भारतीय ग़ज़लकारों में बशीर बद्र एक ऐसे शायर रहे हैं जिनकी ग़ज़लें समाज के हर तबके में मशहूर हुई हैं। जब भी कोई काव्य प्रेमी पहली बार शेर ओ शायरी में अपनी दिलचस्पी ज़ाहिर करता है और मुझसे पूछता है कि मुझे शुरुआत किन शायरों से करनी चाहिए तो मैं सबसे पहले बशीर साहब का ही नाम लेता हूँ। बशीर बद्र साहब अपनी ग़ज़लों में भारी भरकम अलफ़ाजों के चयन से बचते रहते हैं। पर ये सहजता बरक़रार रखते हुए भी उन्होंने अपने भावों की गहराइयाँ कम नहीं होने दी है। यही उनकी लोकप्रियता का मुख्य कारण है।
काव्य समीक्षक विजय वाते उनके ग़ज़लों के संग्रह 'उजाले अपनी यादों के' की प्रस्तावना में उनकी भाषा की इसी सादगी के बारे में कहते हैं
"...डा. बद्र की कविता का अत्यंत प्रीतिकर पक्ष उनकी सादगी है। कितने भोलेपन से वे कह सकते हैं
हम से मुसाफ़िरों का सफ़र इंतज़ार है
सब खिड़कियों के सामने लंबी कतार है
सहजता में कविता एक चिंतन को कैसे रूप दे सकती है ये डा. साहब की कविता में देखा जा सकता है और ये भी कि संप्रेषण के स्तर पर सरलता से उपलब्ध कविता अनुभूति और रचना प्रक्रिया के स्तर पर सहज होते हुए भी अपने पीछे से कवि के आत्म संघर्ष, भीतरी खोजें, बेचैनी, उसके अध्ययन और चिंतन के सराकोरों से लबालब होती है।.."
यही कारण है कि बशीर बद्र साहब के लिखे शेर तुरंत याद हो जाते हैं। यही हाल उन ग़ज़लों की गेयता का भी है। बशीर बद्र की तमाम ग़ज़लों को अलग अलग गायकों ने अपने मुख्तलिफ़ अंदाज में गाया है। इनमें जगजीत सिंह अग्रणी रहे हैं। आज बद्र साहब की जिस मक़बूल ग़ज़ल को आपके सामने पेश कर रहा हूँ उसे बारहा आपने जगजीत जी की आवाज़ में सुना होगा। पर आज उसी ग़ज़ल को सुनिए हुसैन बंधुओं की आवाज़ में।
जी हाँ मैं बात कर रहा हूँ जनाब अहमद हुसैन और मोहम्मद हुसैन की। हुसैन बंधुओं की ग़ज़लों से मेरा साथ स्कूल के दिनों का है। उस ज़माने में रेडिओ पर उनकी तमाम ग़ज़लें सुनने को मिलती थीं। उनमें से कुछ के बारे में तो पहले भी चर्चा कर चुका हूँ। चल मेरे साथ ही चल, मैं हवा हूँ कहाँ वतन मेरा, इलाही कोई हवा का झोंका और दो जवाँ दिलों का ग़म तो हाई स्कूल और इंटर के ज़माने में मेरी पसंदीदा ग़ज़लें हुआ करती थीं।
पर कभी यूँ भी आ मेरी आँख में, कि मेरी नज़र को ख़बर न हो मैंने सबसे पहले जगजीत जी की आवाज़ में ही सुनी थी। पर जब हुसैन बंधुओं की जुगलबंदी में इसे सुना तो उसका एक अलग ही लुत्फ़ आया। डा. बशीर बद्र की ये ग़ज़ल वाकई कमाल की ग़जल है। क्या मतला लिखा है उन्होंने
कभी यूँ भी आ मेरी आँख में, कि मेरी नज़र को ख़बर न हो
मुझे एक रात नवाज़ दे, मगर उसके बाद सहर न हो
सहर : सुबह
कितना प्यारा ख़्याल है ना किसी को चुपके से हमेशा हमेशा के लिए अपनी आँखों में बसाने का। पर बद्र साहब का अगला शेर भी उतना ही असरदार है
वो बड़ा रहीमो-करीम है, मुझे ये सिफ़त भी अता करे
तुझे भूलने की दुआ करूँ तो मेरी दुआ में असर न हो
सिफ़त : विशेषता, गुण, अता करे : प्रदान करे
अब भगवन ने ना भूलने का ही वर दे दिया तब तो उनसे ज़ुदा होने का तो मौका ही नहीं आएगा। और देखिए तो यहाँ बशीर बद्र का अंदाज़े बयाँ
मिरे बाज़ुओं में थकी-थकी, अभी महवे- ख़्वाब है चाँदनी
न उठे सितारों की पालकी, अभी आहटों का गुज़र न हो
यानि मेरी गोद में थकी हुई निद्रामग्न चाँदनी लेटी है। बस अब तो मेरी यही इल्तिज़ा है कि तारों से भरी इस रात की पालकी कभी ना उठे और ख़ामोशी का आलम बदस्तूर ज़ारी रहे।
कभी दिन की धूप में झूम के, कभी शब को फूल को चूम के
यूँ ही साथ-साथ चले सदा, कभी ख़त्म अपना सफ़र न हो
पर जगजीत ने इस ग़ज़ल का एक और शेर गाया है और वो इस ग़ज़ल के रोमांटिक मूड को और पुख्ता कर देता है
मेरे पास मेरे हबीब आ, ज़रा और दिल के करीब आ
तुझे धड़कनों में बसा लूँ मैं, कि बिछड़ने का कभी डर न हो
तो आइए सुने इस ग़ज़ल को हुसैन बंधुओं की आवाज़ में...
चलते चलते इसी ग़ज़ल का एक और शेर जिसे जगजीत या हुसैन बंधुओं ने अपने वर्सन में शामिल नहीं किया है..
ये ग़ज़ल के जैसे हिरन की आँखों में पिछली रात की चाँदनी
न बुझे ख़राबे की रौशनी, कभी बे-चिराग़ ये घर न हो
14 टिप्पणियाँ:
कोई हाथ भी न मिलायेगा, जो गले मिलोगे तपाक से..
बहुत अच्छी प्रस्तुति!
thanks a lot .....
for sharing such a beautiful gazal...
जगजीतसिंह जी और बशीर बद्र साहब एक धमाकेदार combination हैं...
बहुत अच्छी प्रस्तुति भी......
शुक्रिया तहे दिल से...
इस गजल को कई लोगों ने गाया है.. पर मुझे हुसैन बन्धुओं का गाया वर्जन ही सबसे अच्छा लगता है....
चुनीन्दा गजलों और गीतों का समावेश रहता है यहाँ.......!!
शुक्रिया मनीष...!!
खुद शायर के तरन्नुम को छू नहीं पाए हैं बन्धु !
बढ़िया प्रस्तुति | लिंक उपलब्ध करवाने के लिए शुक्रिया | मैंने इसे डाउनलोड कर के अपने पास सुरक्षित कर लिया है |
टिप्स हिंदी में
अच्छी प्रस्तुति के लिए शुक्रिया..
सादर आभार...
वाह !!!
kalamdaan.blogspot.in
सुभान अल्ला ...
मज़ा आ गया सुन के इस कमाल की गज़ल को लाजवाब आवाज़ में ...
वाह... वाह... वाह...
सुन्दर प्रस्तुति.... बहुत बहुत बधाई.....
वाह वाह वाह ......कोई लफ्ज नहीं तारीफ के !
आपकी समीक्षा आपकी पोस्ट की रौनक और बढ़ा देती है .......गजल,सुर और आपका अंदाजेबयां ...क्या कहने !
आज बशीर साहब पर दूसरा आलेख पढ़ रही हूं.. पहला रचनाकार में पढ़ा.. पता नहीं क्यों आज मेरी सुई बशीर साहब पर अटक रही है। वैसे बहुत खूबसूरत लिखा है आपने और 'कभी यूं भी आ मेरी आंख में' तो बेमिसाल है ही।
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