शनिवार, अप्रैल 24, 2010

लखनऊ डॉयरी : रेल का उलटफेर, ब्लॉगरों की साजिश और एक छोटी सी मुलाकात...

बात फरवरी की है। लखनऊ में एक रिश्तेदार की शादी में जाना था। शादी का दिन चूंकि बहुत पहले से तय था लिहाज़ा मैंने दो महिने पूर्व ही रिजर्वेशन करवा रखा था। पर चाहे कितनी भी तैयारी आप क्यूँ ना कर लें जब तक ऊपरवाले के यहाँ से अर्जी पास ना हो, हम जैसे तुच्छ मानवों द्वारा बनाई गई योजनाएँ धरी की धरी रह जाती हैं। ज्योंही फरवरी का दूसरा हफ्ता शुरु हुआ झारखंड में नक्सलियों ने बहत्तर घंटे के बंद का ऐलान कर दिया। अक्सर ऐसे अवसरों पर सबसे पहले रद्द होने वाली ट्रेन वही होती है जिसमें मैंने आरक्षण करवाया था। तीन दिन पहले से ही राम का सुमिरन करते रहे कि भगवन इतने पहले से बनाए कार्यक्रम का यूँ ना बंटाढ़ार करो। पर भगवन का दिल ना पसीजना था, ना पसीजा।

यात्रा के एक दिन पहले तक बंद के बावज़ूद बाकी की ट्रेने दूसरे मार्ग से चलती रहीं। 8 फरवरी की शाम को मुझे प्रस्थान करना था। आठ की सुबह बिस्तर से चिपके पड़े ही थे कि एक सहकर्मी का फोन आ गया। उधर से सूचना दी गई कि भई सुबह के अखबार में मेरी ट्रेन के रद्द होने की खबर है। नींद तो ये सुनते ही काफ़ूर हो गई। भागते दौड़ते स्टेशन पहुँचे। शीघ्रता से टिकट रद्द कराया। संयोग से नक्सलियों के बंद की वज़ह से दूसरी ट्रेन में जगह मिल गई और मेरा लखनऊ जाने का कार्यक्रम बर्बाद होते होते बच गया।

राँची में हल्की-हल्की ठंड ज़ारी थी। गर्म कपड़े किस अनुपात में रखे जाएँ इसके लिए लखनऊ में कंचन से फोन पर मौसम का हाल पूछा गया। रिपोर्ट दी गई कि आसमान साफ है। दिन में अपने आप को जवान समझने वाले लोग हॉफ स्वेटर भी नहीं पहन रहे हैं। मैंने मन ही मन विचार किया शादी का मामला है स्वेटर ना भी ले जाएँ पर कोट ले चलना ठीक रहेगा। वैसे भी ब्लॉगरों का क्या भरोसा एक दूसरे को परेशान करने के लिए आए दिन नए नए जुगाड़ सोचते हैं।:) और देखिए मेरी शंका निर्मूल साबित नहीं हुई। सुबह गाड़ी से जैसे ही कानपुर स्टेशन पहुँचा साफ आसमान और सुनहरी धूप के बजाए बाहर झमाझम बारिश हो रही थी। बारिश से बचते बचाते स्टेशन के शेड में पहुँच कर फोन घुमाया तो उधर से स्पष्टीकरण आया कि आपसे फोन पर बात होने के बाद ही बादलों ने अपना रंग बदल लिया !

खैर मैं एक के घंटे के अंदर लखनऊ की ओर निकल लिया। गंगा पुल पर गाड़ियों का जाम लगा था। लिहाज़ा डाइवर ने गाड़ी रोक दी। पर रुकी कार के अंदर भी हिलने डुलने का अहसास हुआ। घर पर रहते हुए तो भूकंप के झटके तो पहले भी महसूस कर चुका हूँ पर यूँ सफ़र में और वो भी पुल पर... ड्राइवर से पूछा कि भई माज़रा क्या है? बताया गया कि ये पुल तो गाड़ियों के वज़न से यूँ ही हिलता डुलता है। खैर ज्यादा देर तक हिलना डुलना नहीं पड़ा और करीब बारह बजे तक मैं लखनऊ पहुँच गया।

कंचन ने बताया था कि अगले दिन यानि दस फरवरी को गौतम राजरिशी साहब भी लखनऊ तशरीफ़ ला रहे हैं। पर उनके साथ मिलने का कार्यक्रम वहाँ पहुँच कर बातचीत के बाद तय होना था। पर लखनऊ की धरती पर पहुँचते ही मेरे मोबाइल की हृदय गति मंद पड़ गई। सिगनल कुछ सेकेंड के लिए आकर घंटों गायब हो जाता। चार बजे दूसरे मोबाइल से कंचन से संपर्क हो पाया। पता चला कि गौतम अगले दिन ग्यारह बजे स्टेशन पर पधार रहे हैं। मेरे पास उनसे मिलने के लिए तीन घंटे का ही समय पास था क्यूँकि अगले दिन तीन बजे लखनऊ से पटना निकलना था।

रात को शादी और अगली सुबह विदाई निपटाकर कर अगली सुबह मैं स्टेशन जाने को तैयार हो गया। कंचन ने कहा कि वो स्टेशन साढ़े दस तक पहुँच जाएँगी। मुझे भी वहाँ ग्यारह बजे तक आने का आदेश मिला। दस पचास पर मैं जब स्टेशन पहुँचा तो देखा ना हमारी 'होस्ट' का पता है और ना ही उस गाड़ी का जो तथाकथित रूप से मात्र दस मिनट में आने वाली थी। पता चला कंचन जी अपने कुनबे के साथ स्टेशन से अभी भी तीन चार किमी की दूरी पर हैं। पूछताछ के कांउटर पर जैसे ही मैंने पूछा कि दिल्ली से आने वाली शताब्दी की प्लेटफार्म एनाउंसमेंट क्यूँ नहीं हो रही, काउंटर पर बैठे व्यक्ति ने आँखें तरेरते हुए कहा कि भई आप भी अज़ीब बात करते हैं। गाड़ी के आने का समय बारह के बाद है तो अभी से क्या उद्घोषणा करें। करीब पन्द्रह बीस मिनट बाद कंचन जी के दर्शन हुए तो हमने सवाल दागा कि भई ये किस साजिश के तहत मुझे गुमराह किया गया? जवाब मिला कि ये टाइमिंग तो वीर जी ने ही बताई थी। मैंने मन ही मन सोचा ओह तो इस साजिश में 'वीर जी' भी शामिल हैं :)।


अगले डेढ़ घंटे का समय कंचन, अवधेश व विज़ू से बात चीत करते बीता। इन लोगों से मेरी ये दूसरी मुलाकात थी। बीच बीच में गौतम को फोन कर उनकी गाड़ी की स्थिति की जानकारी भी ली जा रही थी। गौतम के बारे में ब्लॉग के आलावा कंचन से ही सुना था। जानने की उत्सुकता थी कि सेना में काम करने का जज़्बा और साथ ही ग़ज़ल कहने का शौक उन्हें एक साथ कैसे हो गया? यह रहस्य उस दिन तो नहीं पर एक हफ्ते बाद खुला। फोन पर पहली बातचीत में यही कहा कि दर्शनार्थियों की भीड़ स्टेशन पर आपका बेसब्री से इंतज़ार कर रही है जल्द ही ट्रेन को अपने कमांड में लेकर लखनऊ पहुँचे। पर भारतीय रेल पर किसका बस चला है? स्टेशन पर रेल के लगते लगते बारह चालीस हो गए। गौतम को वहाँ से लखनऊ कैंट में अपने मित्र के यहाँ जाना था। अब बस हमारे पास इतना ही समय था कि गाड़ी में साथ साथ कैंट तक जाएँ और फिर वहाँ से विदा ले लें।

किया भी यही। थोड़ी बहुत बातें हुईं। घर जाकर जल्दी जल्दी चाय पी गई, आनन-फानन में फोटो खींचे गए और मैंने कंचन और गौतम से विदा ली। इसी दौरान ये पता चला कि तीन चार दिन बाद गौतम भी पटना आ रहे हैं और वहाँ मुलाकात का फिर से कार्यक्रम बनाया जा सकता है। संयोग से वो कार्यक्रम बना भी और हमने करीब तीन चार घंटे साथ बिताए। क्या किया हमने उन तीन चार घंटों में ये जानिएगा अगली पोस्ट में...




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16 टिप्पणियाँ:

अन्तर सोहिल on अप्रैल 24, 2010 ने कहा…

तीन-चार घंटे क्या किया, क्या बातें हुई
अगली पोस्ट भेजिये जी

प्रणाम

राज भाटिय़ा on अप्रैल 24, 2010 ने कहा…

मजे दार रहा आप का यह रेल का विवरण, बाकी गोतम जी से कया बात हुयी ओर केसी रही यह मुलाकात जरुर लिखे,

36solutions on अप्रैल 24, 2010 ने कहा…

यह सिलसिला चलता रहे.

कंचन जी और गौतम जी से हम सबको मिलाने के लिए आभार.

जितेन्द़ भगत on अप्रैल 24, 2010 ने कहा…

ट्रेन का आना-जाना इस क्षेत्र में नक्‍सलवाद से बुरी तरह प्रभावि‍त है।
अच्‍छी रही मुलाकात-वार्ता।

Arvind Mishra on अप्रैल 24, 2010 ने कहा…

पढ़ लिया -ब्लॉग इ मेल से सब्सक्राईब है !

Archana Chaoji on अप्रैल 24, 2010 ने कहा…

चलो इस बहाने हम भी मिल ही लिए समझेंगे....... मौका मिला तो मै भी मिलवाउँगी कभी ---मेजर अनुराधा से ...

Himanshu Pandey on अप्रैल 24, 2010 ने कहा…

हम सब भी मिल लिए !
अगली पोस्ट की प्रतीक्षा !

वीनस केसरी on अप्रैल 25, 2010 ने कहा…

ये बढ़िया काम करने में और बढ़िया लोगों से मिलने में हम हमेशा पिछड क्यों जाते है :(

Udan Tashtari on अप्रैल 25, 2010 ने कहा…

बड़ा अच्छा लगा कंचन और गौतम से आपके मिलन के बारे में जानकर..अगली पोस्ट का इन्तजार है.

अपूर्व on अप्रैल 25, 2010 ने कहा…

वाह हमें तो होली-मिलन टाइप का खुमार आ गया पढ़ कर ही...रोचक पोस्ट अगली वाली का इंतजार करने को कहती हुई सी...

Abhishek Ojha on अप्रैल 25, 2010 ने कहा…

अगली पोस्ट की तरफ टाक रहे हैं... गंगा पूल का जाम तो एवरग्रीन है. सालोभर लगा ही रहता है :)

सुशील छौक्कर on अप्रैल 25, 2010 ने कहा…

अब तो अगली पोस्ट का इंतजार है जी।

anjule shyam on अप्रैल 25, 2010 ने कहा…

मोसम ने भी तेवर बदल लिए....सर वे तो आपको बस वेल्कम कह रहे थे..नाहक उनपे गुस्सा कर रहे हैं...

Amitabh Chandra on अप्रैल 26, 2010 ने कहा…

Bhai Manish je,Samajh mai nahi ayaa.Luckhnau Diary-blog mai apnai naxalio kai andolan ko kosha hai ya Kanpur kai mausam kai barai mai ya Mobile kai kharab network kai barai mai likha hai.Hami to lagta hai Apnai Kanchan-Gautm Rajrishi-Awdesh-Biju kai sath bitai chanou ko yad kiya hai aur hamai vi apnai sath Yadou kai julah mai julanai ki kosish mai hai.Jara jaldi bataiya Goutm ji kai barai mai.--Amitabh.

Manish Kumar on अप्रैल 26, 2010 ने कहा…

अमिताभ जी ठीक ही तो समझा आपने अपनी लखनऊ यात्रा के कुछ अज़ीज़ को ब्लॉग रूपी डॉयरी के पन्ने में आप सब के साथ साझा करने की कोशिश थी ये!

रंजना on मई 11, 2010 ने कहा…

वाह....रोचक ,आनंद दायक विवरण...

 

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