34 वर्षीय मनोज भावुक भोजपुरी साहित्य जगत में एक चिरपरिचित नाम हैं। सीवान, बिहार में जन्मे और रेणुकूट में पले बढ़े मनोज, भोजपुरी भाषा, साहित्य और संस्कृति के प्रचार प्रसार में हमेशा से सक्रिय रहे हैं। एक आंचलिक भाषा में ग़ज़ल कहना अपने आप में एक गंभीर चुनौती है और मुझे ये कहने में कोई संदेह नहीं कि मनोज अपने इस प्रयास में पूर्णतः सफल रहे हैं। शायद यही वज़ह है कि मनोज को इस पुस्तक के लिए वर्ष 2006 का भारतीय भाषा परिषद सम्मान दिया गया और वो भी गिरिजा देवी व गुलज़ार साहब की उपस्थिति में। किसी भी नवोदित गज़लकार के लिए ये परम सौभाग्य की बात हो सकती है।
मनोज की ग़ज़लों में जहाँ भावनाओं की गहराई है वही भोजपुरी के ठेठ शब्दों के प्रयोग से उपजा माधुर्य भी है। मनोज अपनी ग़ज़लों में हमारे आंतरिक मनोभावों, हमारी अच्छी व बुरी वृतियों को बड़ी सहजता से व्यक्त करते दीखते हैं। मिसाल के तौर पर उनके इन अशआरों को देखिए
अगर जो प्यार से मिल जा त माँड़ो भात खा लीले
मगर जो भाव ना होखे, मिठाई तींत लागेला
दुख में ढूँढ लऽ न राह भावुक सुख के जीये के
दरद जब राग बन जा ला त जिनगी गीत लागेला
जमीर चीख के सौ बार रोके टोके ला
तबो त मन ई बेहाया गुनाह कर जाला
बहुत बा लोग जे मरलो के बाद जीयत बा
बहुत बा लोग जे जियते में यार, मर जाला
अपने इस ग़ज़ल संग्रह में मनोज ने भारतीय गाँवों की पुरानी पहचान खत्म होने पर कई जगह अपने दिल के मलाल को शब्द दिए हैं
कहहीं के बाटे देश ई गाँवन के हऽ मगर
खोजलो प गाँव ना मिली अब कवनो भाव में
लोर पोंछत बा केहू कहाँ
गाँव अपनो शहर हो गइल
बदलाव के उठत बा अइसन ना तेज आन्ही
कहवाँ ई गोड़ जाता कुछुओ बुझात नइखे
पर पूरी पुस्तक में मनोज अपनी ग़ज़लों में सबसे ज्यादा हमारी ग्रामीण व कस्बाई जिंदगी की समस्याओं की बात करते हैं। भूख, गरीबी, बेरोजगारी, भ्रष्टाचार, सामाजिक व आर्थिक विषमता इन सारी समस्याओं को उनकी लेखनी बार बार हमारा ध्यान आकृष्ट करती है। मिसाल के तौर पर इन अशआरों में उनकी लेखनी का कमाल देखिए
पानी के बाहर मौत बा, पानी के भीतर जाल बा
लाचार मछली का करो जब हर कदम पर काल बा
संवेदना के लाश प कुर्सी के गोड़ बा
मालूम ना, ई लोग का कइसे सहात बा
एह कदर आज बेरोजगारी भइल
आदमी आदमी के सवारी भइल
आम जनता बगइचा के चिरई नियन
जहँवाँ रखवार हीं बा शिकारी भइल
ना रहित झाँझर मड़इया फूस के
घर में आइत कैसे घाम पूस के
आज उ लँगड़ो दारोगा हो गईल
देख लीं सरकार जादू घूस के
रोशनी आज ले भी ना पहुँचल जहाँ
केहू उहँवो त दियरी जरावे कबो
सब बनलके के किस्मत बनावे इहाँ
केहू बिगरल के किस्मत बनावे कबो
यूँ तो इस पूरी किताब के ऐसे कई शेर मन में गहरी छाप छोड़ते हैं पर एक ग़ज़ल जो मुझे इस पूरी पुस्तक में सबसे ज्यादा रोमंचित कर गई, को आपको सुनाने का लोभ संवरण नहीं कर पा रहा हूँ।
वैसे गर सुन ना भी पाएँ तो इन अशआरों पर जरूर गौर फरमाएँ
देह बा मकान में ,दृष्टि बा बागान में
होश में रहे कहाँ, मन तो इ नवाब हऽ
आदमी के स्वप्न के खेल कुछ अजीब बा
जी गइल त जिंदगी, मर गइल तो ख्वाब हऽ
हीन मत बनल करऽ दीन मत बनल करऽ
आदमी के जन्म तऽ खुद एगो खिताब हऽ
वाह वाह क्या बात कही है मनोज ने!
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11 टिप्पणियाँ:
nice
मनोज भावुक के इस भोजपुरी संकलन की जानकारी के लिए आभार !
इस सुंदर लेख ओर जानकारी के लिये आप का धन्यवाद
good sirji !!!
भावुक जी की कुछ गज़लें मैने भी शैलेश जी के ही सौजन्य से पढ़ी थीं..मगर तब शाय्द वस स्वाद नही ले पाया था..मगर अभी यहाँ आपके चुने हुए मोती देख कर आँखें चौंधिया सी गयीं..माशाअल्लाह हैं..और खासकर हम जैसे भोजपुरी के अल्पज्ञों के लिये शब्द-संपदा से भरपूर...और बहुत दिलचस्प भी...
इस किताब पर अपनी भी मिल्कियत है। आपकी आवाह सुन रहा हूं अभी....आपके उच्चारण से प्रभावित हो रहा हूं...कुछ खास भोजपूरी ठनक की वजह से.. :-)
"जले तो जलाओ गोरी" को बीच-बीच में सुनते रहता हूं और आपके अंदाज़ पे मुस्कुराता रहता हूं।
शुक्रिया गौतम! बस मेरी कोशिश इतनी थी की जिस लहज़े में बिहार और पूर्वी उत्तर प्रदेश के लोगों को इस भाषा में बात करते सुना है उसको ग़ज़ल की भावनाओं के साथ जोड़ सकूँ।
bahut khoob Manish...shayad pehali baar bhojpuri ghazal padhi humne :)! waqai dard jab raag ban jaaye to zindagi geet hee lagega... :) I can relate it! Thanks for sharing!
wah Manish.Dhanyavad.Manoj Bhavuk ke Bhojpuri sankalan ke kuchh moti hamaniyo ke dekhawala sunawala.ekra khatir jetno dhanyavaad aur aabhaar kaheen u kame kahai.Aaj se pahile sochalahun naa rahanee ki bhojpuri ke etnaa badhiaan gazal kehu likhale hoi.Bhagwaan tohraa ke nirog,dirghaayu raakhasu,taaki aage bhi taharaa maadhyam se aisan-aisan heera-moti dekhe-sune ke mile.Bahute achchaa gotakhor bujhat bada.Thanx a lot for sharing.
सुंदर रचना मन गदगद हो गइल।।
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