दो साल पहले इब्ने इंशा की रचनाओं को पढ़ते समय उनकी ये लंबी सी कविता पढ़ी थी। एक बार पढ़ने के बाद कविता इतनी पसंद आई थी कि कई कई बार पढ़ी और हर बार अंतिम पंक्तियों तक पहुँचते पहुँचते मन में एक टीस उभर आती थी। कविता तो सहेज कर रख ली थी और सोचा था कि इस साल बाल दिवस के अवसर पर आप तक इसे जरूर पहुँचाऊँगा पर पिछले दो हफ्तों में घर के बाहर रहने की वज़ह से ये कार्य समय पर संभव ना हो सका।
पाकिस्तान के इस मशहूर शायर और व्यंग्यकार की नज़्मों और कविताओं में एक ऐसी सादगी रहती है जिसके आकर्षण में क्या खास, क्या आम सभी खिंचे चले आते हैं। शेर मोहम्मद खाँ के नाम से लुधियाने में जन्मे इब्ने इंशा की गिनती एसे चुनिंदा कवियों में होती है जिन्हें हिंदी और उर्दू दोनों भाषाओं पर समान रूप से महारत थी। इसलिए कभी कभी उनकी रचनाओं को कविता या नज़्म की परिभाषा में बाँधना मुश्किल हो जाता है।
इब्ने इंशा ने ये कविता सत्तर के दशक में आए इथिपोया के अकाल में पीड़ित एक बच्चे का चित्र देख कर लिखी थी। बच्चे की इस अवस्था ने इब्ने इंशा जी को इतना विचलित किया कि उन्होंने उस बच्चे पर इतनी लंबी कविता लिख डाली।
सात छंदों की इस कविता में इब्ने इंशा बच्चे की बदहाली का वर्णन करते हुए बड़ी खूबी से पाठकों के दिलों को झकझोरते हुए उनका ध्यान विश्व में फैली आर्थिक असमानता पर दिलाते हैं और फिर वे ये संदेश भी देना नहीं भूलते कि विभिन्न मज़हबों और देशों की सीमाओं में बँटे होने के बावज़ूद हम सब उसी आदम की संताने हैं जिससे ये सृष्टि शुरु हुई थी। लिहाज़ा दुनिया का हर बच्चा हमारा अपना बच्चा है और उसकी जरूरतों को पूरा करने का दायित्व इस विश्ब की समस्त मानव जाति पर है।
(छायाकार : अमर पटेल)
इस कविता को पढ़ना अपने आप में एक अनुभूति है। शायद इसे पढ़ सुन कर आप भी इब्ने इंशा के ख़यालातों में अपने आप को डूबता पाएँ
1.
यह बच्चा कैसा बच्चा है
यह बच्चा काला-काला-सा
यह काला-सा मटियाला-सा
यह बच्चा भूखा भूखा-सा
यह बच्चा सूखा सूखा-सा
यह बच्चा किसका बच्चा है
यह बच्चा कैसा बच्चा है
जो रेत पे तन्हा बैठा है
ना इसके पेट में रोटी है
ना इसके तन पर कपड़ा है
ना इसके सर पर टोपी है
ना इसके पैर में जूता है
ना इसके पास खिलौनों में
कोई भालू है कोई घोड़ा है
ना इसका जी बहलाने को
कोई लोरी है कोई झूला है
ना इसकी जेब में धेला है
ना इसके हाथ में पैसा है
ना इसके अम्मी-अब्बू हैं
ना इसकी आपा-ख़ाला है
यह सारे जग में तन्हा है
यह बच्चा कैसा बच्चा है
2.
यह सहरा कैसा सहरा है
ना इस सहरा में बादल है
ना इस सहरा में बरखा है
ना इस सहरा में बाली है
ना इस सहरा में ख़ोशा (अनाज का गुच्छा) है
ना इस सहरा में सब्ज़ा है
ना इस सहरा में साया है
यह सहरा भूख का सहरा है
यह सहरा मौत का सहरा है
3.
यह बच्चा कैसे बैठा है
यह बच्चा कब से बैठा है
यह बच्चा क्या कुछ पूछता है
यह बच्चा क्या कुछ कहता है
यह दुनिया कैसी दुनिया है
यह दुनिया किसकी दुनिया है
4.
इस दुनिया के कुछ टुकड़ों में
कहीं फूल खिले कहीं सब्ज़ा है
कहीं बादल घिर-घिर आते हैं
कहीं चश्मा है कहीं दरिया है
कहीं ऊँचे महल अटरिया हैं
कहीं महफ़िल है, कहीं मेला है
कहीं कपड़ों के बाज़ार सजे
यह रेशम है, यह दीबा है
कहीं गल्ले के अंबार लगे
सब गेहूँ धान मुहय्या है
कहीं दौलत के सन्दूक़ भरे
हाँ ताम्बा, सोना, रूपा है
तुम जो माँगो सो हाज़िर है
तुम जो चाहो सो मिलता है
इस भूख के दुख की दुनिया में
यह कैसा सुख का सपना है ?
वो किस धरती के टुकड़े हैं ?
यह किस दुनिया का हिस्सा है ?
5.
हम जिस आदम के बेटे हैं
यह उस आदम का बेटा है
यह आदम एक ही आदम है
वह गोरा है या काला है
यह धरती एक ही धरती है
यह दुनिया एक ही दुनिया है
सब इक दाता के बंदे हैं
सब बंदों का इक दाता है
कुछ पूरब-पच्छिम फ़र्क़ नहीं
इस धरती पर हक़ सबका है
6.
यह तन्हा बच्चा बेचारा
यह बच्चा जो यहाँ बैठा है
इस बच्चे की कहीं भूख मिटे
{क्या मुश्किल है, हो सकता है)
इस बच्चे को कहीं दूध मिले
(हाँ दूध यहाँ बहुतेरा है)
इस बच्चे का कोई तन ढाँके
(क्या कपड़ों का यहाँ तोड़ा[अभाव] है ?)
इस बच्चे को कोई गोद में ले
(इन्सान जो अब तक ज़िन्दा है)
फिर देखिए कैसा बच्चा है
यह कितना प्यारा बच्चा है
7.
इस जग में सब कुछ रब का है
जो रब का है, वह सबका है
सब अपने हैं कोई ग़ैर नहीं
हर चीज़ में सबका साझा है
जो बढ़ता है, जो उगता है
वह दाना है, या मेवा है
जो कपड़ा है, जो कम्बल है
जो चाँदी है, जो सोना है
वह सारा है इस बच्चे का
जो तेरा है, जो मेरा है
यह बच्चा किसका बच्चा है ?
यह बच्चा सबका बच्चा है
22 टिप्पणियाँ:
ओह! सच मे बेहतरीन प्रस्तुति…………दिल को छू गयी।
आभार आपका । पहली बार पढ़ी। कई बार सुनी बहुत अच्छे तरीके से पढ़ी गई है सुनते-सुनते आँखे नम हो गई ,बहुत अच्छी आवाज मे सुनवाने का शुक्रिया..
कितने दिनों बाद इधर आया ? अफ़सोस लेकर ... पर यहाँ तो वही कशिश मौजूं है ...
कातिल को अपने घर ले के आ गया
पर मुंह फेर लेने से सच भाग नहीं जाता.....वो बच्चा कितने क्लोनो में बंटा है ....हर देश .हर राज्य हर गली में ....कहते है इश्वर ने मनुष्य को शायद संवेदना ओर संवाद के लिए भाषा इसलिए दी थी के वो इस समाज को ओर बेहतर कर सके ......पर अफ़सोस समाज के कई विभाजित हिस्से है .....हमारी आत्माओं की तरह .....कविता एक गहरी उदासी पीछे छोड़ जाती है ....
वास्तव में बेहतरीन कविता है. आपका आभार. हम तो अछूते रह गए होते.
मुझे यह कविता बहुत ही अच्छी लगी. यह दुनिया का बच्चा है पर हमारे देश मैं ऐसे लाखो-करोडो बच्चे है जिनका कोई नहीं है और यह हमारे समाज की सच्चाई है. क्या हमने कभी उन्हें अपना माना? शायद नहीं. इसलिए ही तो कविता में यह सबका होते हुए भी पराया सा एकेला लग रहा है. आपका प्रयास लाजवाब हैं. इस प्रयास के लिए आपका धन्यवाद. हम आज के ज़माने में भी कितने पीछे है यह इस कविता से स्पष्ट हो जाता है. यह हमारे समाज के दो वर्ग को तो परिभाषित करती ही है, इससे भी ज्यादा यह हमारे देश के दो हिस्सों को भी परिभाषित करती है- एक भारत (गरीब) और इंडिया (अमीर). हमारे आज़ाद भारत में कौन आज़ाद है?
धन्यवाद
हरेश परमार
www.hareshgujarati@gmail.com
www.hareshgujarati.blogspot.com
Thanks a lot for this blog post...
ओह !
आपने पढ़ा भी बिल्कुल दिल से है.
बहुत ही सुंदर प्रस्तुति..... हर तरह से उम्दा पोस्ट
बहुत ही बेहतरीन रचना है... दिल को अन्दर तक छू गई... बहुत-बहुत शुक्रिया इस बेहतरीन नज़्म से रूबरू करवाने के लिए...
कमाल है!
बहुत उम्दा !
अद्भुत!
बेहतरीन!
adibon aur shayaron ki jamat men bada naam hai aapke kahe shayar ka aur jo masla hai wo bhi sanjeeda hai aur zahir alfazon sang gehra utarta hai par kya isse wo bachcha sabka bachcha ho sakta hai.....????????
दिल को छुं गई यह कविता ..
इतनी मार्मिक कविता से रूबरू करवाने के लिए शुक्रिया !
निशब्दता की इस स्थिति में क्या कहूँ ????
आपका साधुवाद इस अनुपम पोस्ट के लिए...
"पर हमारे देश मैं ऐसे लाखो-करोडो बच्चे है जिनका कोई नहीं है और यह हमारे समाज की सच्चाई है. क्या हमने कभी उन्हें अपना माना?"
हरेश आप सही कह रहे हैं कि इस संसार में हम सभी अपनों को ही देख पाते हैं। अपनों से आगे सबको अपना समझने वाले भारत क्या कहीं भी गिनतियों में होंगे।
zahir alfazon sang gehra utarta hai par kya isse wo bachcha sabka bachcha ho sakta hai.....????????
प्रियंक कवि कर्ता तो नहीं होता पर अपने संवेदनशील चरित्र की वज़ह से मानवीय संवेदनाओं को उभार पाने में सफल रहता है। अब ये संवेदनाएँ किस हद तक हमारे व्यवहार और सोच में बदलाव लाती हैं ये तो हम पर निर्भर करता है।
Well done Manish ji.
वास्तव मे बेहतरीन पोस्ट। धन्यवाद बार बार पडःाने को मन चाहता है।
इब्ने इंशा जी की लिखी इस कविता ने मेरी तरह आप सब के दिलों को भी छुआ जान कर प्रसन्नता हुई।
कितने समय के बाद आ पाय इधर..और कितना कुछ जमा है पढ़ने-गुनने को..कि वक्त लगेगा..मगर ऐसी नज़्म फिर और कुछ पढ़ पाने की मोहलत कहाँ देती है..कविता को नायाब कहना अपनी अहमकी के मुँह पर तमाचे लगाने जैसा लगता है..
इस नज़्म से परिचय कराने का शुक्रिया मनीष जी...!
हम सभी को आईना दिखा गयी यह कविता ......
अपूर्व, कंचन व इन्द्रजीत आप सबको इब्ने इंशा जी की ये कविता पसंद आई जानकर खुशी हुई।
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