जगजीत सिंह ने ग़ज़ल गायिकी में जिस मुकाम को छुआ वो उन्हें आसानी से मिला हो ऐसी बात नहीं है। एक बेहद बड़े परिवार से ताल्लुक रखने वाले जगजीत सिंह के पिता सरदार अमर सिंह धीमन एक सरकारी मुलाज़िम थे और वे चाहते थे कि उनका पुत्र प्रशासनिक सेवा में जाए। पर जगजीत जी को संगीत में बचपन से ही रुचि थी। पिता उनकी इस रुचि में आड़े नहीं आए। श्री गंगानगर में श्री छगनलाल शर्मा से आरंभिक शिक्षा लेने के बाद जगजीत जी ने शास्त्रीय संगीत की शिक्षा उस्ताद ज़माल खाँ से ली।
विज्ञान से इंटर करने के बाद वो जालंधर चले आए। यहीं कॉलेज के कार्यक्रमों में वो हिस्सा लेने लगे। जगजीत जी के साक्षात्कारों में मैंने उन्हें ये कहते सुना है कि ऐसे ही एक कार्यक्रम में जब उन्होंने गाना खत्म किया तो लोग उनकी गायिकी से इतने अभिभूत हो गए कि उन्हें रोक कर पैसे देने लगे। उन छोटे छोटे नोटों को जगजीत जी शायद ही कभी भूल पाएँ क्यूँकि श्रोताओं से मिले इस प्यार ने उनके मन में एक ऍसे सपने का संचार कर दिया था जिसको पूरा करने के लिए उन्होंने काफी मेहनत की।
1965 में वो मुंबई पहुँचे। शुरुआती दिन बड़े कठिनाई भरे थे। विज्ञापनों के जिंगल, शादियों और फिल्मी पार्टियों में जहाँ भी गाने के लिए उन्हें न्यौता मिला उन्होंने अस्वीकार नहीं किया। संघर्ष के इन ही दिनों में उनकी मुलाकात चित्रा जी से हुई और 1969 में उन्होंने उनसे विवाह कर लिया। सत्तर के दशक में जब भी कोई ग़ज़लों की बात करता था, सब की जुबाँ पर नूरजहाँ, बेगम अख़्तर, के एल सहगल, तलत महमूद और महदी हसन जैसे कलाकारों का नाम आता था। तब ग़ज़ल गायिकी का अपना एक अलग शास्त्रीय अंदाज़ हुआ करता था पर ये भी था कि तबकी ग़ज़ल गायिकी आम अवाम से कहीं दूर कुछ निजी महफ़िलों की शोभा बनकर ही सीमित हो गई थी।
जगजीत सिंह की दूरदर्शिता का ही ये कमाल था कि उन्होंने इस दूरी को समझा और ग़जलों के साथ एक नए तरह के संगीत, हल्के बोलों और ग़ज़लों में मेलोडी का पुट भरने की कोशिश की और उसे जनता ने हाथों हाथ लिया। 1976 में उनका रिलीज़ हुए एलबम The Unforgettable का नीले रंग का कैसेट कवर मुझे आज तक याद है। यूँ तो इस एलबम की तमाम ग़ज़लें और नज़्में चर्चित हुई थीं। पर इस एलबम को यादगार बनाने में मुख्य भूमिका रही थी अमीर मीनाई की ग़ज़ल सरकती जाए है रुख से.. और एक उतनी ही संवेदनशील नज़्म से।
पर इनकी बात करने से पहले बातें इस एलबम की कुछ अन्य ग़ज़लों की जिनके कुछ अशआरों को गुनगुनाने में अब भी वही आनंद आता है जो तब आया करता था। मिसाल के तौर पर जिग़र मुरादाबादी की इस ग़ज़ल को लें। क्या दिल का दर्द जुबाँ तक आता नहीं महसूस होता आपको?
दर्द बढ कर फुगाँ1 ना हो जाये
ये ज़मीं आसमाँ ना हो जाये
1. आर्तनाद
दिल में डूबा हुआ जो नश्तर2
है मेरे दिल की ज़ुबाँ ना हो जाये
2. खंजर
फिर तारिक़ बदायुँनी के कलाम को चित्रा ने इस करीने से गाया है कि कानों में संगीत की शमा खुद ब खुद जल उठती है
इक ना इक शम्मा अँधेरे में जलाए रखिए
सुबह होने को है माहौल बनाए रखिए
जिन के हाथों से हमें ज़ख्म-ए-निहाँ 3पहुँचे हैं
वो भी कहते हैं के ज़ख्मों को छुपाये रखिये
3. छुपे हुए जख़्म
चित्रा जी की गाई सुदर्शन फाक़िर की ग़ज़ल के ये अशआर भी मुझे हमेशा याद रहते हैं
किसी रंजिश को हवा दो कि मैं ज़िंदा हूँ अभी
मुझको अहसास दिला दो कि मैं ज़िंदा हूँ अभी
मेरे रुकने से मेरी साँस भी रुक जाएँगी
फ़ासले और बढ़ा दो कि मैं ज़िंदा हूँ अभी
पर जब बात सरकती जाए.... की आती है तो मूड पहले चाहे जैसा भी रहे एकदम से बदल जाता है। जगजीत जी की ये ग़ज़ल उनके एलबम में तो थी ही, अपनी कान्सर्ट्स में भी वो इसे बड़ी तबियत से गाते थे। मेरे पास उनका रॉयल अलबर्ट हॉल में गाया हुआ वर्सन भी है जिसमें वो अमीर मीनाई की ग़ज़ल की शुरुआत के पहले ये प्यारा सिलसिला शुरु करते थे...
मज़ारे कैस पर जब रुह-ए-लैला एक दिन आई
तो अरमानों के मुरझाए हुए कुछ फूल भी लाई
लगी जब फूल रखने तो कब्र से आवाज़ ये आई
चढ़ाना फूल जानेमन मगर आहिस्ता आहिस्ता
और उसके बाद शुरु होती थी अमीर मीनाई साहब की ग़ज़ल जिसके चार अशआरों को गाकर ही जगजीत मन में ऐसा जादू जगाते थे कि दिल सचमुच में बाग बाग हो जाता था। जगजीत खुद मानते हैं कि ये पहली ग़ज़ल थी जिसकी वज़ह से लोग उन्हें पहचानने लगे।
सरकती जाये है रुख़4 से नक़ाब आहिस्ता आहिस्ता
निकलता आ रहा है आफ़ताब5 आहिस्ता आहिस्ता
4. चेहरे, 5. सूरज
जवाँ होने लगे जब वो तो हमसे कर लिया परदा
हया यकलख़्त6 आई और शबाब आहिस्ता आहिस्ता
6. तुरंत
शब-ए-फ़ुर्क़त7 का जागा हूँ फ़रिश्तों अब तो सोने दो
कभी फ़ुर्सत में कर लेना हिसाब, आहिस्ता आहिस्ता
7. वियोग की रात
लाइव कानसर्ट में जगजीत ने इस मक़ते के एक अलग ही मिज़ाज का जिक्र किया था। जगजीत का कहना था कि दूसरे मिसरे में 'हुज़ूर' और 'जनाब' के प्रयोग में वही अंतर है जो कि लखनऊ और पंजाब के अदब में। जगजीत ने जिस अंदाज़ में ये अंतर गाकर समझाया है उसे सुनकर आप मुस्कुराया बिना नहीं रह पाएँगे..
वो बेदर्दी से सर काटें ‘अमीर’ और मैं कहूँ उनसे
हुज़ूर आहिस्ता आहिस्ता जनाब आहिस्ता आहिस्ता
इस ग़ज़ल में अमीर मीनाई के चंद शेर और हैं जिन्हें जगजीत जी ने गाया नहीं है।
सवाल-ए-वस्ल8 पे उनको उदू9 का खौफ़ है इतना
दबे होंठों से देते हैं जवाब आहिस्ता आहिस्ता
8.मिलने की बात पर, 9. प्रतिद्वंदी
हमारे और तुम्हारे प्यार में बस फ़र्क है इतना
इधर तो जल्दी-जल्दी है उधर आहिस्ता आहिस्ता
वैसे इस ग़ज़ल से तो आप वाकिफ़ होंगे ही पर ये बताएँ कि इसके शायर अमीर मीनाई के बारे में आप कितना जानते हैं? अक्सर हम इन लाज़वाब ग़जलों को लिखने वालों को अपनी याददाश्त से निकाल देते हैं। पर अगर ऐसी ग़ज़लें लिखी ही नहीं जातीं तो जगजीत जैसे महान फ़नकार हम तक इन्हें पहुँचाते कैसे? तो चलिए जानें अमीर साहब के बारे में।
अमीर मीनाई की पैदाइश 1826 में लखनऊ में हुई थी । जनाब मुजफ्फर अली असीर की शागिर्दी में उनकी काव्यात्मक प्रतिभा का विकास हुआ। 1857 के विद्रोह के बाद वे रामपुर चले गए जहाँ पहले वे नवाब यूसुफ अली खाँ और फिर कलब अली खाँ के दरबार में रहे। उनकी अधिकांश कृतियाँ इसी कालखंड की हैं।
अमीर मीनाई की शायरी को जितना मैंने पढ़ा है उसमें मुझे मोहब्बत और रुसवाई का रंग ही ज्यादा नज़र आया है। उनके लिखे कुछ अशआर पे गौर करें
जब़्त कमबख़्त ने और आ के गला घोंटा है
कि उसे हाल सुनाऊँ तो सुना भी ना सकूँ
बेवफ़ा लिखते हैं वो अपनी कलम से मुझको
ये वो किस्मत का लिखा है कि मिटा भी ना सकूँ
ऐसा ही कुछ रंग यहाँ भी दिखता है
कह रही है हस्र में वो आँख शरमाई हुई
हाए कैसे इस भरी महफिल में रुसवाई हुई
मैं तो राज ए दिल छुपाऊँ पर छिपा रहने भी दे
जान की दुश्मन ये ज़ालिम आँख ललचाई हुई
गर्द उड़ी आशिक़ की तुरबत से तो झुँझला के कहा
वाह सर चढ़ने लगी पाँव की ठुकराई हुई
अमीर साहब की शायरी के दो संकलन 'मराफ़ उल गजब' और 'सनम खान ए इश्क़' बताए जाते हैं। उन्होंने एक उर्दू शब्दकोष भी बनाया जो किसी वज़ह से प्रकाशित नहीं हो पाया। रामपुर के नवाबों के इंतकाल के बाद अमीर, हैदराबाद में निज़ाम के दरबार में चले गए। पर हैदराबाद की आबोहवा उन्हें रास नहीं आई और 1900 में वे चल बसे।
जगजीत की जिस दूसरी पेशकश की वज़ह से ये एलबम कभी ना भूलने वाला बन गया है उसकी चर्चा करेंगे अगली पोस्ट में...
कुन्नूर : धुंध से उठती धुन
-
आज से करीब दो सौ साल पहले कुन्नूर में इंसानों की कोई बस्ती नहीं थी। अंग्रेज
सेना के कुछ अधिकारी वहां 1834 के करीब पहुंचे। चंद कोठियां भी बनी, वहां तक
पहु...
6 माह पहले
17 टिप्पणियाँ:
बेहतरीन.. मजा आ गया.. लाइव का मजा की अलग है..
इतने दिनी बाद जगजीतसिंह को सुना और बहुत कुछ जाना यह सब अधिक नहीं पता था ख़ास कर अमीर मिनाई ..बहुत बहुत शुक्रिया मनीष जी ..इतनी अनमोल जानकारी देने का और फिर से कुछ गजलों को सुनाने का ...
हमारे नेट को जुखाम हो गया है वो गीत ठीक से नही सुनाता। खैर जगजीत जी के तो हम बडे फैन है।
बहुत ही सुंदर जान्कारी दी आप ने, मेरे पास तकरीबन सारी की सारी गजले है जो जगजीत सिंह जी ने गाई है. धन्यवाद
बेहतरीन जानकारी दी..देर सत्तर के दशक में ही हमने भी सुनना शुरु किया था जगजीत सिंग को..तब एल पी रिकार्ड आया करते थे उनके.
मस्त आलेख. आगे इन्तजार रहेगा.
वाह !
बहुत शानदार था इसबार का भी पर इससे पिछले पोस्ट की तो बात ही निराली थी. लिखते रहिये इंतजार रहेगा
-रवि शंकर, बाल्टीमोर, एम् डी, यू एस ऐ
रवि भाई पिछली पोस्ट को तैयार करते वक़्त महेंद्र सिंह बेदी 'सहर' की शायरी को पढ़ना और सुनना मेरे लिए भी उतना ही आनंददायक रहा था। जानकर खुशी हुई कि वो आनंद आप तक पहुँचा सका।
मनीष........तुम्हारी मदमस्त शामों को मैं भी महसूस करता आया हूँ....मगर मैंने नेट का जो सस्ता कनेक्शन लिया हुआ है उसमें वीडियो-ऑडियो नामुराद दोनों ही नहीं चलते....सो कभी तुम्हारे लिंक पर इन्हें नहीं सुना....अलबत्ता...जो कुछ भी तुम लिखते आये हो.....उसमें अधिकांशतः चीज़ें मैंने सुनी ही नहीं....बचपन से उन्हें गाता भी रहा हूँ....और जगजीत "दा" को तो मैंने खूब-खूब और खूब गाया हुआ है....[क्यूंकि गलती से मैं गाता भी हूँ....]कभी मिले...और तुमने मुझे ज़रा-सा भी भाव दिया....या ऐसा अवसर मिला तो गाकर भी सुनाऊंगा....और पसंदीदा सुनाऊंगा........हाँ यह जरूर कहूँगा....की तुम्हारा यह ब्लॉग गीत-संगीत के क्षेत्र में एक तरह इतिहास-बयान है...और कितनी ही चीज़ों को तुम लोगों को फिर-फिर से याद करा रहे हो...यह सुरूचि-पूर्ण तो है ही....साथ ही ब्लॉगजगत का एक न भूलने वाला हिस्सा बन गया है.... तुम अपने इस कार्य को और उंचाइयां प्रदान करो...इन्हीं कामनाओं के संग....तुम्हारा भूतनाथ....!!
we all hosteler are die hard fan of jaggu da....सच कहूँ तो जग्गू दा हमारा बड़ा सहारा रहे ...डूबते उबरते दोनों वक्तो में ....इधर जिंदगी नया चेप्टर खोलती उधर जग्गू दा उसे सुलझाने में मदद करते..हमारा बस चलता तो उन्हें कब का पदमश्री दिलवा देते....उनकी कितनी गजलो से एक अजीब सा रिश्ता है ....
राजीव जीजगजीत जी के प्रति आपकी जो भावनाएँ हैं बस इतना समझ लीजिए मेरे दिल की प्रतिध्वनि हैं। भगवान ने वैसी आवाज़ तो नहीं दी पर जगजीत को गुनगुनाना मेरा भी प्रिय सगल रहा है। इस शृंखला के दूसरे भाग में अपनी कुछ रिकार्डिंग शेयर भी की थी और आगे भी ऐसा करने का इरादा है।
और आपसे जब भी अगली मुलाकात होगी आपकी आवाज, में आपकी पसंदीदा ग़ज़लों को सुनना मेरे लिए एक आनंददायक अनुभूति रहेगी।
अनुराग बस दिल की बात कह दी हे आपने। हॉस्टल की कितने दिन और उससे भी अधिक कितनी रातें जगजीत को समर्पित रही हैं इनका हिसाब करना मुश्किल है।
राजीव जी कही यह बात मैं भी दोहराना चाहता हूँ - कि यह ब्लॉग गीत-संगीत के क्षेत्र में एक तरह इतिहास-बयान है...और कितनी ही चीज़ों को तुम लोगों को फिर-फिर से याद करा रहे हो...यह सुरूचि-पूर्ण तो है ही....साथ ही ब्लॉगजगत का एक न भूलने वाला हिस्सा बन गया है ।"
मनीष भाई एक विभोर-एकाग्रता देखता हूँ आपमें ! इन प्रविष्टियों का निर्माण स्वयं में एक रचना-प्रक्रिया से गुजरना है ! मैं मुग्ध हूँ..विस्मित भी !
आभार ।
dost shayad nastar ka matlab 'pin' ya neddle hota hai......baaki aap jaise fan to nahi hum.
vagi नश्तर का मतलब चाकू या खंजर ही होता है। आप नेट पर यहाँ देख सकते हैं...
http://dict.hinkhoj.com/shabdkosh.php?word=%E0%A4%A8%E0%A4%B6%E0%A5%8D%E0%A4%A4%E0%A4%B0
Wow all I can say is that you are a great writer! Where can I contact you if I want to hire you?
Hey..i want the version of ahista ahista that u have..i tried so many searches on google with no long..could u please share the song?
What is your e mail ID Mr Anonymous ?
एक टिप्पणी भेजें