गुरुवार, अप्रैल 12, 2012

जब भी ये दिल उदास होता है : जब गीत का मुखड़ा बना एक ग़ज़ल का मतला !

कुछ गीतों का कैनवास फिल्मों की परिधियों से कहीं दूर फैला होता है। वे कहीं भी सुने जाएँ, कभी भी गुने जाएँ वे अपने इर्द गिर्द ख़ुद वही माहौल बना देते हैं। इसीलिए परिस्थितिजन्य गीतों की तुलना में ये गीत कभी बूढ़े नहीं होते। गुलज़ार का फिल्म सीमा के लिए लिखा ये नग्मा एक ऐसा ही गीत है। ना जाने कितने करोड़ एकाकी हृदयों को इस गीत की भावनाएँ उन उदास लमहों में सुकून पहुँचा चुकी होंगी। कम से कम अगर अपनी बात करूँ तो सिर्फ और सिर्फ इस गीत का मुखड़ा लगातार गुनगुनाते हुए कितने दिन कितनी शामें यूँ ही बीती हैं उसका हिसाब नहीं।

कहते हैं प्रेम के रासायन को पूरी तरह शब्दों में बाँध पाना असंभव है। पर शब्दों के जादूगर गुलज़ार गीत के पहले अंतरे में लगभग यही करते दिखते हैं। होठ का चुपचाप बोलना, आँखों की आवाज़ और दिल से निकलती आहों में साँसों की तपन को महसूस करते हुए भी शायद हम कभी उन्हें शब्दों का जामा पहनाने की सोच भी नहीं पाते, अगर गुलज़ार ने इसे ना लिखा होता।

गुलज़ार के लिखे गीतों में से बहुत कम को मोहम्मद रफ़ी की आवाज़ मिली है।  पर मौसम, स्वयंवर, बीवी और मकान, देवता , कशिश और कोशिश जैसी फिल्मों में गुलज़ार के लिखे गिने चुने जो गीत रफ़ी साहब को गाने को मिले उन सारे गीतों पर अकेला ये गीत भारी पड़ता है। सीमा 1971  में प्रदर्शित हुई पर कुछ खास चली नहीं पर ये गीत खूब चला। मुझे हमेशा ये लगता रहा है कि रफ़ी की आवाज़ और गुलज़ार के लाजवाब बोलों की तुलना में शंकर जयकिशन का संगीत फीका रहा। संगीतकार शंकर की बदौलत गायिका शारदा भी इस गीत का हिस्सा बन सकीं। आप अंतरों के बीच उनके आलाप और कहीं कहीं मुखड़े में उनकी आवाज़ सुन सकते हैं।


जब भी ये दिल उदास होता है
जाने कौन आस-पास होता है


होठ चुपचाप बोलते हों जब
साँस कुछ तेज़-तेज़ चलती हो
आँखें जब दे रही हों आवाज़ें
ठंडी आहों में साँस जलती हो, 

ठंडी आहों में साँस जलती हो
जब भी ये दिल ...

आँख में तैरती हैं तसवीरें
तेरा चेहरा तेरा ख़याल लिए
आईना देखता है जब मुझको
एक मासूम सा सवाल लिए

एक मासूम सा सवाल लिए
जब भी ये दिल ...

कोई वादा नहीं किया लेकिन
क्यों तेरा इंतजार रहता है
बेवजह जब क़रार मिल जाए
दिल बड़ा बेकरार रहता है
दिल बड़ा बेकरार रहता है
जब भी ये दिल ...

इस गीत को फिल्माया गया था कबीर बेदी और सिमी ग्रेवाल की जोड़ी पर। देखिए तो कितने बदले बदले से लग रहे हैं इस गीत में ये कलाकार।


पर अगर आप ये सोच रहे हों कि मुझे गुलज़ार के इस गीत की अचानक क्यूँ याद आ गई तो आपका प्रश्न ज़ायज है। वैसे तो किसी गीत के ज़हन में अनायास उभरने का कई बार कोई कारण नहीं होता। पर कल जब मैं गुलजार की एक किताब के पन्ने उलट रहा था तो उनकी एक ग़ज़ल पर नज़रे अटक गयीं। ग़ज़ल का मतला वही था जो इस गीत का मुखड़ा है.। तो आप समझ सकते हैं ना कि जितना प्यार हम सबको इस मुखड़े से है उतना ही दिलअज़ीज ये गुलज़ार साहब को भी है तभी तो उन्होंने इसी पर एक ग़ज़ल भी कह डाली।

जब भी ये दिल उदास होता है
जाने कौन आस-पास होता है

गो बरसती नहीं सदा आँखें
अब्र तो बारह मास होता  है


छाल पेड़ों की सख़्त है लेकिन
नीचे नाख़ून के माँस होता है

जख्म कहते हैं दिल का गहना है
दर्द दिल का लिबास होता है

डस ही लेता है सब को इश्क़ कभी
साँप मौका-शनास होता है


सिर्फ उतना करम किया कीजै
आपको जितना रास होता है

जिन अशआरों को bold किया है वो दिल के ज्यादा करीब हैं। वैसे इश्क़ की तुलना सर्प दंश से करने के ख़याल के बारे में आपका क्या ख़याल है ?
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15 टिप्पणियाँ:

sonal on अप्रैल 12, 2012 ने कहा…

waah ..... thanks for sharing

***Punam*** on अप्रैल 12, 2012 ने कहा…

bahut khoobsoorat geet....aur utne hi umda andaaz mein Rafi Saheb ki peshkash....kai baar afsos hota hai ki ham kaise kaise Heeron ko kho chuke hain....unse jo gahne ban chuke hain....bas unhin ko ham baar baar pahan kar apne ko sajate rahte hain ....lekin ab unse naye gahne nahin banaye ja sakte.....!!

shukriya manish....
purani yaaden yahan taza ho jati hain....!!

ANULATA RAJ NAIR on अप्रैल 12, 2012 ने कहा…

बहुत बढ़िया.............
गीत..
प्रस्तुति...
गुलज़ार............
सभी.............

आपका सवाल कि इश्क की तुलना सर्प दंश से....
ये गुलज़ार साहब ही कर सकते हैं...
काश ये आपने कल पोस्ट किया होता....
कभी वक्त मिले तो हमारी आज की पोस्ट पढ़ें.

अनु

Sharat Sarangi on अप्रैल 12, 2012 ने कहा…

इश्क की तुलना सांप से करने का साहस गुलज़ार ही कर सकते हैं.
ऐसे कई साहसी तुलनाएं करने का साहस गुलज़ार ने पहले भी किया
है जिन्हें बार बार सराहा गया है. मुलाहिजा फरमाएं : "आँखों की महकती खुशबू" ,
"दिन खाली खाली बर्तन", " चिंघाड़ता बादल", "सुलगता चाँद" ,
" डूबा हुआ खाली समंदर", "नीम तारीक सी गली","फ़िक्र की बिजली"
"रिश्तों का इलज़ाम", "उम्मीद के पर " खुशबू की जुबां " और न जाने
क्या क्या तुलनाओं के जाल में लपेटते रहते है गुलज़ार के बस लगता है पढ़ते पढ़ते
एक मंज़र सा बनता जा रहा है .

suparna ने कहा…

shukriya Manish, bahut accha laga yeh post!

geet to mujhe pyara tha hi, yeh ghazal bhi bahut bha gaya ..

iss tarah ka cross-referencing bahut accha lagta hai. yeh dono to khair unke apne hi likhe the, gulzar sahab ne Dus Tola film ke gaane mein kya khoob kaha hai - 'mere shaayar ne kaha hai mod dekar chhod dena' - a wonderful moment in song. usi tarah shaayad mirza ghalib ki panktiyon ko bhi kai baar reference kar chuke hain shaayar aur geetkar.

when a post like this comes along, you wonder what else there is that you dont know :)

Rachana on अप्रैल 12, 2012 ने कहा…

came here after a long time, and what a treat I get!! :) love the passionate blogging by you!! your regularity is awesome! keep it up! best wishes for you always!:)

Shilpa Mehta : शिल्पा मेहता on अप्रैल 12, 2012 ने कहा…

यह गीत मुझे भी बहुत पसंद है | आभार | :)

Sonroopa Vishal on अप्रैल 12, 2012 ने कहा…

सबसे पहले तो मैं आपके PASSION को सराहना चाहूँगी ...कितना मन से लिखते हैं आप ,आजकल के व्यस्त समय में लोग गुनगुना ही लें यही क्या कम है .......और आप तो गीत की आत्मा को भी छू आते हैं !
और गुलजार तो हैं लफ़्जों के जादूगर और मुझ पर तो उनका जादू पूरी तरह चल चुका है :)

कंचन सिंह चौहान on अप्रैल 13, 2012 ने कहा…

Still the song has it's own qualities which the Ghazal could not reflect in itself....

Really... So many evenings have been gloomy and lightened both with this song...

rashmi ravija on अप्रैल 13, 2012 ने कहा…

apni pasandeeda geet ka itihaas jaanana achha laga...geet ke bol...ko makool swar bhi mile tabhi ye geet amar ho gaya...

Manish Kumar on अप्रैल 15, 2012 ने कहा…

सोनल, अनु, रचना जी, शिल्पा गीत पसंद करने के लिए शुक्रिया..
पूनम जी व रश्मि जी रफ़ी साहब ने गीत वाकई बड़ी खूबसूरती से गाया है.
कंचन गीत तो वर्षों से कई पीढ़ियो की जुबाँ पर रहा है उससे ग़ज़ल की तुलना क्या !

Manish Kumar on अप्रैल 15, 2012 ने कहा…

शरत सारंगी जी : हाँ ये तो आप सही कह रहे हैं गुलज़ार के बिंबों का विस्तार प्रकृति के हर रूप में है। उनके जिस गीत को याद करूँ कुछ ऐसा याद आ ही जाता है। थोड़ी सी जमीं थोड़ा आसमाँ में बेटों के लिए बाजरे के सिट्टों का प्रयोग पहली बार गुलज़ार ने ही किया था।

Manish Kumar on अप्रैल 15, 2012 ने कहा…

हाँ सुपर्णा बड़ी खूबसूरत पंक्तियाँ थी वों
मेरे शायर ने कहा है मोड़ दे कर छोड़ देना
गुलज़ार वाकई ऐसे मोड़ बखूबी देते हैं सुनने वालों को सोचने के लिए।
रही ग़ालिब की बात तो फुर्सत के रात दिन को कौन भूल सकता है।
अरे संगीत तो ऍसा महासागर है कि जब भी डुबकी लगाओ कुछ ना कुछ मिलता है । ज्ञानी तो आप भी कम नहीं हैं।

Manish Kumar on अप्रैल 15, 2012 ने कहा…

सोनरूपा जी विषयवस्तु से प्रेम ना हो तो लिखा जा ही नहीं सकता। आपकी इस सराहना के लिए धन्यवाद। गुलज़ार की जादूगरी से हम सब हिप्टोनाइज्ड हैं ही।

दीपिका रानी on अप्रैल 26, 2012 ने कहा…

इस नई जानकारी के लिए शुक्रिया। ग़ज़ल भी उतना ही खूबसूरत है, जितना कि गीत। और वाकई इस गीत ने बहुतों को अकेले पन में सुकून दिया होगा..

 

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