चाँद की 'तमन्ना' करने वाले शायरों की कभी कमी नहीं रही। अब गुलज़ार की ही बात करें उनके गीत हों या नज़्में घूम फिर कर बात चाँद पर ही आ टिकती है। पर हर बार वो चाँद को एक अलग ही अंदाज़ अलग अलग रूपकों में इस खूबसूरती से हमारे समक्ष रखते हैं कि कुछ दोहराया हुआ सा नहीं लगता। बात गर पाकिस्तानी शायरों की हो तो चाँद प्रेमी शायरों में इब्ने इंशा भी आगे खड़े दिखाई देते हैं। चाँद इब्ने इंशा के प्रिय प्रतीकों में तो था ही उन्होंनें चाँद को केंद्रबिंदु में रखकर कई नज़्में कहीं। मसलन कातिक का चाँद, उसी चाँद की खोज में, उदास रात के आँगन में, उस आँगन का चाँद। पर इब्ने इंशा की चाँद पर कही नज़्मों में मुझे चाँद के तमन्नाई पढ़ना सबसे ज़्यादा सुकून देता है।
तो चलिए आज आपको रूबरू करवाते हैं इब्ने इंशा की इस प्यारी नज़्म से पहले इसके भावों से और फिर अपनी आवाज़ से.....
शहर-ए-दिल की गलियों में
शाम से भटकते हैं
चाँद के तमन्नाई
बेक़रार सौदाई
दिलगुदाज़ तारीकी
जाँगुदाज़ तन्हाई
रूह-ओ-जाँ को डसती है
रूह-ओ-जाँ में बसती है
ये दिल एक चलता फिरता शहर ही तो है जिस की गलियों में दिल ओ जाँ को पिघलाने वाला अँधेरा है। और उसमें पसरी है दूर दूर तक फैली तन्हाई जो उस हँसी चाँद की खोज में बावले हुए दिलों को अंदर ही अंदर खाए जा रही है।
शहर-ए-दिल की गलियों में...
ताक़-ए-शब की बेलों पर
शबनमी सरिश्कों की
बेक़रार लोगों ने
बेशुमार लोगों ने
यादगार छोड़ी है
इतनी बात थोड़ी है ?
सदहज़ार बातें थीं
हील-ए-शकेबाई
सूरतों की ज़ेबाई
कामतों की रानाई
इन स्याह रातों में
एक भी न याद आई
जा-ब-जा भटकते हैं
किस की राह तकते हैं
चाँद के तमन्नाई
दिल की इन वादियों ने वो वसंत भी देखा था जब इन्हीं गलियों से तरह तरह के बनाव श्रृंगार के साथ वो खूबसूरत चेहरे गुजरा करते थे। रात की उगती बेलों पर इन हसी चेहरों की यादें ओस की बूँदे बन कर आज भी उभरा करती हैं। पर वो दिन तो कबके बीत गए। आज तो इस दिल में एक अजीब सी वीरानी है। पर मन है कि भटकना चाहता है इस उम्मीद में शायद वो चाँद फिर दिखे..।
ये नगर कभी पहले
इस क़दर न वीराँ था
कहने वाले कहते हैं
क़रिया-ए-निगाराँ था
ख़ैर अपने जीने का
ये भी एक सामाँ था
आज दिल में वीरानी
अब्र बन के घिर आई
आज दिल को क्या कहिए
बावफ़ा न हरजाई
फिर भी लोग दीवाने
आ गए हैं समझाने
अपनी वह्शत-ए दिल के
बुन लिये हैं अफ़साने
खुशख़याल दुनिया ने
तो चलिए आज आपको रूबरू करवाते हैं इब्ने इंशा की इस प्यारी नज़्म से पहले इसके भावों से और फिर अपनी आवाज़ से.....
शहर-ए-दिल की गलियों में
शाम से भटकते हैं
चाँद के तमन्नाई
बेक़रार सौदाई
दिलगुदाज़ तारीकी
जाँगुदाज़ तन्हाई
रूह-ओ-जाँ को डसती है
रूह-ओ-जाँ में बसती है
ये दिल एक चलता फिरता शहर ही तो है जिस की गलियों में दिल ओ जाँ को पिघलाने वाला अँधेरा है। और उसमें पसरी है दूर दूर तक फैली तन्हाई जो उस हँसी चाँद की खोज में बावले हुए दिलों को अंदर ही अंदर खाए जा रही है।
शहर-ए-दिल की गलियों में...
ताक़-ए-शब की बेलों पर
शबनमी सरिश्कों की
बेक़रार लोगों ने
बेशुमार लोगों ने
यादगार छोड़ी है
इतनी बात थोड़ी है ?
सदहज़ार बातें थीं
हील-ए-शकेबाई
सूरतों की ज़ेबाई
कामतों की रानाई
इन स्याह रातों में
एक भी न याद आई
जा-ब-जा भटकते हैं
किस की राह तकते हैं
चाँद के तमन्नाई
दिल की इन वादियों ने वो वसंत भी देखा था जब इन्हीं गलियों से तरह तरह के बनाव श्रृंगार के साथ वो खूबसूरत चेहरे गुजरा करते थे। रात की उगती बेलों पर इन हसी चेहरों की यादें ओस की बूँदे बन कर आज भी उभरा करती हैं। पर वो दिन तो कबके बीत गए। आज तो इस दिल में एक अजीब सी वीरानी है। पर मन है कि भटकना चाहता है इस उम्मीद में शायद वो चाँद फिर दिखे..।
ये नगर कभी पहले
इस क़दर न वीराँ था
कहने वाले कहते हैं
क़रिया-ए-निगाराँ था
ख़ैर अपने जीने का
ये भी एक सामाँ था
आज दिल में वीरानी
अब्र बन के घिर आई
आज दिल को क्या कहिए
बावफ़ा न हरजाई
फिर भी लोग दीवाने
आ गए हैं समझाने
अपनी वह्शत-ए दिल के
बुन लिये हैं अफ़साने
खुशख़याल दुनिया ने
दिल रूपी ये नगर इतना खाली खाली कभी ना था। ये तो एक प्यारा सा गाँव था जिसमें ज़िंदगी हँसी खुशी बसर हो रही थी। आज मन रूपी आकाश में एक तरह की शून्यता है जिसे उदासी के बादलों ने चारों ओर से घेर रखा है। हृदय के इस खाली घड़े में ना तो प्यार की कोई ज्योत जल रही है और ना ही बेवफाई से उपजी पीड़ा। पर लोगों का क्या है वो तो दिल के इस मिजाज़ को भांपे बिना अपनी खामखयाली से कितनी कहानियाँ गढ़ते जा रहे हैं।
गर्मियाँ तो जाती हैं
वो रुतें भी आती हैं
जब मलूल रातों में
दोस्तों की बातों में
जी न चैन पाएगा
और ऊब जाएगा
आहटों से गूँजेगी
शहर-ए-दिल की पिन्हाई
और चाँद रातों में
चाँदनी के शैदाई
हर बहाने निकलेंगे
आज़माने निकलेंगे
आरज़ू की गीराई
ढूँढने को रुसवाई
सर्द सर्द रातों को
ज़र्द चाँद बख्शेगा
बेहिसाब तन्हाई
बेहिजाब तन्हाई
शहर-ए-दिल की गलियों में...
शाम से भटकते हैं
चाँद के तमन्नाई
मौसम बीतते जाते हैं। गर्मियाँ सर्दियों में तब्दील हो गयी हैं। पर रातें तो वही हैं जिनमें अब सन्नाटों की गूँज है। दिल उन गमगीन रातों में दोस्तों की सोहबत मे भी सुकून नहीं पाता। चाँदनी रातों में चाँद की आस रखने वाले ये एकाकी मन इसी तन्हाई में अपने आप को डुबो लेना चाहते हैं। अपने जज़्बातों को फिर से टटोलना चाहते हैं। शायद सर्दियों का ये पीला चाँद उनके मन की ये मुराद पूरी करे। वैसे भी उस चाँद से तनहा भला और कौन है?
गर्मियाँ तो जाती हैं
वो रुतें भी आती हैं
जब मलूल रातों में
दोस्तों की बातों में
जी न चैन पाएगा
और ऊब जाएगा
आहटों से गूँजेगी
शहर-ए-दिल की पिन्हाई
और चाँद रातों में
चाँदनी के शैदाई
हर बहाने निकलेंगे
आज़माने निकलेंगे
आरज़ू की गीराई
ढूँढने को रुसवाई
सर्द सर्द रातों को
ज़र्द चाँद बख्शेगा
बेहिसाब तन्हाई
बेहिजाब तन्हाई
शहर-ए-दिल की गलियों में...
शाम से भटकते हैं
चाँद के तमन्नाई
मौसम बीतते जाते हैं। गर्मियाँ सर्दियों में तब्दील हो गयी हैं। पर रातें तो वही हैं जिनमें अब सन्नाटों की गूँज है। दिल उन गमगीन रातों में दोस्तों की सोहबत मे भी सुकून नहीं पाता। चाँदनी रातों में चाँद की आस रखने वाले ये एकाकी मन इसी तन्हाई में अपने आप को डुबो लेना चाहते हैं। अपने जज़्बातों को फिर से टटोलना चाहते हैं। शायद सर्दियों का ये पीला चाँद उनके मन की ये मुराद पूरी करे। वैसे भी उस चाँद से तनहा भला और कौन है?
एक शाम मेरे नाम पर इब्ने इंशा
- यह बच्चा भूखा भूखा सा ये बच्चा सूखा सूखा सा...
- जले तो जलाव गोरी पीत का अलाव गोरी...
- दर्द रुसवा ना था ज़माने में..
- उर्दू की आख़िरी किताब : भाग 1, भाग2
- जब इब्ने इंशा ने दौड़ाया कछुए और खरगोश को !
- ये सराय है यहाँ किसका ठिकाना लोगों
7 टिप्पणियाँ:
अपने ललित लेख और व्यँग्य सँकलन "उर्दू की आख़िरी किताब" में इँशा ने इसे स्वीकार भी किया है.. पर वज़ह को लेकर नामालूम की अदा ओढ़ ली ।
आज दिल में वीरानी
अब्र बन के घिर आयी
आज दिल को क्या कहिये
बावफ़ा न हरज़ाई
फिर भी लोग दीवाने
आ गये हैं समझाने
यह लाइनें बहुत उदास कर जाती हैं । इस दुर्लभ रचना से आज की प्रस्तुति विशिष्ट बन गयी है ।
चाँद का आकर्षण अनुपम है, हर किसी को अपना कल्पना लोक दिख जाता है चाँद में।
रोचक पोस्ट।
दुर्लभ रचना| रोचक पोस्ट।
अमर जी दुर्भाग्यवश इंशा जी कि इस बेहतरीन पुस्तक उर्दू की आख़िरी किताब के कुछ अंश ही पढ़ पाया हूँ। हिंदी में ये किताब किस प्रकाशक ने छापी है ये बताएँ तो मेहरबानी होगी।
आजतक आपकी जितनी पोस्ट पढ़ी/सुनी , इस पोस्ट का रंग सबसे अलहदा लगा...पर बड़ा ही सुन्दर लगा...
आगे भी ऐसे रंग बिखेरियेगा...
शायराना इस सुन्दर पोस्ट के लिए आपका आभार..
शु्क्रिया आप सब को इब्बे इंशा की इस रचना को सराहने का !
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