आज अगर अहमद फ़राज़ हमारे साथ होते तो हम सब उनका 81 वाँ जन्मदिन मना रहे होते। फ़राज़ भले नहीं रहे पर उनकी शायरी के तेवर हमेशा याद आते रहे हैं। फ़राज़ को याद करते हुए उनकी एक लंबी पर बेहद मशहूर ग़ज़ल याद आ रही है जिसे मुशायरों में वो बड़ा रस ले ले के सुनाया करते थे। ग़ज़ल का उन्वान था सुना है लोग उसे आँख भर के देखते हैं.....।
इस ग़ज़ल में जिस शिद्दत से शायर ने अपनी महबूबा की शान में क़सीदे काढ़े हैं उसकी मिसाल मिलना मुश्किल है। फ़राज़ के सारे अशआरों को पढ़कर तो ये लगता है कि उन्होंने इस ग़ज़ल को गढ़ते हुए कल्पनाओं के पंख बड़ी दूर तक फैलाए। नतीज़न ख्वाबे गुल परेशाँ हैं में लिखी इस ग़ज़ल के छपने के दशकों बाद आज भी नौजवान अपनी माशूक़ाओं की खूबसूरती बयाँ करने के लिए फ़राज़ के इन अशआरों का सहारा लेते हैं।
तो आइए एक बार फिर गौर करें कि फ़राज ने आख़िर ऐसा क्या लिखा था इस ग़ज़ल में। कोशिश की है कि जो शब्द आपको कठिन लगें उनके माएने साथ ही दे दूँ ताकि फ़राज़ साहब के इस अंदाज़ का का आप पुरा लुत्फ़ उठा सकें...
इस ग़ज़ल में जिस शिद्दत से शायर ने अपनी महबूबा की शान में क़सीदे काढ़े हैं उसकी मिसाल मिलना मुश्किल है। फ़राज़ के सारे अशआरों को पढ़कर तो ये लगता है कि उन्होंने इस ग़ज़ल को गढ़ते हुए कल्पनाओं के पंख बड़ी दूर तक फैलाए। नतीज़न ख्वाबे गुल परेशाँ हैं में लिखी इस ग़ज़ल के छपने के दशकों बाद आज भी नौजवान अपनी माशूक़ाओं की खूबसूरती बयाँ करने के लिए फ़राज़ के इन अशआरों का सहारा लेते हैं।
तो आइए एक बार फिर गौर करें कि फ़राज ने आख़िर ऐसा क्या लिखा था इस ग़ज़ल में। कोशिश की है कि जो शब्द आपको कठिन लगें उनके माएने साथ ही दे दूँ ताकि फ़राज़ साहब के इस अंदाज़ का का आप पुरा लुत्फ़ उठा सकें...
सुना है लोग उसे आँख भर के देखते हैं
सो उसके शहर में कुछ दिन ठहर के देखते हैं
सुना है रब्त है उसको ख़राब हालों से
सो अपने आप को बर्बाद कर के देखते हैं
तंगहाल लोगों से सहानुभूति
सुना है दर्द की गाहक है चश्म-ए-नाज़ उसकी
सो हम भी उसकी गली से गुज़र के देखते हैं
नाज़ करने योग्य आँख
सुना है उसको भी है शेर-ओ-शायरी से शगफ़
सो हम भी मोजज़े अपने हुनर के देखते हैं
दिलचस्पी, चमत्कार
सुना है बोले तो बातों से फूल झड़ते हैं
ये बात है तो चलो बात कर के देखते हैं
सुना है रात उसे चाँद तकता रहता है
सितारे बाम-ए-फ़लक से उतर के देखते हैं
आकाश के झरोखे
आकाश के झरोखे
सुना है हश्र हैं उसकी ग़ज़ाल सी आँखें
सुना है उस को हिरन दश्त भर के देखते हैं
क़यामत,हिरणी
क़यामत,हिरणी
सुना है दिन को उसे तितलियाँ सताती हैं
सुना है रात को जुगनू ठहर के देखते हैं
सुना है रात से बढ़ कर हैं काकुलें उसकी
सुना है शाम को साये गुज़र के देखते हैं
काली लंबी जुल्फ़ें
सुना है उसकी स्याह चश्मगी क़यामत है
सो उसको सुरमाफ़रोश आह भर के देखते हैं
काली आंखें, सुरमा बेचने वाले
सुना है उसके लबों से गुलाब जलते हैं
सो हम बहार पर इल्ज़ाम धर के देखते हैं
सुना है आईना तमसाल है जबीं उसकी
जो सादा दिल हैं उसे बन सँवर के देखते हैं
शीशे की तरह ,मस्तक
सुना है जब से हमाइल हैं उसकी गर्दन में
मिज़ाज और ही लाल-ओ-गौहर के देखते हैं
सुना है चश्म-ए-तसव्वुर से दश्त-ए-इम्काँ में
पलंग ज़ाविए उसकी कमर के देखते हैं
सँभावनाओं के जंगल में विचरती कल्पना की आँखें. कोण
सुना है उसके बदन के तराश ऐसी हैं
के फूल अपनी कबाएँ कतर के देखते हैं
पत्तियाँ
वो सर-ओ-कद है मगर बे-गुल-ए-मुराद नहीं
के उस शजर पे शगूफ़े समर के देखते हैं
( वो हुस्न की ऊँचाई पर तो है मगर इसका मतलब ये नहीं कि उसकी इच्छाएँ मर गयी हैं। हम तो अभी भी उस पेड़ पर कलियों और फलों के आने का आसरा लगाए बैठे हैं।)
बस एक निगाह से लुटता है क़ाफ़िला दिल का
सो रहर्वान-ए-तमन्ना भी डर के देखते हैं
इच्छा रखने वाले
इच्छा रखने वाले
सुना है उसके शबिस्तान से मुत्तसिल है बहिश्त
मकीन उधर के भी जलवे इधर के देखते हैं
(सुना है उसके शयनागार यानि सोने के कमरे से सटी हुई हैं स्वर्ग की दीवारें। तभी तो वहाँ रहने वाले भी इस परी के जलवे वहीं से देखा करते हैं।)
रुके तो गर्दिशें उसका तवाफ़ करती हैं
चले तो उसको ज़माने ठहर के देखते हैं
( समय का पहिया उसकी परिक्रमा करता है)
किसे नसीब के बे-पैरहन उसे देखे
कभी-कभी दर-ओ-दीवार घर के देखते हैं
बग़ैर वस्त्रों के
बग़ैर वस्त्रों के
कहानियाँ हीं सही सब मुबालग़े ही सही
अगर वो ख़्वाब है ताबीर कर के देखते हैं
अतिश्योक्ति, स्वपन की आजमाइश
अब उसके शहर में ठहरें कि कूच कर जाएँ
फ़राज़ आओ सितारे सफ़र के देखते हैं
तो देर किस बात की अहमद फ़राज का अंदाज़ उन्हीं की जबानी क्यूँ ना सुना जाए ?
तो देर किस बात की अहमद फ़राज का अंदाज़ उन्हीं की जबानी क्यूँ ना सुना जाए ?
एक शाम मेरे नाम पर अहमद फ़राज़
7 टिप्पणियाँ:
bahut khub
आँख भर के देखना क्या हुआ, मन भर कर पढ़ना हो गया।
सुनने और पढने दोनों का लुत्फ़ उठाया. शुक्रिया.
बहुत शुक्रिया मनीष जी ,... और सबसे अच्छी बात ये की फ़राज़ साहब के पढने के स्टाईल को आज तक कोई कौपी नही कर पाया... जिस अन्दाज़ से वो पढते थे शेर !
WAAH...WAAH...WAAH...WAAH..WAAH...
AUR TO AAGE KYA KAHEN...???
Awesome !
अभी कुछ और करिश्मे ग़ज़ल के देखते हैं
फ़राज़ अब ज़रा लहजा बदल के देखते हैं
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