बात अस्सी के दशक के शुरुआत की है जब राजेश खन्ना और हेमा जी की एक फिल्म आई थी नाम था दर्द। फिल्म के संगीतकार थे ख़य्याम साहब और इसके गीतों के बोल लिखे थे नक्श ल्यालपुरी ने। वैसे तो पूरी फिल्म का संगीत लोकप्रिय हुआ था पर आज इस पोस्ट में अपनी पसंद के दो गीतों या यूँ कहें कि एक गीत व एक ग़ज़ल का जिक्र करना चाहूँगा जिन्हें सुनना हमेशा से मन में एक अलग सा जादू जगाता रहा है।।
खासकर प्रेम के रंग से रससिक्त इस गीत की तो बात ही निराली है। मुखड़े या इंटरल्यूड्स में ख़य्याम साहब का म्यूजिकल अरेंजमेंट,लता की नर्म,सुरीली और भावों में डूबती आवाज़ या फिर नक्श ल्यालपुरी के खूबसूरत बोल हों सब मिल कर इस गीत को एक अलग ही धरातल पर ले जाते हैं। इस गीत को मैं लता जी द्वारा अस्सी के दशक में गाए नायाब गीतों में शुमार करता हूँ।
एक संगीतकार के रूप में ख़य्याम साहब ने चालिस साल से ऊपर के अपने कैरियर में मात्र पचास से कुछ ज्यादा फिल्में कीं पर संगीत की गुणवत्ता से कभी कोई समझौता नहीं किया। अपनी फिल्मों के लिए वो अक्सर ऐसे गीतकारों को लेते थे जिनमें काव्यात्मक प्रतिभा भरी हो। इसलिए उनकी फिल्मों में गीतकार के रूप में आप किसी नामी कवि या शायर को ही पाएँगे। अब इसी फिल्म दर्द को लें जिसके गीत उन्होंने नक़्श ल्यालपुरी से लिखवाए।
ये वही नक़्श ल्यालपुरी हैं जिन्होंने फिल्म घरौंदा का गीत मुझे प्यार तुमसे नहीं है नहीं है (जो मुझे बहुत बहुत पसंद है) लिखा था। वैसे उनके नाम से ये तो ज़ाहिर है कि वे ल्यालपुर से ताल्लुक रखते थे जो पाकिस्तान के पूर्वी पंजाब में पड़ता था। पर उनका असली नाम नक़्श ल्यालपुरी ना होकर जसवंत राय था। रेडिओ पर अपने एक साक्षात्कार में उन्होंने बताया था कि उनके उर्दू शिक्षक, पुस्तिकाओं के पीछे लिखी उनकी शायरी से इतने प्रभावित थे कि पिछली कक्षा की सारी पुस्तिकाओं को अपने पास रखवा लेते थे। आज़ादी के बाद वे लखनऊ आ गए और कुछ सालों वहाँ बिताने के बाद मुंबई में डाक तार विभाग में नौकरी कर ली। पर एक शायर का मन दिन भर रजिस्ट्री करने में कहा रमता। सो मित्रों की मदद से पहले उन्होंने नाटकों में लिखना शुरु किया और फिर फिल्मों में चले आए।
तो आइए सुनें नक्श साहब वल्द 'जसवंत राय' का लिखा और लता का गाया ये प्यारा सा नग्मा
न जाने क्या हुआ, जो तूने छू लिया
न जाने क्या हुआ, जो तूने छू लिया
खिला गुलाब की तरह मेरा बदन
निखर निखर गई, सँवर सँवर गई
निखर निखर गई, सँवर सँवर गई
बना के आईना तुझे, ऐ जानेमन
न जाने क्या हुआ, जो तूने छू लिया
बिखरा है काजल फिज़ा में, भीगी भीगी है शामे
बूँदो की रिमझिम से जागी आग ठंडी हवा में
आ जा सनम, यह हसीं आग हम ले दिल में बसा
न जाने क्या हुआ, जो तूने छू लिया, खिला गुलाब...
न जाने क्या हुआ, जो तूने छू लिया...
आँचल कहाँ, में कहाँ हूँ, ये मुझे होश क्या है
यह बेखुदी तूने दी है, प्यार का यह नशा है
सुन ले ज़रा साज़ ऐ दिल गा रहा है नग्मा तेरा
न जाने क्या हुआ, जो तूने छू लिया, खिला गुलाब...
न जाने क्या हुआ, जो तूने छू लिया...
कलियों की ये सेज महके, रात जागे मिलन की
खो जाए धड़कन में तेरी, धड़कनें मेरे मॅन की
आ पास आ, तेरी हर साँस में, मैं जाऊँ समा
न जाने क्या हुआ, जो तूने छू लिया.....जानेमन
न जाने क्या हुआ, जो तूने छू लिया...
ख़य्याम साहब ने इस फिल्म में नक़्श ल्यालपुरी से एक नहीं बल्कि दो शीर्षक गीत लिखवाए। जहाँ गीत प्यार का दर्द है मीठा मीठा प्यारा प्यारा.. फिल्म के नौजवान किरदारों पर फिल्माया गया वहीं दूसरा गीत जिसे फिल्मी ग़ज़ल कहना ज्यादा उपयुक्त होगा पुरानी पीढ़ी के किरदारों पर फिल्माया गया। और कमाल की बात ये कि दोनों ही गीत लोकप्रिय हुए। पर इन दोनों नग्मों में मुझे ये ग़ज़ल ज्यादा पसंद आती है। इस ग़ज़ल के दो टुकड़े हैं एक में लता जी का स्वर है तो दूसरे में भूपेंद्र का। जब भी इस ग़ज़ल को सुनता हूँ लता जी की आवाज़ की कशिश और नक़्श ल्यालपुरी के सहज बोल एक बार फिर समा बाँध देते हैं।
अहले दिल यूँ भी निभा लेते हैं
दर्द सीने में छुपा लेते हैं
दिल की महफ़िल में उजालों के लिये
याद की शम्मा जला लेते हैं
जलते मौसम में भी ये दीवाने
कुछ हसीं फूल खिला लेते हैं
अपनी आँखों को बनाकर ये ज़ुबाँ
कितने अफ़साने सुना लेते हैं
जिनको जीना है मोहब्बत के लिये
अपनी हस्ती को मिटा लेते हैं
वहीं भूपेंद्र गीत के मूड को दो और अशआरों में बरकरार रखते हैं..
जख्म जैसे भी मिले जख़्मों से
दिल के दामन को सजा लेते हैं
अपने कदमों पे मोहब्बतवाले
आसमानों को झुका लेते हैं
तो आइए सुनें भूपेंद्र की आवाज़ में इस गीत का ये टुकड़ा....
आप जरूर सोच रहे होंगे कि आजकल नक़्श ल्यालपुरी जी क्या कर रहे हैं । आज का तो पता नहीं पर उन्होंने अंतिम बार 2005 में नौशाद की आखिरी फिल्म ताजमहल के लिए कुछ गीत लिखे थे। फिल्मों में अब वे काम करना नहीं चाहते क्यूँकि वे मानते हैं कि अब उनके लायक काम आता ही नहीं। कुछ साल पहले तक वे टीवी सीरियल की पटकथाओं को लिखकर अपना काम चला रहे थे।
14 टिप्पणियाँ:
बहुत सुंदर लगा आप का लेख सभी गीत बहुत सुंदर लगे धन्यवाद
बेहतरीन आलेख...और सुन्दर गीत सुनाये आपने. आभार.
उफ़,
दसियों बरस पहले एक कैसेट पर भुपिन्दर की आवाज में अहल-ए-दिल सुनना शुरू किया था। शुरूआती दो शब्दों ने ही वो जादू किया था कि टेपरेकार्डर पर आगे-पीछे घिस घिस कर उस कैसेट पर बहुत जुल्म किया था।
इसी कैसेट को पहली बार सोनी के वाकमैन पर भी चलाया था। तब घर की छत पर अंधेरे में सुनने में जो सुकून मिला था उसकी मिसाल देना नामुमकिन है।
shaan dar geet...umda jankari.....behtreen post....
घर की छत और वो अँधेरा, नामालूम हमारे उन बीते लमहों में सुने कितने गीतो का हमराज़ रहा है नीरज। इस गीत ने तुम्हारी पुरानी स्मृतियों को कुदेरा, ये जानकर अच्छा लगा।
Manish bhai,
you select really melodious songs ..Enjoyed all the song clips.
Faboulous.........
बेहतरीन आलेख...और सुन्दर गीत सुनाये आपने. आभार...!!
आपकी पसंद लाजवाब है...बहुत आनंद आया मधुर गीतों को सुनकर...
नीरज
क्या कहते है वो 'कर्ण प्रिय' गीत।
लाजवाब गीत दोनों.
बहुत बढ़िया विश्लेषण , पेज बहुत स्लो खुल रहा है आपका इधर शिकागो में :)
अल्टीमेट..लता जी वाला तो सुना था..मगर हैरान हूँ कि भुपिंदर वाला संस्करण पहले सुना ही नही था..यहाँ साझा करने के लिये आपका शुक्रिया कहूँगा..जबर्दस्त हैं..
आपका लेख जनसत्ता के आज के संस्करण में प्रकाशित हुआ है. आप इसे जनसत्ता-रायपुर के ऑनलाइन संस्करण में प्रष्ट न. 4 पर पढ़ सकते हैं.
http://www.jansattaraipur.com/
शाह नवाज़ ये जानकारी देने के लिए आपका आभारी हूँ ! अन्यथा मैं जान ही नहीं पाता। लेख के संपादन में ना जाने क्या हुआ जो तूने छू लिया.. गीत का उल्लेख छूट गया है जिस से पाठकों को ये समझने में दिक्कत हुई होगी कि मैं फिल्म दर्द के किन गीतों की बात कर रहा हूँ।
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