गीत के मूल लेखक गया प्रसाद प्रजापति व गीतकार स्वानंद किरकिरे की तारीफ़ करनी होगी की चंद पंक्तियों में उन्होंने मँहगाई के चलते देश के आम नागरिकों और विशेषकर किसानों को हो रही परेशानियों को इस तरह छुआ कि ये गीत पूरे देश की आवाज़ बन गया। गीत के पहले अंतरे में जहाँ वो बढ़ती मँहगाई से हो रही गरीबों की दुर्दशा का चित्रण करते हैं
हर महिना उछले पेट्रोल
डीजल का उछला है रोल
शक्कर भाई के का बोल
रूसा भात, माटी धान हमारी जान है
मँहगाई डायन खायत जात है.वहीं दूसरे अंतरे में वे अप्रत्याशित बदलते मौसमों की वज़हों से हो रही फसलों की तबाही और किसानों पर आए संकट को भी बखूबी व्यक्त करते हैं...
सोयाबीन का हाल बेहाल
गरमी से पिचके हैं गाल
गिर गए पत्ते, पक गए बाल
और मक्का जी भी खाए गए मात हैं
मँहगाई डायन खायत जात है.
संगीतकार राम संपत ने इस गीत में बस ये ध्यान रखा कि गाँव की चौपालों या कीर्तन मंडलियों के साथ जिस तरह का संगीत बजता है उससे तनिक भी छेड़ छाड़ ना की जाए। इसलिए आपको गीत के साथ सिर्फ ढोलक, झाल, मजीरे और हारमोनियम का स्वर सुनाई देता है। बिलकुल वैसा ही जैसा आपने अपने गली मोहल्ले में सुना होगा।
पर मुझे गीत के असली हीरो लगते हैं चरित्र अभिनेता रघुवीर यादव। रघुबीर यादव ने जिस अंदाज़ में इस गीत को अपनी आवाज़ दी है उससे लोगों को यही लगेगा कि कोई मँजा हुआ लोकगायक गा रहा है। वैसे दिलचस्प बात ये कि इस गीत को रात में खुले आसमान के नीचे रिकार्ड किया गया था। गीत में कुछ विविधताएँ रघुवीर जी ने खुद जोड़ी थीं और गीत बिना किसी रीटेक के ही ओके कर लिया गया था।
आपको ये जानकर हैरानी होगी कि फिल्म मैसी साब और टीवी धारावाहिक मुँगेरी लाल के हसीन सपने से अपने कैरियर के आरंभिक दिनों में चर्चा में आया ये शख़्स वास्तव में जबलपुर के एक किसान परिवार से ताल्लुक रखता है। और तो और पन्द्रह साल की उम्र में जब रघुवीर अपने गाँव को छोड़कर निकले थे तो अभिनेता बनने नहीं बल्कि एक गायक के रूप में अपना कैरियर बनाने के लिए।
पर भाग्य को कछ और मंजूर था। रोज़ी रोटी के जुगाड़ में पहले उन्होंने एक पारसी थिएटर कंपनी में छः सालों तक काम किया। फिर तीन साल नेशनल स्कूल और ड्रामा में और अध्ययन करने के बाद वो एक दशक तक वहाँ पढ़ाते रहे। फिर फिल्मों में काम मिलना शुरु हुआ तो गायक बनने का ख़्वाब, ख़्वाब ही रह गया। पर आज भी उन्हें संगीत से प्यार है क्यूँकि अच्छा संगीत उन्हें मन की शांति देता है। एक कलहपूर्ण दामपत्य जीवन की वज़ह से कोर्ट,कचहरी और यहाँ तक कि जेल की हवा खा चुकने वाले रघुवीर यादव को पीपली लाइव में अभिनय के आलावा गायिकी के लिए जो वाहवाही मिल रही है वो उन जैसे गुणी कलाकार के लिए आगे भी सफलता की राह खोलेगी ऐसी मेरी मनोकामना है।
आइए फिलहाल तो सुनते हैं ये गीत।
चलते चलते गीत से जुड़े दो रोचक तथ्य और। फिल्म वैसे तो एक काल्पनिक गाँव पीपली की कहानी कहती है पर इस इस गीत के साथ जो गायन मंडली है वो मध्यप्रदेश की राजधानी भोपाल के पास स्थित गाँव बदवाई से ताल्लुक रखती है। वहीं इस फिल्म की शूटिंग भी हुई। फिल्म की लोकप्रियता बढ़ने पर इस गाँव के लोगों ने फिल्म के निर्माता आमिर से अस्पताल, विद्यालय, सड़क की माँग नहीं की बल्कि एक अभिनय सिखाने वाले संस्थान खोलने की पेशकश की। शायद गायन मंडली को बतौर पारिश्रमिक मिले छः लाख रुपए इसकी वज़ह रहे हों।
7 टिप्पणियाँ:
sundar lok geet
close to relaity
शानदार मुझे तो लग रहा था इसका नोम्बर भी आएगा की नहीं..बरहाल..महंगाई दें का भी नोम्बर आया.......
भाई यह गीत बहुत ही पसंद आया, लेकिन बहुत छोटा हे, गीत सुन कर लगता हे जेसे हम भी वही बेठे हो धन्यवाद
रघुवीर जी ने गाया है ये गाना ये तो मुझे आज आपसे ही पता लगा
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गीत बहुत प्रसिद्ध हुआ। कर्ण प्रिय और रोचक भी है। मगर इसी फिल्म का चोला माटी के राम मुझे लोकगीत के खाटीपन की कसौटी पर अधिक खरा लगता है।
राज जी पहले गीत की लंबाई इससे ज्यादा थी पर फिल्म के संपादन के वक़्त इसमें काँट छाँट की गई जिससे ये इस रूप में रह गया।
गीत का तो क्या कहना....
रघुवीर जी के एक्टिंग को जितना स्थान मिला है, गायन को भी वह अवसर मिले तो समय सिद्ध करेगा की जितने मंजे हुए वे अभिनेता हैं उससे तनिक भी कम गायक नहीं...विशेषकर लोकगीत उनकी आवाज में अद्भुद प्रभाव छोड़ते हैं...
मिट्टी से जुड़े ऐसे कलाकारों के लिए मन में बड़ा आदार भाव आता है...उनके सुन्दर भविष्य की मनोकामना है...
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