जगजीत सिंह के ग़ज़लों के सफ़र को देखें तो पाएँगे कि नब्बे के दशक में ज्यादातर एलबमों का मूड रूमानी ना होकर दार्शनिक हो गया था। शायद इसकी एक वज़ह उनका अपने जवान पुत्र को दुर्घटना की वज़ह से एकदम से खो देना था। इस हादसे के बाद चित्रा जी ने भी जगजीत के साथ गाना छोड़ दिया। जगजीत जी के नए एलबमों में दीन दुनिया और जीवन के अन्य पहलुओं की बात ज्यादा होने लगी। आइए आज देखते हैं कि उन्होंने अपनी ग़ज़लों और नज़्मों के माध्यम से उस 'ज़िंदगी' के बारे में क्या कहा जिससे हम सभी रूबरू होते रहते हैं।
ज़िंदगी के फलसफ़े को जिस खूबी से निदा फ़ाज़ली साहब ने अपनी नज्म (जिसे मैं जगजीत सिंह की दस शानदार नज़्मों में शामिल कर चुका हूँ) में उतारा है उससे बेहतर मिसाल ढूँढना कम से कम मेरे लिए तो मुश्किल है। पूरी नज्म तो उस पोस्ट पर आप यहाँ देख सकते हैं पर आपको उस नज़्म की याद दिलाने के लिए उसकी आरंभिक पंक्तियाँ कुछ यूँ रहीं...
ये ज़िन्दगी..ये ज़िन्दगी..
तुम्हारी आवाज़ में ग़ले से निकल रही है
तुम्हारे लफ़्ज़ों में ढल रही है
ये ज़िन्दगी.. ये ज़िन्दगी ..
ये ज़िन्दगी
जाने कितनी सदियों से
यूँ ही शक्लें, बदल रही है
ये ज़िन्दगी.. ये ज़िन्दगी ..
नब्बे के दशक में दूरदर्शन पर एक धारावाहिक आया था 'हैलो ज़िंदगी'। धारावाहिक के बारे में तो मुझे कुछ याद नहीं रहा पर उसका शीर्षक गीत जो कि इक नज़्म की शक़्ल में था मैं कभी भुला नहीं पाया। आखिर ज़िंदगी के बारे में अपने गुलज़ार साहब गर अपनी राय ज़ाहिर करें तो कुछ खास तो होगा ना...
है लौ ज़िंदगी ज़िंदगी नूर है
मगर इस पे जलने का दस्तूर है
अधूरे से रिश्तों में पलते रहो
अधूरी सी साँसो में जलते रहो
मगर जिए जाने का दस्तूर है
लगभग एक दशक के बाद आज से पाँच साल पहले जगजीत के साथ गुलज़ार का दूसरा एलबम आया था 'कोई बात चले'। उस एलबम में इसी मतले पर एक ग़ज़ल कही थी गुलज़ार साहब ने। गर जिंदगी रूपी नौका की खिवैया में किनारा मिलना बहुत मुश्किल जान पड़े तो फिर राह में आते इन भँवरों से डर कर क्या रहना... सो गुलज़ार साहब फरमाते हैं
भँवर पास है चल पहन ले इसे
किनारे का फंदा बहुत दूर है
है लौ ज़िंदगी ज़िंदगी नूर है
मगर इस पे जलने का दस्तूर है
1993 में जगजीत का एक एलबम आया था 'फेस टू फेस' (Face to Face) जिसकी शानदार नज़्म सच्ची बात कही थी मैंने आप पहले ही इस श्रृंखला में सुन चुके हैं। इसी एलबम में जगजीत जी ने दो ऐसी ग़ज़लों को चुना था जिसमें जिंदगी की ज़द्दोज़हद से उपजी हताशा साफ मुखरित होती थी। पहली ग़ज़ल थी जनाब राजेश रेड्डी साहब की जिसमें वे कहते हैं..
ज़िन्दगी तूने लहू ले के दिया कुछ भी नहीं
तेरे दामन में मेरे वास्ते क्या कुछ भी नहीं
मेरे इन हाथों की चाहो तो तलाशी ले लो,
मेरे हाथों में लकीरों के सिवा कुछ भी नहीं
जगजीत जी की खास बात ये थी कि उन्होंने अपने एलबमों में ग़ज़लों का चुनाव करते वक़्त सिर्फ उसका मज़मून देखा , शायरों के नाम पर नहीं गए। यही वज़ह रही कि उन्होंने ऍसे शायरों की ग़ज़लें भी ली जो ज्यादा सुने या पढ़े गए ना हों। एलबम 'फेस टू फेस' में ऐसी ही एक ग़ज़ल थी जनाब जक़ा सिद्दिकी की।
जक़ा उर्दू हलकों में अपनी किताब आमदनामा, आज की शब फिर सन्नाटा और मक़तूब- ए- हबीब (पत्रों का संग्रह) के लिए जाने जाते हैं। जक़ा की इस गज़ल में जिंदगी से टपकता नैराश्य चरम पर है। इतना कि ज़का के लिए जीते रहना एक सज़ा से कम नहीं है। दरअसल कभी कभी निराशा के भँवर से निकलने का सबसे अच्छा तरीका यही होता है कि अपने दिल में जमे गुबार को हम बाहर निकाल दें। शायद यही वज़ह हैं कि जब हम खुद ऐसे मूड में होते हैं तो ऍसी ग़ज़लों को सुनकर लगता है कि कोई तो हमारे दिल की बात समझ रहा है। जगजीत ने इस ग़ज़ल को गाकर ज़का साहब की इस कृति को हमारी यादों के तहखाने में हमेशा हमेशा के लिए सुरक्षित कर दिया है। तो आइए सुनते हैं जगजीत की आवाज़ में ये शानदार ग़ज़ल
जीते रहने की सज़ा दे ज़िंदगी ऐ ज़िंदगी
अब तो मरने की दुआ दे ज़िंदगी ऐ ज़िंदगी
मैं तो अब उकता गया हूँ क्या यही है क़ायनात
बस ये आईना हटा दे ज़िंदगी ऐ ज़िंदगी
ढूँढने निकला था तुझको और ख़ुद को खो दिया
तू ही अब मेरा पता दे ज़िंदगी ऐ ज़िंदगी
या मुझे अहसास की इस क़ैद से कर दे रिहा
वर्ना दीवाना बना दे ज़िंदगी ऐ ज़िंदगी
राजेश रेड्डी की शायरी से पहली बार 1993 में जगजीत जी के माध्यम से परिचित हुआ था। पर दिमाग में उनका नाम नक़्श हुआ सन 2000 में एलबम 'सहर' को सुनने के बाद। पूरे एलबम को सुनने के बाद सिर्फ एक ही ग़ज़ल दिमाग में महिनों नाचती रही। मैं तब सोचा करता कि एक ऐसा व्यक्ति जिसकी मातृभाषा हिंदी उर्दू ना हो वो इतनी अच्छी ग़ज़लें कैसे कह सकता है। उस वक़्त ना तो इंटरनेट था ये जानने के लिए कि रेड्डी साहब का बचपन आँध्र प्रदेश में नहीं बल्कि जयपुर में बीता। वो तो मुझे बाद में पता चला कि हिंदी में स्नातकोत्तर करने के बाद राजेश रेड्डी ने राजस्थान पत्रिका का संपादन भी सँभाला और वर्षों से आकाशवाणी से जुड़े हुए हैं। वैसे उनकी हाल में छपी कृतियों में उड़ान व आसमाँ से आगे उल्लेखनीय है। तो मैं बात कर रहा था एलबम 'सहर' के बारे में जिसमें राजेश रेड्डी ने अपनी इस बेहतरीन ग़ज़ल के माध्यम से जिंदगी की धूप छाँव का इतना बढ़िया खाक़ा खींचा है कि क्या कहने
ये जो ज़िन्दगी की किताब है ये किताब भी क्या किताब है
कहीं इक हसीन सा ख़्वाब है कहीं जान-लेवा अज़ाब1 है
कहीं छाँव है कहीं धूप है कहीं और ही कोई रूप है
कई चेहरे इस में छुपे हुए इक अजीब सी ये नक़ाब है
कहीं खो दिया कहीं पा लिया कहीं रो लिया कहीं गा लिया
कहीं छीन लेती है हर ख़ुशी कहीं मेहरबान बेहिसाब है
कहीं आँसुओं की है दास्तां कहीं मुस्कुराहटों का बयाँ
कहीं बरक़तों की है बारिशें कहीं तिश्नगी2 बेहिसाब है
1.विपत्ति 2. प्यास
पर जिंदगी पर शायर कितनी ही शायरी क्यूँ ना कर लें ये शब्दों में बँधने वाली बात ही नहीं है। इसे समझने के लिए तो शायद हमें सदियों जीना पड़े इसीलिए तो गुलज़ार अपनी इस त्रिवेणी में कहते हैं..
ज़िंदगी क्या है जानने के लिये
ज़िंदा रहना बहुत जरुरी है
आज तक कोई भी रहा तो नहीं...
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6 माह पहले
8 टिप्पणियाँ:
सभी तो नहीं पर अधिकांश गज़लें इनकी गायी हुई मेरी सुनी हुई है...पर आप जो नायाब जानकारियाँ देते हैं...गज़ब !!!...लगभग सभी हमारे लिए अनजाने....
बहुत बहुत आभार...
चलो इस बहाने कुछ पल को सुकून तो मिलेगा। सच संगीत एक नई ऊर्जा देता है।
बहुत सुंदर गजल, मैरे पास इन की सभी गजले हे, लेकिन अचानक यु सुनना अच्छा लगता हे, धन्यवाद
सुंदर गजल,
तीनों को सुनकर बहुत अच्छा लगा।
आज जाने कितने दिनों बाद अपने प्रिय ब्लौग की तरफ आ पाया हूँ| अद्भुतत पोस्ट मनीष जी...पूरे ब्लौग में गीतों के ऊपर आपसे बेहतर कोई नहीं लिख सकता|
पुराने पोस्ट देख रहा हूँ तो अहसास हो रहा है कि अपने आलस्य में कितना कुछ मिस किया है मैंने|
जगजीत आए थे अभी कश्मीर में....उफ़्फ़, लगा ख़ुदा से रूबरू हो गया मैं...
UHAT SUKRIYA ISS NAAYAB JAANKARI KE LIYE ...,GULZAR SAHIB AUR JAGJIT SINGH SAHIB JAB BI EK SAATH AATE HAIN TU YAADGAAR KAAM HOOTA HI-' MIRZA GHALIB' , MARASSIM , KOI BAAT CHALE ...., BOTH R MY "ALL TIME FAVRIOT"
बाद मुद्दत यहाँ आना, और अपने प्रिय गायक जगजीत को सुनना, उनके बारे में पढ़ना अद्भुत अनुभव है ! आपकी लिखावट की कारीगरी देखते बनती है, जब आप गम्भीर गायकों/गायकी को अपनी रोचक लेखनी के सुन्दर संतुलन से सहज बना कर प्रस्तुत कर रहे होते हैं !कई जानकारियाँ तो खैर मिलती ही हैं !
आभार ।
अच्छा लगा जानकर कि आप लोगों को भी ये ग़ज़ले पसंद आयीं।
सुरेश जी बिल्कुल सहमत हूँ आपके विचारों से.
गौतम, हिमांशु मुद्दत से ही सही आए तो हमारा ये दीवान ए आम आज दीवान ए खास हो गया !
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