शुक्रवार, अप्रैल 15, 2011

जो लहरों से आगे नज़र देख पाती तो तुम जान लेते मैं क्या सोचता हूँ :फिल्म उड़ान की कविताएँ

क्या आपको विगत वर्षों में कोई हिंदी फिल्म याद आती है जिसमें हिंदी कविताओं का व्यापक प्रयोग हुआ हो। नहीं ना ! हाँ ये जरूर है कि हिंदी फिल्म संगीत में रुचि रखने वालों को गुलज़ार, जावेद अख्तर, प्रसून जोशी, स्वानंद किरकिरे, इरशाद क़ामिल और अमिताभ भट्टाचार्य सरीखे गीतकारों की वज़ह से काव्यात्मक गीत आज भी बीच बीच में सुनने को मिल जाते हैं। अक्सर ऐसा ना होने का ठीकरा फिल्मवाले आज की पीढ़ी पर मढ़ देते हैं जो उनके ख़्याल से हिप हॉप के आलावा कुछ सुनना ही नहीं चाहती। दरअसल ये तर्क देते हुए वे अपनी इस कमज़ोरी को छुपा जाते हैं कि आज की तमाम फिल्मों की पटकथा व किरदारों का चरित्र चित्रण इतना ढीला होता है कि मानव मन की सूक्ष्म भावनाओ को उभारने वाले गीतों की गुंजाइश ही नहीं रह जाती।

मैं तो यही कहूँगा कि जब जब किसी निर्देशक ने ऐसी चुनौती हमारे गीतकारों के समक्ष रखी है वो इस चुनौती को पूरा करने में सफल रहे हैं। पिछले साल जुलाई में प्रदर्शित उड़ान एक ऐसी ही फिल्म थी जहाँ ये अवसर लेखक व गीतकारों को मिला। फिल्म का किशोर किरदार 'रोहन' एक लेखक बनना चाहता है पर उसके पिता पूरी कोशिश करते हैं कि पुत्र ऐसे वाहियात ख्याल को अपने दिमाग से निकाल कर इंजीनियरिंग जैसे प्रतिष्ठित कैरियर में अपना दम खम लगाए। युवा निर्देशक विक्रमादित्य मोटवाने ने 'रोहन' के मन की हालत को व्यक्त करने के लिए जिन कविताओं को पसंद किया वो फिल्म के साथ साथ उसी युवा वर्ग द्वारा खूब सराही गयीं जिन्हें आज कविताओं से दूर बताया जाता रहा है।

अगर आपने ये फिल्म देखी है तो इन कविताओं को भी सुना होगा। पर क्या आप जानते हैं कि फिल्म में प्रयुक्त कविताओं को लिखने वाला कवि कौन था? ये कविताएँ लिखी थीं सत्यांशु सिंहकुमार देवांशु ने। सत्यांशु सिंह एक लेखक और कवि तो हैं ही, विश्व व भारतीय सिनेमा पर उनकी पैनी नज़र रहती है। फिल्मों से अपने प्रेम को वो अपने ब्लॉग सिनेमा हमेशा के लिए है (Cinema is forever)! पर व्यक्त करते रहते हैं। सत्यांशु के बारे में एक दिलचस्प बात ये भी है कि इन्होंने 2003 मेंAFMC पुणे में दाखिला लिया। पर 2008 में MBBS की पढ़ाई पूरी करने के बाद उन्हें लगा कि डॉक्टरी के बजाए लेखन ही ज्यादा संतोष दे सकता है और वो इस में अपना कैरियर बनाने मुंबई आ गए।


वैसे सत्यांशु जब निर्देशक विक्रमादित्य मोटवाणे के पास गए तो उन्होंने उड़ान शीर्षक से अपनी एक कविता सुनाई। कविता तो खूबसूरत थी पर पटकथा में उसका जुड़ाव संभव ना हो पाने के कारण वो फिल्म का हिस्सा नहीं बन पाई। पूरी कविता तो आप उनकी इस ब्लॉग पोस्ट पर पढ़ सकते हैं पर इस कविता का एक छंद जो मुझे बेहद प्रिय है यहाँ आपके साथ साझा करना चाहता हूँ।


ओस छिड़कती हुई भोर को पलकों से ढँक कर देखा है,
दिन के सौंधे सूरज को इन हाथों में रख कर देखा है,
शाम हुयी तो लाल-लाल किस्से जो वहाँ बिखर जाते हैं,
गयी शाम अपनी ‘उड़ान’ में मैंने वो चख कर देखा है.

है ना लाजवाब पंक्तियाँ!

अक्सर माँ बाप किशोरों पर अपनी पसंद नापसंद थोप देते हैं। उन्हें लगता है कि दुनिया ज़हान का सारा अनुभव उन्हें अपनी ज़िंदगी से मिल चुका है। इसलिए अपनी सोच से इतर वो कुछ सुनना समझना नहीं चाहते, खासकर तब, जब ऍसा कोई विचार उन्हें अपने बच्चों द्वारा सुनने को मिलता है। ऐसे हालात किशोरों की मनःस्थिति पर क्या असर डालते हैं ये सत्यांशु ने रोहन के किरदार के माध्यम से बखूबी कहलाया है।



जो लहरों से आगे नज़र देख पाती तो तुम जान लेते मैं क्या सोचता हूँ
वो आवाज़ तुमको भी जो भेद जाती तो तुम जान लेते मैं क्या सोचता हूँ
जिद का तुम्हारे जो पर्दा सरकता तो खिड़कियों से आगे भी तुम देख पाते
आँखों से आदतों की जो पलकें हटाते तो तुम जान लेते मैं क्या सोचता हूँ

मेरी तरह खुद पर होता ज़रा भरोसा तो कुछ दूर तुम भी साथ-साथ आते
रंग मेरी आँखों का बांटते ज़रा सा तो कुछ दूर तुम भी साथ-साथ आते
नशा आसमान का जो चूमता तुम्हें भी, हसरतें तुम्हारी नया जन्म पातीं
खुद दूसरे जनम में मेरी उड़ान छूने कुछ दूर तुम भी साथ-साथ आते

सत्यांशु की कविता युवाओं में इतनी लोकप्रिय हुई क्यूँकि उसकी भावनाएँ कहीं ना कहीं उनके दिल के तारों को छू कर निकलती थीं। इस कविता का एक और हिस्सा भी है जो फिल्म में नहीं था

मीठी-सी धुन वो तुम्हें क्यूँ बुलाती नहीं पास अपने, पड़ा सोचता हूँ;
थाम हाथ लहरें कहाँ ले चलेंगी - रेत पर तुम्हारे खड़ा सोचता हूँ;
खोल खिड़कियाँ जब धूप गुदगुदाए, क्यूँ नींद में पड़े हो, क्या ख्वाब की कमी है?
अखबार और बेड-टी के पार भी है दुनिया - मैं रोज़ इन सवेरों में गड़ा सोचता हूँ.

तो चलिए सुनते हैं 'रोहन' की आवाज़ में उड़ान फिल्म की ये कविताएँ...

आज की हिंदी कविता की प्रासंगिकता पर समय समय पर वाज़िब प्रश्न उठते रहे हैं। इस युग की कविता का शिल्प विस्तृत हुआ है, कविताओं में व्यक्त विचारों की गहनता बढ़ी है। पर साथ ही साथ उसकी क्लिष्टता और रसहीनता ने उसे आम जनों से बहुत दूर सिर्फ साहित्यकार मंडली की शोभा मात्र बना दिया है। उडान की इन कविताओं की लोकप्रियता ने फिर ये स्पष्ट कर दिया है कि अगर कविताएँ पाठकों के सरोकारों से जुड़ी हों और सहज भाषा में कही गई हों तो उन्हें पढ़ने वालों की कमी नहीं रहेगी।

चलते चलते पेश हैं उड़ान फिल्म की ये कविता जो मन में एक नई आशा का संचार करती चलती है...


छोटी-छोटी छितराई यादें बिछी हुई हैं लम्हों की लॉन पर
नंगे पैर उनपर चलते-चलते इतनी दूर आ गए
कि अब भूल गए हैं...जूते कहाँ उतारे थे

एड़ी कोमल थी, जब आए थे थोड़ी सी नाज़ुक है अभी भी
और नाज़ुक ही रहेगी इन खट्टी‍-मीठी यादों की शरारत
जब तक इन्हें गुदगुदाती रहे

सच, भूल गए हैं  जूते कहाँ उतारे थे
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15 टिप्पणियाँ:

Pooja Singh on अप्रैल 15, 2011 ने कहा…

maine film dekhi hai aur mujhe kavita bhi achhi lagi thi....par kavi k bare me nahi pata tha shukriya share karne ke liye....

डा० अमर कुमार on अप्रैल 15, 2011 ने कहा…


अय हय हय.. युग युग जियो मनीष जी ! मैं यह कविता बड़ी शिद्दत से ढूँढ़ रहा था.. सोचा कि किससे सम्पर्क करूँ.. आप स्वतः मदद को आगये । आनन्दम... अहाहा किम आनन्दम ।
.

daanish on अप्रैल 15, 2011 ने कहा…

yahaaN pahunch kar
achhaa lagaa ... !

Abhishek Ojha on अप्रैल 15, 2011 ने कहा…

सत्यांशु सिंह की कहानी मुंबई में १ महीने पहले एक दोस्त ने सुनाई थी. और फिर मैं उनका नाम भी भूल गया था. कई दिनों से सोच रहा था सर्च करूँगा, आपने आज सब कुछ बता दिया. उत्कृष्ट पोस्ट है ये. कमाल हैं आप भी.

मीनाक्षी on अप्रैल 15, 2011 ने कहा…

अभी तक उड़ान फिल्म देख नही पाए... आपकी पोस्ट ने फिर याद दिला दिया...ऑनलाइन ही इसे देखने का कोई उपाय खोज रहे है... डॉक्टर से लेखक बनने की यात्रा माता पिता के लिए तकलीफदेह तो है लेकिन बच्चो की खुशी के लिए कुछ भी स्वीकार है...

rashmi ravija on अप्रैल 15, 2011 ने कहा…

मनीष जी..कोटिशः धन्यवाद....उस फिल्म में रोहन की कविताओं की छिटपुट पंक्तियाँ...हमेशा मन में गूंजती रहतीं...पर पूरी की पूरी याद नहीं आतीं...मैने जब इस फिल्म के बारे में यहाँ(http://rashmiravija.blogspot.com/2010/08/blog-post.html) .लिखा था...तो अपनी पोस्ट में जिक्र भी किया था...'काश वे कविताएँ मुझे याद रह जातीं '

बहुत ही अच्छी फिल्म थी उड़ान...और उन कविताओं के रचयिता से मिलाकर बहुत ही नेक कार्य किया है...शुक्रिया

Udan Tashtari on अप्रैल 16, 2011 ने कहा…

वाह मनीष भाई....आनन्द आ गया इस पोस्ट में कवितायें पढ़ सुन कर.

डॉ .अनुराग on अप्रैल 16, 2011 ने कहा…

यक़ीनन ऐसे लोग फ़िल्मी दुनिया में बेहद जरूरी है ....लम्बे समय से रचनात्मक वेक्यूम है

राज भाटिय़ा on अप्रैल 17, 2011 ने कहा…

बहुत सुंदर लगी यह कविता, फ़िल्म तो हम नही देख पाये अभी तक

Manish Kumar on अप्रैल 17, 2011 ने कहा…

अनुराग : संत्याशु की रुचियाँ देखकर आपकी शख़्सियत दिमाग में आ रही थी। डॉक्टरी..देश विदेश के सिनेमा से प्रेम और कलम की जादूगरी ..बस फर्क सिर्फ इतना है कि प्रोफेशन में रहते हुए आप ऐसा कर रहे हैं।

Manish Kumar on अप्रैल 24, 2011 ने कहा…

सत्यांशु की कविता आप सबको पसंद आई जानकर खुशी हुई। पूजा, अमर जी, राज जी, रश्मि जी, समीर जी, मीनाक्षी जी, अभिषेक व दानिश भाई आप सबका शुक्रिया अपने विचार प्रकट करने के लिए।

रंजना on अप्रैल 29, 2011 ने कहा…

यह फिल्म मेरे मन के कितने निकट है...क्या कहूँ...

जब फिल्म में यह कविता सुनी थी, बड़ी जिज्ञासा हुई थी की किसने लिखी है यह कविता...

थैंक्स, जिज्ञासा समाधित करने के लिए...

Dhruva on अगस्त 03, 2012 ने कहा…

I want to read more poems from satyanshu.Can any one please give me the links.
There is a truth in his poem which i feel closer to my heart.

Susmita ने कहा…

Aise hi kitne jooton ne kitne hi masoom sapnon ko udne na diya.....achha hi hua jo kuchh naunihalon me abhi bhi itna dam hai ki wo bhool saken khudse ki unhone wo " joote kahan utare they... " .

mb on फ़रवरी 13, 2020 ने कहा…

9 saal ho gaye. 😊

 

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