बुधवार, अप्रैल 28, 2010

अपने आप रातों में चिलमनें सरकती हैं,चौंकते हैं दरवाज़े, सीढियाँ धड़कती हैं...

याद है ना गर्मी के दिनों की वो रातें जो आपने छत पर अकेले किसी का इंतज़ार करते हुई बिताई थीं। पर ये इंतज़ार किसका ? सबसे अज़ीब बात तो यही होती थी कि हमें ख़ुद पता नहीं होता था कि हम आख़िर हैं किसकी प्रतीक्षा में ? पर उस इंतज़ार की कैफ़ियत दिल में तारी रहती थी। बस बुनते रहते थे मन में हम उस अनजाने अज़नबी की शख्सियत। चाँद तारों में खोजा करते थे उस चेहरे का अक्स। चारों ओर फैली शून्यता में भी सुनाई देती थीं उनकी सदाएँ।

पर ये तो उन बीते लमहों की बाते हैं। ये सब मैं आज आपसे क्यूँ कह रहा हूँ? क्या करूँ कैफ़ भोपाली का लिखा ये नग्मा उन अहसासों की याद ताजा़ जो कर रहा है। भोपाल के अज़ीम शायर कैफ़ भोपाली का ये गीत फिल्म शंकर हुसैन का है जो 1977 में आई थी। संगीत रचना थी ख़य्याम की।


कैफ़ साहब ने इस गीत के लिए जो बोल लिखे वो अपने आप में कमाल थे। अब इन पंक्तियों को देखिए कितना मखमली अहसास जगाती हैं दिल में

एक अजनबी आहट आ रही है कम-कम-सी
जैसे दिल के परदों पर गिर रही हो शबनम-सी


या फिर इसे सुन कर कौन संवेदनशील हृदय रससिक्त ना हो उठेगा

जाने कौन बालों में उँगलियाँ पिरोता है
खेलता है पानी से, तन बदन भिगोता है


संगीतकार ख़य्याम ने गीतकार के लफ्ज़ों की इसी गहराई को ध्यान में रखकर नाममात्र का संगीत दिया। नतीजा ये कि गीत सुनते वक़्त आपका ध्यान बोलों से हट ही नहीं सकता। और अगर आपको भटकने की बीमारी भी हो तो कोकिलकंठी लता की भावपूर्ण स्वरलहरी आपको भटकने नहीं देगी। दरअसल सितार की आरंभिक धुन के बाद लता जी की आवाज़ कानों तक छन छन कर कैफ़ भोपाली के शब्दों को इस तरह पहुँचाती है कि मन गीत की भावनाओं के साथ हिचकोले लेने लगता है। ये गीत इस बात का सबूत है कि अगर गीत के बोलों और गायिकी में दम हों तो संगीत का किरदार गौण हो जाता है।

तो आइए सुनते हैं लता जी के गाए इस गीत को

अपने आप रातों में चिलमनें सरकती हैं
चौंकते हैं दरवाज़े, सीढियाँ धड़कती हैं
अपने आप.. अपने आप..

एक अजनबी आहट आ रही है कम-कम-सी
जैसे दिल के परदों पर गिर रही हो शबनम-सी
बिन किसी की याद आए, दिल के तार हिलते हैं
बिन किसी के खनकाए चूडियाँ खनकती हैं
अपने आप.. अपने आप..

कोई पहले दिन जैसे घर किसी-के जाता हो
जैसे खुद मुसाफ़िर को रास्‍ता बुलाता हो
पाँव जाने किस जानिब, बे-उठाए उठते हैं
और छम-छमा-छम‍छम पायलें झनकती हैं
अपने आप.. अपने आप रातों में

जाने कौन बालों में उँगलियाँ पिरोता है
खेलता है पानी से, तन बदन भिगोता है
जाने किसके हाथों से गागरें छलकती हैं
जाने किसकी बाहों से बिजलियाँ लपकती हैं
अपने आप . ..

अपने आप रातों में चिलमनें सरकती हैं
चौंकते हैं दरवाज़े, सीढियाँ धड़कती हैं
अपने आप.. अपने आप..


वैसे तो पाकीज़ा और रजिया सुल्तान के अपने लोकप्रिय गीतों के आलावा कैफ़ भोपाली साहब ने कई ग़ज़लें भी कहीं। उनमें से कुछ को जगजीत सिंह ने अपनी आवाज़ में गाकर आम जन तक पहुँचाया । पर उन ग़ज़लों की बात कभी और कर लेंगे। अभी तो इस गीत को सुनने से बने मूड में कुछ और सुनवाकर आपका मज़ा किरकिरा नहीं करना चाहता।

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22 टिप्पणियाँ:

pallavi trivedi on अप्रैल 28, 2010 ने कहा…

waah...kitna sundar gana sunwaya aapne! maine pahli baar suna ye gana. dil se shukriya itna pyara geet sunwane ke liye.

पारुल "पुखराज" on अप्रैल 28, 2010 ने कहा…

ख़य्याम साहब की धुनों का जवाब नही ...ये गीत सबसे पहले radiovani पे सुना था ...फिर कई दिनों तक सुनती रही

डॉ .अनुराग on अप्रैल 28, 2010 ने कहा…

फ़ौरन मेल करो यार..........आपने तो शाम बना दी....Khyaam is real gem of the music

राज भाटिय़ा on अप्रैल 28, 2010 ने कहा…

धन्यवाद इस सुंदर गीत को सुनवाने के लिये

जितेन्द़ भगत on अप्रैल 28, 2010 ने कहा…

बहुत सुंदर गीत और उतनी ही सुंदर प्रस्‍तुति‍।

Bhole on अप्रैल 28, 2010 ने कहा…

Aap yoon fasalon se........ahh...such a hauting, brilliant song I heard a lot a kid ...thanks for reminding this and the movie....

anjule shyam on अप्रैल 29, 2010 ने कहा…

जाने कौन बालों में उँगलियाँ पिरोता है...........
jane kiske intejar mein aankhe lal hui.........

Amitabh Chandra on अप्रैल 29, 2010 ने कहा…

Bhai Manish je,Apkai Blog se rash tapakta hai.Janai kaha-kaha se ap ras varai Ganou ko dundh latai hai.Thanks--Amitabh

रवि शर्मा एक जागरूक पत्रकार on अप्रैल 29, 2010 ने कहा…

क्‍या आप जानते हैं कि पंकज सुबीर जी की एक पूरी कहानी शायद जोशी इसी गाने पर चलती है । उस कहानी को कथादेश की अखिल भारतीय कहानी प्रतियोगिता में पुरस्‍कार भी मिला है तथा वो उसके मार्च अंक में प्रकाशित हुई है । संभवत: ये अपने आप में एक ही कहानी होगी जो कि पूरी की पूरी किसी फिलमी गाने पर आधारित होकर चलती है ।

Manisha Dubey ने कहा…

manishji, aaj aapne 22, 23 baras purani yaaden taza kar di jab hum wakai me garmiyon ki raaton me tranjister par gaane suna karte the, apni hum umra chacheri, phupheri or mameri bahno ke saath ,chand or sitaron ko taakte hue ye roj ka kram tha, mene ye gazal tabhi suni thi or aaj aapke karan phir sunne ka mouka mila saath hi bahut saari yaade phir se aa gai. THANKS***
ek usi dour ki gazal hai'' mere mahbub shayad aaj kuch naraz hain muzse'' na to muze gayika ka naam pata hai na film ka, par uss zamane me ye gazal madhushala ( ganne ke ras ki dukan ko indore me yahi kahte hain) me khub bajti thi, ager iski koi jankari ho to plz bataiyega.

Manish Kumar on अप्रैल 29, 2010 ने कहा…

@ Manisha ...Aapne jis geet ka jikra kiya wo film Kitni Paas Kitne Door ka hai. Use gaya tha Chandrani Mukherjee ne.

@Parul Haan maine bhi ise yunus ke blog par kareeb teen saal pehle suna tha.

Priyank Jain on अप्रैल 30, 2010 ने कहा…

what a jewel you brought !! sometimes I think that it is working as a conduit between times as I heard this song first time and continued to 10.....really beautiful
thanks

Sneha Shrivastava on अप्रैल 30, 2010 ने कहा…

pehli baar ees geet ko suna. behot hee touching or mun ko chuney wali awaj hai.:)

झारखंडी आदमी on अप्रैल 30, 2010 ने कहा…

kya bhai dil ke taron ko jhankrit kar diya abhi saam ko baarish hui hai mere sahar main mousam bhi roomani hai aur uper se ye gaana bhai wah kripya isko mere accout par mail kar dete to main kritarth ho jaata

sanjay patel on मई 02, 2010 ने कहा…

मनीष भाई,ख़ैयाम साहब की ये बंदिश लताजी के साथ उनकी सुरीली बंदिशों में से एक है. इस भागती दौड़ती ज़िन्दगी ऐसे अफ़साने सुनने को मिल जाएं तो रूहानी आसूदगी मिलती है. अब दु:ख यह होता है कि आपकी और मेरे बाद की पीढ़ी में ऐसी चीज़ों के मुरीद घटते जा रहे हैं.कौन याद करेगा सज्जाद, अनिल विश्वास,ख़ैयाम,ग़ुलाम मोहम्मद या सी.रामचन्द्र को आने वाले समय में यह सोच कल कलेजा बैठता जाता है. मित्र ये न सोचें कि मैं निराशावादी हूँ लेकिन यह एक ज़मीनी सचाई है जिसे नकारना बेमानी होगा.....एक उम्दा गीत सुनवाने के लिये शुक्राना आपका...

Kapil Sharma on मई 03, 2010 ने कहा…

Manishji Dhanywaad Bahut bahut dhanywaad itne khubsurat geet ke liye

Himanshu Pandey on मई 04, 2010 ने कहा…

हम बस सुन रहे हैं ! गज़ब का ठिकाना है यह ब्लॉग !
आभार इस गीत के लिए !

Unknown on मई 06, 2010 ने कहा…

वाह मनीष- शंकर हुसैन के तीनों गाने अव्वल पर अव्वल हैं - ये नहीं मालूम था लिखे किसके हैं - लगा था कैफी आज़मी साहब के लिखे हैं

रंजना on मई 11, 2010 ने कहा…

आह.....लाजवाब...नायाब....
आपका बहुत बहुत बहुत बहुत आभार !!!

पता नहीं कैसे आजतक न सुन पायी थी इस अद्वितीय कर्णप्रिय गीत को...

Manish Kumar on मई 12, 2010 ने कहा…

आप सभी को ये गीत पसंद आया जानकर खुशी हुई। संजय भाई आपकी चिंता ज़ायज है पर मैं अभी भी ये मानता हूँ कि जो संगीत के सच्चे शौकीन होंगे वो आगे की पीढ़ियों तक इसका वैसा ही आनंद उठाएँगे और इसकी चर्चा करेंगे।

Namrata Kumari on दिसंबर 28, 2015 ने कहा…

गीत सुनते ही सोमवार की ऑफिस की थकान भी जाती रही... बड़े ही सरल और सुंदर शब्दों से पिरोया हुआ यह गीत मन को शांति देने वाला है।

Manish Kumar on दिसंबर 29, 2015 ने कहा…

हाँ बेहद प्यारा और रुह को सुकून देने वाला गीत है ये नम्रता !

 

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