सोमवार, जून 07, 2010

साली से जब पूछनीं, काहो दूल्हा कतहूँ सेट भइल, कहली उ मुस्कात, खोजाइल बाटे इंटरनेट पर !

मनोज भावुक की लिखी किताब 'तस्वीर जिंदगी के' के बारे में पिछली पोस्ट में मैंने आपको बताया था कि इस किताब की अधिकांश ग़ज़लों में उनके आस पास का समाज झलकता है। ज़ाहिर है कोई भी ग़ज़लकार अपनी जिंदगी से जो अनुभव समेटता है वही अपनी ग़ज़लों में उड़ेलता है।

खुद मनोज अपने एक शेर में कहते हैं..

दुख दरद या हँसी या खुशी, जे भी दुनिया से हमरा मिलल
ऊहे दुनिया के सँउपत हईं, आज देके ग़ज़ल के सकल

सामाजिक समस्याओं पर उनके अशआरों की चर्चा तो मैं पहले कर ही चुका हूँ पर गरीबों की हालत पर अपने इस संकलन में एक पूरी गज़ल लिखी है। दीन दुखियों के दर्द को अपनी इस छोटी बहर की ग़ज़ल में वो कुछ यूँ व्यक्त करते हैं..

डँसे उम्र भर, डेग डेग पर
बन के करइत साँप गरीबी

हीत मीत के दर्शन दुर्लभ
जब से लेलस छाप गरीबी

जन्म कर्ज में मृत्यु कर्ज में
अइसन चँपलस चाँप गरीबी

हम सभी अपनी जिंदगी में कभी हताशा के दौर से गुजरते हैं तो कभी दिन हँसते खेलते निकल जाते हैं। मनोज की शायरी में ये दोनो मनःस्थितियाँ उजागर हुई हैं। कभी जिंदगी को वो बोझ की तरह वो खींचता सा अनुभव करते हैं

कुछुओ कहाँ बा आपन, झूठो के बा भरम
साँसो उधार जइसन लागे कबो कबो,

डोली ई देह लागे, दुल्हिन ई आत्मा
जिनगी कहार जइसन लागे कबो कबो

तो कभी उसे वो प्रेम के रंग से सराबोर पाते हैं..

अब त हर वक़्त संग तहरे बा
दिल के क़ागज, पर रंग तहरे बा

तोहसे अलगा बला दहब कैसे
धार तहरे, पतंग तहरे बा

पर ये जरूर गौर करने की बात है कि जिंदगी की जो तस्वीर मनोज ने अपनी इस पुस्तक में दिखाई है उसमें प्यार का रंग बाकी रंगों की तुलना में फीका है। हाँ, ये जरूर है कि मनोज की ग़ज़लें सिर्फ सामाजिक असमानता का आईना भर नहीं हैं पर साथ ही साथ वो उनसे लड़ने का हौसला भी दिलाती हैं। मिसाल के तौर पर उनके लिखे इन अशआरों पर गौर कीजिए.. क्या जोश जगाती हैं इक आम जन के मन में !

होखे अगर जो हिम्मत कुछुओ पहार नइखे
मन में ज ठान लीं कहँवाँ बहार नइखे

कुछ लोग नीक बाटे तबहीं तिकल बा धरती
कइसे कहीं की केहू पर ऐतबार नैखे

या फिर हमें जीवन में जुझारू होने का का संदेश देती इन पंक्तियों को देखें..

हर कदम जीये मरे के बा इहाँ
साँस जबले बा लड़े के बा इहाँ

जिंदगी तूफान में एगो दिया
टिमटिमाते हीं जरे के बा इहाँ

उहे आग सबका जिगर में बा, पर राह बा सबका जुदा
केहू कर रहल बा धुआँ धुआँ, केहू दे रहल बा रोशनी

तो कहीं वो संवाद के रास्ते आपसी संशय को मिटाने की बात कहते हैं..
भेद मन के मन में राखब कब ले अँइसे जाँत के
आज खुल के बात कुछ रउरो कहीं कुछ हमहूँ कहीं

घर बसल अलगे अलग, बाकिर का ना ई हो सके
रउरा दिल में हम रहीं और हमरा में रउरा रहीं

मनोज की लेखनी आज की जीवन शैली और खासकर इंटरनेट पर हमारी बढ़ती निर्भरता पर बड़ी खूबसरती से चली है। उर्दू की मज़ाहिया शायरी के अंदाज में उन्होंने 'इंटरनेट' पर जो भोजपुरी ग़ज़ल कही है उसके कुछ शेर तो वाकई कमाल के हैं। कुछ अशआरों की बानगी देखिए..

कइसन कइसन काम नधाइल बाटे इंटरनेट पर
माउस धइले लोग धधाइल बाटे इंटरनेट पर

बेदेखल बेजानल चेहरा से भी प्यार मोहब्बत अब
अजबे गजबे मंत्र मराइल बाटे इंटरनेट पर

जहाँ ऊपर का शेर सोशल नेटवर्किंग के प्रति हमारे बढ़ते खिंचाव को दिखाता है तो वहीं ये शेर इंटरनेट की सामाजिक स्वीकृति को मज़े मज़े में पूरी कामयाबी से उभारता है

साली से जब पूछनीं, काहो दूल्हा कतहूँ सेट भइल
कहली उ मुस्कात, खोजाइल बाटे इंटरनेट पर

इस ग़ज़ल के अपने सभी पसंदीदा अशआरों को बोल कर पढ़ने का आनंद ही कुछ और है। तो लीजिए सुनिए इसे पढ़ने का मेरा ये प्रयास..



अस्सी पृष्ठों के इस ग़ज़ल संग्रह में मनोज भावुक की 72 ग़जलें हैं। और जैसा कि मैंने पिछली पोस्ट में भी कहा कि अगर आप एक ग़ज़ल प्रेमी हैं और भोजपुरी भाषा की जानकारी रखते है तो मात्र 75 रुपये की ये पुस्तक आपके लिए है। इसे हिंद युग्म ने उत्कृष्ट छपाई के साथ बाजार में उतारा है। इस पुस्तक को खरीदने के लिए आप sampadak@hindyugm.com पर ई मेल कर सकते हैं या मोबाइल पर +91 9873734046 और +91 9968755908 पर संपर्क कर सकते हैं।

और हाँ आपको ये पुस्तक चर्चा कैसी लगी ये जरूर बताइएगा।
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11 टिप्पणियाँ:

Randhir Singh Suman on जून 07, 2010 ने कहा…

nice

Shekhar Kumawat on जून 07, 2010 ने कहा…

खूबसूरत

bahut khub

Udan Tashtari on जून 07, 2010 ने कहा…

मनोज भावुक जी को खूब पढ़ा..आपसे उनके शेर पढ़कर आनन्द आ गया. और आपने जिस तरह झूम के पढ़ी है उनकी गज़ल..वाह!! मजा आ गया. :)

विनोद कुमार पांडेय on जून 07, 2010 ने कहा…

सुंदर प्रस्तुति करना..भोजपुरी ग़ज़ल को पढ़ना सुखद रहा..प्रस्तुति के लिए आभार मनीष जी

राज भाटिय़ा on जून 07, 2010 ने कहा…

मनोज भावुक जी से मिलवाने के लिये आप का धन्यवाद, बहुत सुंदर लगा .धन्यवाद

देवेन्द्र पाण्डेय on जून 07, 2010 ने कहा…

शानदार चर्चा.

कुछ शेर त गजबै हौ...

डंसे उम्र भर डेग डेग पर
बनके करइत सांप गरीबी
..
..ई किताब त कीं के पढ़े के परी.

रंजना on जून 08, 2010 ने कहा…

क्या कहूँ ,पहली बार भोजपुरी ग़ज़ल पढने का सुअवसर मिला.....कितना आनंद आया ,बता नहीं सकती...बहुत बहुत आभार आपका....
जल्द ही यह पुस्तक मंगवाती हूँ...

नीरज गोस्वामी on जून 10, 2010 ने कहा…

जन भाषा में कहीं इन ग़ज़लों की मिठास ही अलग है...और आप की प्रस्तुति जैसे सोने पर सुहागा ...वाह...
नीरज

Himanshu Pandey on जून 13, 2010 ने कहा…

भोजपुरी की यह गजलें पढ़ना-सुनना एक बेहतरीन अनुभव है ! हिन्द युग्म की प्रशंसा की जानी चाहिए इस पुस्तक की छपाई के लिए !
आप की यह प्रविष्टि भी सुन्दर लगी ! आभार ।

Abhishek Ojha on जून 16, 2010 ने कहा…

बहुते नीमन ब्लॉग बाटे एगो इंटरनेट पर :)

झारखंडी आदमी on जून 17, 2010 ने कहा…

sukundayak..................ki ajj bhi janbhasa par prayas ho raha hai
sukriya

 

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