वो पुणे चले गए पर प्रेम का जज़्बा भी बना रहा। बस मुलाकात की जगह बदल गई.. शहर बदल गया...पर एक कठिन पर रोमांचकारी जीने की ख्वाहिश रखने वाले गौतम को अपनी निजी जिंदगी की प्रेरणा को हक़ीकत में तब्दील करने में भी उतने ही कठिन मानसिक संघर्ष से होकर गुजरना पड़ा। घर वाले उनके प्रेम पर विवाह की मुहर लगाने के लिए तैयार नहीं थे वही गौतम भी ठान चुके थे कि दिल एक बार दिया तो वो उसी का हो गया। इसीलिए मोहब्बत के हसीन पलों की याद दिलाने के साथ जब गौतम विरह की वेला का खाका खींचते हैं तो उनकी कलम ग़ज़ब का प्रभाव छोड़ती है..
एक सवेरा इक तन्हा तकिये पर आँखें मलता है
मीलों दूर कहीं इक छत पर सूनी शाम टहलती है
यादें तेरी, तेरी बातें साथ हैं मेरे हर पल यूँ
इस दूरी से लेकिन अब तो इक-इक साँस बिखरती है
चांद को मुंडेर से "राधा" लगाये टकटकी
इश्क के बीमार को दिखता है कोई दाग क्या
एक तो काम की कठिन परिस्थितियाँ और दूसरी ओर मन का तनाव, गौतम के स्वास्थ पर बुरा प्रभाव पड़ने लगा। इन पंक्तियों पर गौर करें क्या ये उन दिनों के गौतम का मन नहीं टटोलतीं
कटी रात सारी तेरी करवटों में
कि ये सिलवटों की निशानी कहे है
"रिवाजों से हट कर नहीं चल सकोगे"
कि जड़ ये मेरी ख़ानदानी कहे है
आखिर बेटे की हालत और हठ को देखकर उनके परिवारवालों को उनकी इच्छा के आगे झुकना पड़ा। इस रज़ामंदी में गौतम के कुछ मित्रों ने भी महत्त्वपूर्ण किरदार निभाया। गौतम कहते हैं को वो दौर उनके लिए बेहद कठिन था और खुशी की बात ये है कि इतना सब होने के बाद आज के दिन 'घर की ये बहू' सबकी चहेती बन गई है।
(चित्र साभार)
मेरा मानना है कि ज़िदगी के इस कठिन अनुभव ने गौतम की शायरी पर महत्त्वपूर्ण असर डाला है। पर गौतम की शायरी में इश्क़, विरह के आलावा भी कुछ और रंग बराबर उभरे हैं और इनमें से एक अहम हिस्सा है, सिपाही के रूप में जिंदगी से बटोरा उनका अनुभव। उनके लिखे इन अशआरों पर गौर कीजिए आप मेरी बात खुद ब खुद समझ जाएँगे
लिखती हैं क्या किस्से कलाई की खनकती चूडि़याँ
सीमाओं पे जाती हैं जो उन चिट्ठियों से पूछ लो
होती है गहरी नींद क्या, क्या रस है अब के आम में
छुट्टी में घर आई हरी इन वर्दियों से पूछ लो
जब से सीमा पर हरी वर्दी पहन कर वो गये
घर में "सूबेदारनी" के क्या दिवाली फाग क्या
कहाँ वो लुत्फ़ शहरों में भला डामर की सड़कों पर
मज़ा देती है जो घाटी कोई पगडंडियों वाली
बहुत दिन हो चुके रंगीनियों में शह्र की ‘गौतम’
चलो चल कर चखें फिर धूल वो रणभूमियों वाली
चीड़ के जंगल खड़े थे देखते लाचार से
गोलियाँ चलती रहीं इस पार से उस पार से
मुट्ठियाँ भीचे हुये कितने दशक बीतेंगे और
क्या सुलझता है कोई मुद्दा कभी हथियार से
गौतम को ब्लागिंग शुरु किए हुए डेढ़ साल से ऊपर हो गया है। सच बताऊँ तो जब पिछले साल के शुरु में पहली बार जब उनके चिट्ठे पर पहुँचा था तो उनका लिखा मुझे खास प्रभावित नहीं कर पाया था। पर पिछले एक साल में उनकी ग़ज़लों में और निखार आया है। गौतम का कहना है कि इसमें गुरु सुबीर जी का महती योगदान है।
मुझे लगता है कि छोटी बहरों की ग़ज़लों में गौतम और पैनापन ला सकते हैं। गौतम ने हाल ही में उपन्यास के किरदारों को अपनी ग़ज़ल के अशआरों में बड़ी खूबसूरती से पिरोया था। मुझे उनकी ये पेशकश बेहद नायाब लगी थी। उनकी इस ग़ज़ल के इन अशआरों पर गौर कीजिए कमाल का असर डालते हैं
जल चुकी है फ़स्ल सारी पूछती अब आग क्या
राख पर पसरा है "होरी", सोचता निज भाग क्या
ड्योढ़ी पर बैठी निहारे शह्र से आती सड़क
"बन्तो" की आँखों में सब है, जोग क्या बैराग क्या
क्लास में हर साल जो आता था अव्वल "मोहना"
पूछता रिक्शा लिये, ‘चलना है मोतीबाग क्या’
गौतम से बातों का ये क्रम इतनी तन्मयता से चल रहा था कि कब दिन के बारह बज गए हमें पता ही नहीं चला। हमें लगा कि अब कहीं चल कर कम से कम चाय कॉफी पीनी चाहिए।
थोड़ी दूर पर एक दुकान मिली। हमे अपने लिए जगह बनाई और बातों का क्रम फिर चल पड़ा। गौतम से मैंने कश्मीर के ज़मीनी हालातों के बारे में पूछा। गौतम विस्तार से वहाँ के हालातों और सेना के किरदार के बारे में बताने लगे। बातों ही बातों में ये भी पता चला कि गौतम एक्शन पैक्ड कंप्यूटर गेम्स खेलने में उतनी ही दिलचस्पी रकते हैं जितनी हथियार चलाने में। उनके चिट्ठे को पढ़ने वालों को ये तो पता है ही कि वे कॉमिक्स पढ़ने के कितने शौकीन रहे हैं। फिर ब्लॉग जगत के कुछ किरदारों, दिल्ली में हिंद युग्म के समारोह में शिरकत, अनुराग से श्रीनगर में मुलाकात, आदि प्रसंगों से जुड़ी बातचीत ज़ारी रही।
इतनी देर में हम तीन बार कॉफी पी चुके थे और दुकान वाला हमारी बतकूचन से परेशान हो गया था। उसकी चेहरे की झल्लाहट को पढ़ते हुए हम वहाँ से भी निकल गए।
वैसे भी हमने बातें करते करते आराम से चार घंटे का समय बिता लिया था। दिन के दो बज रहे थे। गौतम को भी अपनी 'प्रेरणा' जो अब 'हक़ीकत' बन गई हैं, को 'मोना' में सिनेमा दिखाना था । वैलेंटाइन डे के दिन किए गए उनके इस वादे में बिना कोई और बाधा उत्पन्न किए हम दोनों ने एक दूसरे से विदा ली।
तो चलते-चलते उनके लिखे कुछ और अशआरों से रूबरू कराना चाहूँगा जो मुझे बेहद पसंद हैं..
खिली-सी धूप में भी बज उठी बरसात की रुन-झुन
उड़ी जब ओढ़नी वो छोटी-छोटी घंटियों वाली
दुआओं का हमारे हाल होता है सदा ऐसा
कि जैसे लापता फाइल हो कोई अर्जियों वाली
बहुत है नाज़ रुतबे पर उन्हें अपने, चलो माना
कहाँ हम भी किसी मगरूर का अहसान लेते हैं
तपिश में धूप की बरसों पिघलते हैं ये पर्वत जब
जरा फिर लुत्फ़ नदियों का ये तब मैदान लेते हैं
कुछ नए चेहरों से मुलाकात दिल्ली में भी हुई पर उसका ब्योरा फिर कभी।
15 टिप्पणियाँ:
गौतम से मुलाकात कराने के लिए आभार.
बहुत सी बाते मेजर गोतम के बारे पता चली, ओर बहुत सुंदर लगी आप की यह पोस्ट
गौतम और उनकी शायरी दोनों लाजवाब हैं...मैं उनसे मिला तो नहीं लेकिन किसी को जानने के लिए मिलना जरूरी भी नहीं होता...आप किसी भी इंसान के बारे में उसकी कृतियों से जान सकते हैं...एक आध बार की छोटी छोटी बातों से पहचान सकते हैं...गौतम की रचनाओं को पढ़ते हुए उनकी जैसी शख्शियत ज़ेहन में उभरती है वो हकीकत में भी वैसे ही होंगे ये मेरा विश्वाश है और मेरे इस विश्वास को पहले डाक्टर अनुराग ने और अब आप ने पुख्ता कर दिया है...आप तो उनसे मिल लिए, किस्मत वाले हैं लेकिन हम कब मिलेंगे ये सोच रहे हैं...आपने दो भागों की इस मुलाकात को एक हसीन दिलकश सी ग़ज़ल की तरह प्रस्तुत किया है लिहाज़ा आपकी लेखनी को भी हमारा सलाम कबूल हो...
बहुत आनंद आया इस पोस्ट को पढ़ कर...एक आधा फोटो और लगाते तो आनंद दुगना हो जाता...
नीरज
नीरज भाई आपको अचरज जरूर होगा पर सच ये है कि जेब में कैमरा रहते हुए भी मैं बातों में इतना मशगूल रहा कि कैमरा बाहर निकालने की जरूरत ही महसूस नहीं हुई। चूंकि ये पोस्ट गौतम की शायरी और उनकी प्रेरणा के मद्देनज़र लिखी गई है तो सोचा उन्हीं की फोटो खोज कर लगा दूँ और वही अब लगा भी दी है।
patana mauryalok se khadi ke kurte-paijame ke kapde bahut kharide hain bhai.
khadi bhandar se
अरे ये क्या ? फास्ट फॉरवर्ड कर दिया आपने तो.
वावो सर....बेहतरीन पोस्ट..बहतरीन ग़ज़लें....डायरी में नोट कर रहा हूँ.......
just oneword...AMAZING....!!!!!!!!!!
LOVED THAT SAVERA.....and i was the Gavah of that meeting...as we talk on the phone that day first time...WHEN TWO good people meet ...its sparks.....
"प्रेरणा" अपनी क्लास-मेट भी थी एक नर्सरी क्लास में। सुना है अब तीन बच्चों की मुटल्ली सी मम्मी बन गयी है.... :-)। पहले तो मुझे लगा कि आपको कैसे उस प्रेरणा के बारे में जान गये....हा! हा!!
आपके याददाश्त की भी दाद देनी पड़ेगी मनीष जी। कैसे छोटी-छोटी बातों को भी पल्ले बाँध लिया आपने। बाप रे...you could have made a fine journolist, whose does not require to keep any recorder///या कोई डिक्टाफोन छुपा के रखा हुआ था आपने अपनी जेब में।
उस स्पेशल वेलेंटाइन डे की इतनी खूब्सूरती से याद दिलाने का दिल से शुक्रिया।
वाह मनीष जी ....जिस राज़ को हम जानने के लिए बेकरार थे ....आज आपने परिचित करवा ही दिया .....!!
कुछ स्वर कोकिला के स्वर भी सुना देते ....उनका वो भोजपुरी गीत भुलाये नहीं भूलता .....!!
वाह सर जी..गौतम सा’ब की ग़ज़लें, रचनाएं हमने भी पढ़ीं कई कई बार, मगर कभी भी रचनाओं से रचनाकार को डिकोड नही कर पाये..मगर आप्ने तो जैसे चंद घंटों की मुलाकात मे ही पूरी गठरी खोल डाली...आपके इन्वेस्टीगेशन के बहाने कई नई बातें भी पता चलीं..और यह भी कि एक सफ़ल रचनाकार के पीछे किस ’प्रेरणा’ का हाथ होता है...!
अब तो हम भी ’सफ़ल रचनाकार’ बनेंगे.. ;-)
गौतम जी से मिलवाने के लिए आभार। वे वैसे ही लगे जैसा कि मैं सोचती थी।
घुघूती बासूती
आपने ऐसी रोचक रिपोर्टिंग की है कि पोस्ट का पहला भाग पढ़ उस पर रुक कमेन्ट कर फिर आगे बढ़ने का धैर्य ही न रख पायी....
अब जब सब पढ़ लिया तो भावनाओं को कुछ शब्दों में समेट कैसे अभिव्यक्त करूँ बिलकुल भी नहीं समझ पा रही...
देश के लिए सीमा पर जान हथेली पर रख बंदूक लिए डटे रहने वाले के लिए यूँ ही मन श्रद्धा से भरा रहता है और उसपर जब वह सैनिक इतना संवेदनशील और इतना बेजोड़ लेखक शायर भी हो...तब तो फिर अनायास ही वह हीरो जैसा लगने लगता है...
बिना परिचय के भी गौतम के लिए मन में अनायास जो भाव उभरते थे...लगता था जैसे वह मेरा अपना ही सहोदर भाई है और बिना जाने भी उसे बहुत अच्छी तरह जानती हूँ मैं...
आज आपने उसके व्यक्तित्व के जिस पहलू से परिचित करवाया ,मन गर्व से भर गया...क्योंकि मेरा भाई जिनता समर्पित अपनी मातृभूमि के लिए होगा उतना ही समर्पित अपने जीवन साथी और परिवार तथा रिश्ते नाते के लिए भी होगा...
बहुत बहुत आशीर्वाद है ऐसे प्यारे भाई को...
और आपका बहुत बहुत आभार मनीष जी ,इस लाजवाब पोस्ट के लिए...
आप सब का शुक्रिया इस पोस्ट को सराहने का। नीरज जी व रंजना जी ने गौतम के लिए जो महसूस किया है उससे मैं अक्षरशः सहमत हूँ।
गौतम जेब में डिक्टाफोन तो नहीं एक अदद कैमरा जरूर था पर गपबाजी इतनी मज़ेदार चल रही थी के उसे इस्तेमाल करने की जरूरत नहीं समझी।
अपूर्व आपकी टिप्पणी मज़ेदार लगी। तो शुरु हो जाइए प्रेरणा की खोजबीन में। और अगर वो मिल जाए तो हमें भी बताइए। बाकी टिप्स के लिए तो गौतम हैं ही।
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