पिछले दो हफ्तों से मैं सा रे गा मा पा के अपने पसंदीदा प्रतिभागियों के बारे में लिखता आ रहा हूँ। स्निति और सुगंधा के बाद आज बारी थी इस साल के मेरे सबसे चहेते गायक रंजीत रजवाड़ा की। रंजीत के बारे में सोचकर मन में खुशी और दुख दोनों तरह के भाव आ रहे हैं। खुशी इस सुखद संयोग के लिए कि जब रंजीत की गायिकी के बारे में ये प्रविष्टि लिख रहा था तो मुझे पता चला कि आज ग़ज़लों के राजकुमार कहे जाने वाले इस बच्चे का अठारहवाँ जन्मदिन भी है। और साथ ही मलाल इस बात का भी कि रंजीत को सा रे गा मा पा में सुनने का सौभाग्य अब आगे नहीं मिलेगा क्यूँकि पिछले हफ्ते संगीत के इस मंच से उसकी विदाई हो गई।
पर इस बात का संतोष है कि हिंदी फिल्म संगीत के पार्श्वगायकों को मौका देने वाले सा रे गा मा पा के मंच ने एक ख़ालिस ग़ज़ल गायक को भी अपनी प्रतिभा हम तक पहुँचाने का मौका दिया। आज के मीडिया की सबसे बड़ी कमी यही है कि वे हमारी शानदार सांगीतिक विरासत और विभिन्न विधाओं में महारत हासिल किए हुए कलाकारों को सही मंच प्रदान नहीं करती। शास्त्रीय गायिकी हो या सूफ़ी संगीत, लोकगीत हों या भक्ति संगीत, ग़ज़लें हों या कव्वालियाँ इन्हें भी टीवी और रेडिओ के विभिन्न चैनलों में उतनी ही तवज़्जह की दरक़ार है जितने पुराने नग्मों और आज के हिंदी फिल्म संगीत को। पर मीडिया के संगीत व अन्य चैनल शीला की जवानी और मुन्नी की बदनामी से ही इतने परेशान है कि इस ओर भला उनका ध्यान कहाँ जा पाता है? जब तक संगीत की हमारी इस अनमोल विरासत को फ़नकारों के माध्यम से नई पीढ़ी तक नहीं पहुँचाया जाएगा ये उम्मीद भी कैसे की जा सकती है कि उनकी तथाकथित सांगीतिक अभिरुचि बदलेगी?
इसीलिए जब रंजीत को आडिशन के वक़्त ये दिल ये पागल दिल मेरा ....गाने पर भी चुन लिया गया तो मुझे बेहद खुशी हुई। सा रे गा मा पा में उनका सफ़र और उम्दा हो सकता था अगर माननीय मेन्टरों ने उनकी प्रतिभा से न्याय करते हुए उन्हें सही गीत या ग़ज़लें दी होतीं। आज का युग विशिष्टताओं का युग है। गायिकी के इस दौर में रफ़ी, किशोर , मन्ना डे जैसे हरफ़नमौला गायक आपको कम ही मिलेंगे। पिछले दशक के जाने माने गायकों जैसे सोनू निगम, अभिजीत, उदित नारायण, कुमार शानू, अलका याग्निक, कविता कृष्णामूर्ति फिल्मों में कम और स्टेज शो में ज्यादा सुने जाते है। आज तो हालात ये हैं कि हर नामी संगीतकार खुद ही गायक बन बैठा है। विशाल भारद्वाज, विशाल, शेखर, सलीम,शंकर महादेवन इसकी कुछ जीती जागती मिसालें हैं। इन कठिन हालातों में सिर्फ उन गायकों के लिए पहचान बनाने के अवसर हैं जिनकी गायन शैली विशिष्ट है। सूफ़ियत का तड़का लगाना हो तो राहत फतेह अली खाँ, शफ़क़त अमानत अली, कैलाश खेर, रेखा भारद्वाज,ॠचा शर्मा सरीखी आवाज़ों का सहारा लिया जाता है। ऊँचे सुरों वाले गीत हों तो फिर सुखविंदर और दलेर पाजी अपना कमाल दिखला जाते हैं। मीठे सुर तो श्रेया घोषाल और हिप हॉप तो सुनिधि चौहान। जो जिस श्रेणी में अव्वल है उससे वैसा ही काम लिया जा रहा है।
सा रे गा मा पा के मंच से जब रंजीत रजवाड़ा ने गुलाम अली की तीन चार ग़ज़लें बड़ी काबिलियत से गा लीं तो हमारे मूर्धन्य संगीतकार विशाल जी को लगा कि उनके गायन में कोई विविधता नहीं है। बताइए विविधता की बात वो शख़्स कर रहा है जो खुद सिर्फ हिप हॉप वाले वैसे गीतों को गाता रहा है जिसमें खूब उर्जा (बहुत लोगों को लगेगा कि शोर सही शब्द है) की आवश्यकता होती है। अगर रजवाड़ा से विविधता के नाम पर गुलाम अली के अलावा अन्य मशहूर ग़ज़ल गायकों या पुरानी हिंदी फिल्मों की ग़ज़लें गवाई जाती तो ये फ़नकार समा बाँध देता पर उन्हें कहा गया कि हारमोनियम छोड़ कर कुछ दूसरी तरह का गीत चुनिए। लिहाज़ा रंजीत ने कुछ फिल्मी गीतों पर भी मज़बूरन हाथ आज़माया। नतीजा सिफ़र रहा। वो तो उनकी ग़ज़ल गायिकी से मिल रही लोकप्रियता थी जो उन्हें इतनी साधारण प्रस्तुति के बाद भी बचा ले गई।
रंजीत राजस्थान के एक निम्न मध्यम वर्गीय परिवार से ताल्लुक रखते हैं। पिता को संगीत का शौक था पर संगीत के क्षेत्र में कुछ करने की ललक को वो फलीभूत ना कर सके। पर बेटे में जब उनको वो प्रतिभा नज़र आई तो उन्हें लगा कि जो वो अपनी ज़िदगी में ना कर पाए शायद बेटा कर दे। रंजीत ने भी होटल में काम करने वाले अपने पिता को निराश नहीं किया। चिरंजी लाल तनवर से संगीत सीख रहे रंजीत ने पहले छोटी मोटी प्रतियोगिताएँ जीती और फिर 2005 में तत्कालीन राष्ट्रपति से बालश्री का खिताब पाया। अगले साल आल इंडिया रेडियो द्वारा भी सर्वश्रेष्ठ गायक का ईनाम भी जीता। लता दी और सोनू निगम जैसे माने हुए कलाकार उन्हें यहाँ आने से पहले सुन चुके हैं। अगर आपने अभी तक रंजीत को गाते देखा सुना नहीं तो ये काम अवश्य करें।
दिखने में दुबले पतले और दमे की बीमारी से पीड़ित जब रंजीत गाते हैं तो एक ओर तो हारमोनियम पर उसकी ऊँगलियाँ थिरकती हैं तो दूसरी तरफ़ ग़ज़ल की भावनाओं के अनुरूप उसकी आँखों की पुतलियाँ। रंजीत ने ग़ज़ल गायिकी के पुराने स्वरूप को बड़े सलीके के साथ इन चंद हफ्तों में संगीत प्रेमी जनता तक पहुँचाने का जो काम किया है, उसके लिए उनकी जितनी प्रशंसा की जाए कम है। आज अंतरजाल पर जगह जगह लोग रंजीत रजवाड़ा की गायिकी की मिसालें देते नहीं थक रहे हैं और खुशी की बात ये है कि इसका बहुत बड़ा हिस्सा वैसे युवाओं का है जिन्होंने ग़ज़ल को कभी ठीक से सुना ही नहीं।
सा रे गा मा पा के इस सफ़र में रंजीत ने ज्यादातर अपने पसंदीदा ग़ज़ल गायक गुलाम अली की ग़ज़लें गायीं। हंगामा हैं क्यूँ बरपा थोड़ी सी जो पी ली है...., चुपके चुपके रात दिन आँसू बहाना याद है..., ये दिल ये पागल दिल मेरा.... , आज जाने की जिद ना करो... इन सब की प्रस्तुतियों में उन्होंने खूब तालियाँ बटोरी पर मुझे उनकी सबसे बेहतरीन प्रस्तुति तब लगी जब उन्होंने याद पिया की आए गाया। रघुबीर यादव के सम्मुख गाए इस गीत में रंजीत को दीपक पंडित की वॉयलिन और बाँसुरी पर पारस जैसे नामी साज़कारों के साथ गाने का मौका मिला और उन्होंने इस अवसर पर अपने सुरों में कोई कमी नहीं होने दी। तो सुनिए रंजीत की ये प्रस्तुति
रंजीत आपको एक बार फिर से अपने अठारहवें जन्मदिन की बधाई। मेरी शुभकामना है आप ग़ज़ल गायिकी में जिस मुकाम पर इतनी छोटी उम्र में पहुँचे हैं उसमें आप खूब तरक्की करें और रियाज़ के साथ साथ अपने स्वास्थ का भी ध्यान रखें।
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12 टिप्पणियाँ:
रणजीत में अद्भुत प्रतिभा है ...इतनी कम उम्र में गुलाम अली जी गजलों को इतने खूबसूरत अंदाज़ में गाते हुए उन्हें देखना बहुत ही अच्छा लग रहा था ...इस मंच में चाहे वो पिछड़ गए हों , मगर उनके लिए कामयाबी की राहें बहुत है ...
जन्मदिन की हार्दिक शुभकामनायें !
यक़ीनन रंजीत बहुत काबिल बच्चा है..... बहुत अच्छा लगा उसे सुनकर ...
उसे जन्मदिन की शुभकामनायें ........
इस लड़के से में भी प्रभावित हुआ था.... इसके उच्चारण असर करते हैं... होंठ तीखे भागते हैं और आवाज़ दिल में उतरती है...
आपके एक एक शब्द में मैं अपने शब्द मिलाती हूँ...बिलकुल सही कहा आपने..अपने देश में प्रतिभाओं की कमी नहीं,पर फ़िल्मी और शोर शराबे वाले गीतों के अतिरिक्त गीत गाने वालों को वह स्थान और मंच उतनी सुगमता से नहीं मिलता जितना इन्हें मिलता है...
रणजीत,स्निती या इन जैसे अन्य बच्चों को देखकर मन आह्लादित हो जाता है और इनके लिए भर भर कर आशीर्वाद मन से निकलता है..
इन बच्चों ने आज एक औसत बच्चे जो ग़ज़ल,शाश्त्रीय या अन्य गंभीर विधाओं में गाने वालों को उपहास से देखते थे, के प्रति उत्सुकता भर दी है और उनका रुझान इस और हो रहा है.यदि मिडिया इन्हें सही स्थान और प्रोत्साहन दे तो अगली पीढ़ियों की रूचि भी परिस्कृत हो पायेगी...
बहुत बहुत आभार आपका इस सुन्दर प्रस्तुति के लिए..
बहुत दुःख हुआ कि रणजीत अब सा रे गा मा पा पर सुनने को नहीं मिलेga ... मगर इस कमाल के फनकार को ज्यादा दिन तक कोई रोक नहीं पायेगा ! रणजीत को उसके १८ वें जन्म दिन पर बहुत बधाई
अर्श
अजी हम तो टी वी देखते ही नही, फ़िर हमे केसे पता चले, आप का धन्यवाद इस जानकारी देने के लिये, धन्यवाद
मैं इस सीजन को जब भी देखा हूँ, सिर्फ इसे ही देखने के लिए.. अब नहीं देखूंगा..
आप सही फ़रमातें हैं.
१८ वर्षीय रणजीत रजवाड़े के गायन के हम भी प्रशंसक हैं .
पहले कभी यू ट्यूब पर भी उनको सुना था.
सा रे गा मा पा प्रोग्राम में भी इन्हीं को हम अधिक सुनना पसंद करते हैं.
सुकून भरी गायकी.
आभार.
रंजीत को जन्मदिन की शुभकामनाएं.
मनीषजी यह सच है कि हमारें यहाँ प्रतिभाएं उस तरह से नहीं उभर पाती हैं जैसे की उसे उभरकर सामने आना चाहिए,आज ही मैं चेतन भगत के एक लेख को पढ़ रहा था और वो भी यही कह रहे थे हालाँकि उनका विषय फेसबुक के युवा उद्यमी की और था और उनका कहना था कि यह सिर्फ अमेरिका में ही संभव है.लेकिन क्या करें हम भारतीय ऐसे ही हैं.सा रे गा मा से किसी न किसी कि बिदाई तो तय ही है.इस मोड़ पर तो किसी का भी जाना अखरेगा.रंजीत का जाना भी अखर रहा है खासकर ग़ज़ल गायकी को लेकर.यह भी सच है कि रंजीत ने अधिकांश ग़ज़लें गुलाम अली की ही गाई हैं.उसे सुनते हुए मुझे लगता था कि इससे बेगम अख्तर,मेहदी हसन,तलत महमूद आदि को भी सुना जाए पर पता नहीं यह गुरु लोग यह क्यों नहीं महसूस कर पाए.
खैर रंजीत अभी आसमान बाकी है.
very true, vividhta apni jagah hai par mahiri ko bhi tarjeeh di jani chahiye.... Ranjeet undoubtedly..superb with gazals but the so called gurus are commercialized minds so he had to suffer ....
RANJIT IS MASTER. WHAT ELSE CAN I SAY? HE HAS ENORMOUS TALENT. AND HIS PERFECTION IN THE ART OF DELIEVERING `SHERS` DEMANDS MORE AND MORE APPRECIATION. APNI AWAAZ KI LARZISH PE GAR PA BHEE LE WO KABU APNE DILKASH ANDAAZ-E-BAYAAN KI DAWA KYA KAREGA BEST WISHES FOR FUTURE
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