तवोज्जह के हक़दार हैं वो उन्हें आम कविता प्रेमियों से तो मिली है पर साहित्यिक हलकों से नहीं।
दिलीप जी: आप जैसे कलाकार की तरफ़ से आए उद्गार मेरे हौसले में निश्चय ही वृद्धि करते हैं। बहुत बहुत शुक्रिया जनाब।
अनुराग पिछली बार जब आपने इस समस्या की ओर ध्यान दिलाया था तो वैसी ही कुछ समस्या मेरी तरफ़ भी आ रही थी। फिर मैंने तीन विजेट हटाए भी और फिलहाल यहाँ दिक्कत नहीं आ रही। अब ऐसा क्यूँ हो रहा है ये समझ नहीं पा रहा।
लगभग महीने भर बाद आज ब्लॉग पढने का अवसर मिला है और आपकी इस पोस्ट ने मेरी टीस को और भी गहरा दिया है....
ये पैंतालीस और सैंतालीस डिग्री तापमान,अतिवृष्टि अनावृष्टि ...सब प्रकृति को नोचते खसोटते जाते रहने का परिणाम है...सिर्फ लेना लेना और लेना जानते हैं हम...कभी इसके प्रति अहसानमंद नहीं होते न ही इसके संरक्षण को उत्सुक होते हैं...
बहुत ही सुंदर पोस्ट है आपका, गुलज़ार की इस कविता को कुछ महीने पहले मैंने पढ़ा था और अंतिम पंक्ति तक पहुंचते आंखों से झर झर करते आंसू बहने लगे थे। तब से लेकर अब तक न जाने कितनी बार पढ़ा और हर बार वही हुआ।
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