क्या आपको पता है कि एक ज़माना वो भी था जब किसी संगीतकार को हिंदी फिल्मों में हीरो से भी ज्यादा पारिश्रमिक दिया जाता रहा हो? आज के हिंदी फिल्म उद्योग में तो ऐसा होना असंभव ही प्रतीत होगा। पर पचास और साठ के दशक में ऍसी ही एक संगीतकार जोड़ी थी जिसने अपने रचे गीतों की लोकप्रियता के आधार पर ये मुकाम हासिल किया था। ये संगीतकार थे शंकर जयकिशन यानि शंकर सिंह रघुवंशी और जयकिशन दयाभाई पंचाल।
जहाँ शंकर तबला बजाने में प्रवीण थे तो वहीं जयकिशन को हारमोनियम बजाने में महारत हासिल थी। काम के सिलसिले में एक गुजराती निर्देशक के कार्यालय में हुई पहली मुलाकात इनकी दोस्ती का सबब बन गई। तब शंकर पृथ्वी राज कपूर के थियेटर के पृथ्वी में काम किया करते थे। कहते हैं जयकिशन से उनकी ऐसी जमी कि उन्होंने उन्हें पृथ्वी थियेटर में बतौर हारमोनियम वादक काम दिला दिया। ये उन दिनों की बात है जब राज कपूर साहब आग की मिश्रित सफलता के बाद अपनी नई फिल्म बरसात के लिए संगीत निर्देशक की तलाश में थे। पर ये तालाश कैसे पूरी हुई ये वाक़या भी दिलचस्प है। शंकर ने दूरदर्शन में आने वाले कार्यक्रम फूल खिले हैं गुलशन गुलशन में तबस्सुम को दिए अपने एक साक्षात्कार के दौरान इस घटना का जिक्र करते हुए कहा था
राज साहब ने पिक्चर शुरू की ‘बरसात’। तो हरदम मिलते और कहते कि भाई गाने पसन्द आएँगे तो मैं लूँगा, तुम बनाते रहो। तो ऐसे कई गाने बनाए लेकिन उनको कभी पसन्द आए ही नहीं। हम उनको कहते कि भाई आप बनवाते हैं लेकिन लेते तो हैं नहीं। इत्तेफ़ाक़ से हम पूना गए एक वक़्त थिएटर के साथ। रात का वक़्त था , मैंने बाजा लिया। बाजा लेकर कहा – राज साहब! बैठिए, अब ये धुन सुनिए ज़रा – आपको कैसी लगती है! भले ही मत लीजिए लेकिन सुन लीजिए।. ‘अमुआ का पेड़ है, वही मुँडेर है, आजा मोरे बालमा, अब काहे की देर है’ ये गाना मैंने सुनाया। राज जी ने सुनते ही कहा कि भाई! अपन बम्बई चलते हैं और गाने को रिकॉर्ड करते हैं। तो बस फ़िर बम्बई आ गए और वाक़ई वो गंभीरतापूर्वक उस गाने के पीछे लग गए – भाई वो गाना ज़रा फिर सुनाओ! बाद में उस गाने के लिए हसरत मियाँ लिखने के लिए आएऔर हसरत जयपुरी जब आए तो जो गाना बनकर निकला वो था जिया बेक़रार है, छायी बहार है, आजा मोरे बालमा, तेरा इंतज़ार है।
ये गीत और बरसात का पूरा संगीत कितना सफल हुआ इससे आप सब वाक़िफ हैं। दरअसल यहीं से शंकर, जयकिशन, शैलेंद्र, हसरत जयपुरी , लता और मुकेश जैसे कलाकारों का एक ऐसा समूह बना जो जयकिशन के निधन के पहले तक राजकपूर की फिल्मों का एक ट्रेडमार्क बन गया। शंकर जयकिशन ने अपनी आपसी सहमति से यह निर्णय कर रखा था कि दोनों में से अगर कोई दुनिया से चल बसा तो जो बचेगा वो भी अपने गीतों के क्रेडिट में शंकर जयकिशन का नाम ही इस्तेमाल करेगा।
यूँ तो शंकर जयकिशन के तमाम यादगार गीत रहे हैं। पर आम्रपाली के लिए उनका संगीतबद्ध ये गीत मुझे लता जी के गाए हुए गीतों में बेमिसाल लगता है। पिछले महिने लता जी के जन्मदिन के अवसर पर इसे आपके सामने प्रस्तुत करने की तमन्ना थी जो समयाभाव के कारण पूरी नहीं हो पाई। एक ऐतिहासिक प्रेम कथा पर आधारित इस विरह गीत का प्रत्येक अंतरा मन को भिगा देता है। इसे गीत के बोल लिखे थे शैलेंद्र ने।
गीत तो मधुर था ही पर ये बात भी गौर करने की है कि कितनी प्यारी हिंदी का प्रयोग किया था शैलेंद्र ने इस गीत में। दरअसल "बिरहा की इस चिता से तुम ही मुझे निकालो....जो तुम ना आ सको तो, मुझे स्वप्न में बुला लो" और "मन है कि जा बसा है, अनजान इक नगर में,कुछ खोजता है पागल खोई हुई डगर में..".जैसी पंक्तियाँ बड़ी ही तबियत से नायिका के मनोभावों को उभारती हैं। उभारेगीं कैसे नहीं हमारी स्वर कोकिला ने कोई कसर रख छोड़ी है अपनी बेमिसाल गायिकी में?
अधिकतर संगीत समीक्षक इसे शंकर की कम्पोसीशन मानते हैं। कहा तो यही जाता है कि फिल्म आम्रपाली के सारे गानों को शास्त्रीय रागों पर आधारित करने में शंकर का हाथ था। वैसे इस गीत के मुखड़े और अंतरे के पहले सितार की जो मधुर धुन शंकर ने रची है वो तो गीत में बस चार चाँद ही लगा देती है। तो आइए एक बार फिर सुनते हैं इस मीठे सम्मोहक गीत को जो फिल्माया गया था वैजयंतीमाला जी पर।
तुम्हें याद करते करते जाएगी रैन सारी
तुम ले गये हो अपने संग नींद भी हमारी
मन है कि जा बसा है, अनजान इक नगर में
कुछ खोजता है पागल खोई हुई डगर में
इतने बड़े महल में, घबराऊँ मैं बेचारी
तुम ले गये हो अपने संग नींद भी हमारी
तुम्हें याद करते करते .....
बिरहा की इस चिता से तुम ही मुझे निकालो
जो तुम ना आ सको तो, मुझे स्वप्न में बुला लो
मुझे ऐसे मत जलाओ, मेरी प्रीत है कुँवारी
तुम ले गये हो अपने संग नींद भी हमारी
तुम्हें याद करते करते
तुम्हें याद करते करते.....
11 टिप्पणियाँ:
उस जमाने मे संगीत कार भी पेसो के लिये नही अपने नाम के लिये जाने जाते थे, बहुत अच्छी ओर सुंदर जानकारी दी आप ने, धन्यवाद
बस आपकी पोस्ट देखी और आईपॉड निकाल के सुन रहा हूँ. जहाँ बैठा हूँ वहां यूट्यूब चलाना अच्छा नहीं लगता :)
बहुत बहुत बहुत सुन्दर गीत सुनवाया आपने
कभी,,,, इसी फिल्म का वो गीत भी सुनवाएं ..
"...मन पंछी बन उड़ जाता है, हम खोये-खोये रहते हैं."
धन्यवाद
bahut hi sureela aur karnpriya geet....
mai is jankari ko apne dosto ke sath bhi batunga.... aur ye geet to bahut hi surila hai
aapke pasand ka jawaab nahi saab..
arsh
खूबसूरत जानकारी से भरी दिलकश पोस्ट..सुनते तो हैं कि बाद मे ऐसे ही कुछ क्रियेटिव डेफ़रेंसेज आने की वजह से इस जोड़ी मे दरार पड़ गयी थी..जैसेकि जयकिशन साब का कहना था कि फ़िल्मों मे ज्यादातर म्यूजिक उनका ही होता था..खासकर संगम के ’यह मेरा प्रेमपत्र’ वाले गीत के बाद..
कुछ और भी लाइये उस दौर को सामने..
वाह.....
मनीष जी, इसी फिल्म का एक और गीत है - इस नीलगगन की छांव में दिन-रैन गले से मिलते हैं। दिन पंछी बन उड़ जाता है, हम खोए-खोए रहते हैं। मुझे याद है कि ये गाना मैंने दसवीं के बोर्ड इम्तिहान के वक्त विविध भारती पर सुना था और पहली बार इसका अर्थ समझ में आया था। उस वक्त फेसबुक होता, तो पूरे एक महीने ये मेरा स्टेटस मेसेज होता। :) कमाल है कि कैसे कोई गीत, कुछ लफ्ज़ हमारे यादों के इंद्रधनुषी हिस्से बन जाते हैं!
mein badi choti thi jab ek puruskar swaroop mujhe ek cassett mila tha, jissme ye gana tha. kai dino tak wo cassett baar baar suna. bina matlab jane hi gane yaad ho gaye. fir cassett kho gaya aur gane bhi bhool gayi. apne wo din wapas yaad dila diye. bahut bahut dhanyawad. sach me bada sureela geet hai.
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