पीली छतरी वाली लड़की शीर्षक देखने से तो यही लगता है कि ये एक प्रेम कथा होगी। पर अगर मैं इस दृष्टि से इस लंबी कहानी (लेखक उदयप्रकाश इसे लघु उपन्यास के बजाए इसी नाम से पुकारे जाने के पक्षधर हैं।) का मूल्यांकन करूँ तो इस पुस्तक के नायक राहुल व नायिका अंजली जोशी के प्यार की दास्तां किसी कॉलेज की प्रेम कहानियों सरीखी लगेगी। मैं तो इसे पढ़ने के बाद पुस्तक को इस श्रेणी में डालना भी नहीं चाहता। इसे पढ़ने के बाद जो बातें मन पर गहरे असर करती हैं वो राहुल अंजली का प्रेम हरगिज़ नहीं है। दरअसल लेखक ने इस कहानी में प्रेम का ताना बाना इसीलिए बुना है कि इसके ज़रिए वो उन मुद्दों को उठा सकें जिन्होंने उनके अब तक के लेखकीय जीवन को अंदर तक झिंझोड़ा है। पुस्तक में नायक के माध्यम से कहे गए ये विचार, पीछे चलती प्रेम कथा से ज्यादा दिलचस्प और असरदार लगते हैं।
इससे पहले कि मैं लेखक उदयप्रकाश द्वारा उठाए गए इन विचारणीय मुद्दों की बात करूँ, कथा नायक व नायिका से आपका संक्षिप्त परिचय कराना आवश्यक है। मध्यमवर्गीय परिवार से अपने घर से दूर कॉलेज में आया राहुल एनथ्रोपोलॉजी में एम ए के लिए दाखिला लेता है पर पीली छतरी वाली लड़की अंजली जोशी को देखकर इस तरह मुग्ध हो जाता है कि दोस्तों की सलाह ना मानते हुए हिंदी विभाग में दाखिला ले लेता है। हलके के दबंग ब्राह्मण राजनीतिज्ञ की बेटी अंजली जोशी के किरदार से तो आप कई हिंदी फिल्मों में मिल चुके होंगे। यानि भ्रष्ट पिता व गुंडे मवाली भाइयों के घर में रहने वाली आम, सुसंस्कृत, सज्जन हृदय लिए एक अतिसुंदर कन्या।
ये बताना यहाँ जरूरी होगा कि कथा का ये प्रसंग लेखक के निजी जीवन से मेल खाता है। उदयप्रकाश जी ने अपने एक साक्षात्कार में कहा है कि "सागर विश्वविद्यालय में मैं एनथ्रापोलाजी में जाना चाहता था। 'पीली छतरी वाली लड़की' में मैंने हल्का सा संकेत किया है कि वहाँ कुछ ऐसी स्थितियाँ बनीं और ऐसे मित्र बने कि मैं हिन्दी में आ गया और हिन्दी में भी मैंने टॉप किया।"
उदयप्रकाश जी ने अपनी इस किताब में भाषायी शिक्षा से जुड़े कुछ बेहद महत्त्वपूर्ण मसले उठाए है। किस तरह के छात्र इन विषयों में दाखिला लेते हैं? कैसे आध्यापकों से इनका पाला पड़ता है? अपनी पुस्तक में लेखक इस बारे में टिप्पणी करते हुए कहते हैं...
हिंदी, उर्दू और संस्कृत ये तीन विभाग विश्वविद्यालय में ऐसे थे, जिनके होने के कारणों के बारे में किसी को ठीक ठीक पता नहीं था। यहाँ पढ़ने वाले छात्र.......उज्जड़, पिछड़े, मिसफिट, समय की सूचनाओं से कटे, दयनीय लड़के थे और वैसे ही कैरिकेचर लगते उनके आध्यापक। कोई पान खाता हुआ लगातार थूकता रहता, कोई बेशर्मी से अपनी जांघ के जोड़े खुजलाता हुआ, कोई चुटिया धारी धोती छाप रघुपतिया किसी लड़की को चिंपैजी की तरह घूरता। कैंपस के लड़के मजाक में उस विभाग को कटपीस सेंटर कहते थे।
कहने का अर्थ ये कि जिनका कहीं एडमिशन नहीं होता वे ऐसे विभागों की शोभा बढ़ाते थे। अगर अंजली जोशी अंग्रेजी में स्नातक करते समय बीमार ना पड़ी होती तो ये कहानी अस्तित्व में ही ना आई होती।
मैंने उदयप्रकाश जी को पहले ज्यादा पढ़ा नहीं। पर इस पुस्तक को पढ़कर ये जरूर लगा कि हिंदी साहित्य की राजनीति में ब्राह्मणों के वर्चस्व से वे आहत रहे हैं। लेखक हिंदी विभागों में बहुतायत में पाए जाने वाले ब्राह्मण अध्यापक और विभागाअध्यक्षों को इसी जातिवादी भाई भतीजावाद की उपज मानते हैं। उनकी इस पुस्तक में नायक एक किताब का हवाला देते हुए (जो संभवतः वरिष्ठ पत्रकार व लेखक प्रभाष जोशी का वक़्तव्य है) कहता है .
इस देश के इतिहास में कोई भी जाति कभी स्थिर नहीं रही है ... लेकिन एक जाति ऐसी है, जिसने अपनी जगह स्टेटिक बनाये रखी है। विल्कुल स्थिर, सबसे ऊपर .हजारों सालों से। वह जाति है ब्राह्मण . शारीरिक श्रम से मुक्त, दूसरों के परिश्रम, बलिदान, और संघर्ष को भोगने वाली संस्कृति के दुर्लभ प्रतिनिधि। इस जाति ने अपने लिए श्रम से अवकाश का एक ऐसा स्वर्गलोक बनाया, जिसमे शताब्दियों से रहते हुए इसने भाषा, अंधविश्वासों, षड्यंत्रों, संहिताओं और मिथ्या चेतना के ऐसे मायालोक को जन्म दिया, जिसके जरिये वह अन्य जातियों की चेतना,उनके जीवन और इस तरह समूचे समाज पर शासन कर सके।...एक निकम्मे , अकर्मण्य धड़ पर रखा हुआ एक बेहद सक्रिय, शातिर, षड्यंत्रकारी दिमाग, एक ऐसी खोपडी, जिसमे तुम सीधी-सादी कील भी ठोंक दो तो वह स्क्रू या स्प्रिंग बन जायेगी ।
अपनी किताब के विभिन्न किरादारों की मदद से उन्होंने ये बात रखनी चाही है कि हिंदी शिक्षण व साहित्य में फैला ब्राह्मणवाद पूरी व्यवस्था को अंदर ही अंदर दीमक की तरह चाट रहा है। उदयप्रकाश जी ने हिंदीजगत में पाए जाने वाले स्वनामधन्य साहित्यकारों की भी अच्छी खिंचाई की है। लेखक ऐसे ही एक विद्वान के बारे में लिखते हैं..
सच तो ये है कि हिंदी से जुड़े हर क्षेत्र जिसमें अपना ये ब्लॉग जगत शामिल है इस प्रवृति ने अपनी जड़े जमाई हुई हैं।डा. राजेंद्र तिवारी ने अपने बहनोई के कांटैक्ट से, जो कि राज्यसभा के मेंबर थे, पद्मश्री का जुगाड़ कर लिया था। अलग अलग शहरों और कस्बों में अभिनंदन समारोह आयोजित कराने का उन्हें शौक था। उनके बारे में मशहूर था कि वो जहाँ भी जाते हैं अपने झोले में एक शाल, एक नारियल, पाँच सौ रुपये का एक लिफाफा और अपनी प्रशस्ति का एक मुद्रित फ्रेम किया प्रपत्र साथ ले कर चलते हैं। सुप्रसिद्ध हिंदी सेवी एवम् विद्वान डा. राजेंद्र तिवारी का नगर में अभिनंदन शीर्षक समाचार अखबारों में अक्सर छपता रहता था। हर महिने पखवाड़े उन्हें कोई ना कोई सम्मान या पुरस्कार मिलता रहता था, जिसका प्रबंध वे स्वयम् करते थे।
पर लेखक सिर्फ ब्राह्मणवाद से ही दुखी हैं ऐसा नहीं है। वे देश में फैले नक्सलवाद और आतंकवाद से भी उतने ही चिंतित है। दरअसल आज की सामाजिक व्यवस्था ने जिन वर्गों को हाशिये पर ला खड़ा किया है उसके लिए उनकी लेखनी बड़ी गंभीरता से चली है। कश्मीर की तो इस देश में इतनी चर्चा होती है पर क्या हम मणिपुरियों के कष्ट को , उनके इस देश से बढ़ते अलगाव को , इरोम चानु शर्मिला के एक दशक से चल रही भूख हड़ताल पर उतनी संवेदनशीलता और कुछ करने की ललक दिखलाते हैं? देश से पनपती इस विरक्तता को लेखक मणिपुरी छात्र सापाम के रूप में पाठकों के सम्मुख लाते हैं।
मायांग (परदेसियों) ने हमें बोहोत लूटा। हमारी लड़की ले गए। हमें बेवकूफ बनाया। हमारा बाजार ट्रेड नौकरी सब पर मायांग का कब्जा है। कुछ बोलो तो सेसेनिस्ट कहता है। तुम आज उदर से आर्मी हटा लो. कल हम आजाद हो जाएगा। अंग्रेजों के टाइम पर हमने सुभाष चंद्र बोस को अपना ब्लड दिया था। बर्मा तक जाकर इंडिया की आजादी के लिए हम लोग लड़ा। अब हम अपनी आज़ादी के लिए लड़ेगा। लिख के ले लो , कश्मीर से पहले हम इंडिया से आज़ाद होगा।
उदयप्रकाश जी कम्युनिस्ट विचारधारा से प्रभावित रहे हैं। देश की राजनीति में फैली दलाली संस्कृति और उससे पनपता भोगवाद उन्हें नागवार गुजरता है। इस लिए इस संस्कृति को को भी उन्होंने आड़े हाथों लिया है और ये इशारा किया है कि सरकारें चाहे किसी की भी हों असली सत्ता ये दलाल ही चला रहे हैं। हिंदी अंग्रेजी मिश्रित भाष्य में बिना किसी लाग लपेट के लिखे उनके कटाक्ष वस्तुस्थिति से ज्यादा दूर नहीं लगते । पुस्तक में ऐसे ही एक दलाल और देश के प्रधानमंत्री के बीच चलते वार्तालाप को वे कुछ यूँ पेश करते हैं...
ठीक से सहलाओ ! पकड़कर ! ओ. के. !’ उस आदमी ने मिस वर्ल्ड को प्यार से डाँटा फिर सेल फोन पर कहा ‘इत्ती देर क्यों कर दी....साईं ! जल्दी करो ! पॉवर, आई टी, फूड, हेल्थ एजुकेशन....सब ! सबको प्रायवेटाइज करो साईं !...ज़रा क्विक ! और पब्लिक सेक्टर का शेयर बेचो... डिसएन्वेस्ट करो...! हमको सब खरीदना है साईं...! ‘बस-बस !
ज़रा सा सब्र करें भाई...बंदा लगा है डयूटी पर, मेरा प्रॉबलम तो आपको पता है। खिचड़ी सरकार है सारी दालें एक साथ नहीं गलतीं निखलाणी जी। ’
रिच एंड फेमस तुंदियल ने विश्वसुन्दरी के सिर को सहलाया फिर ‘पुच्च...पुच्च की आवाज़ निकाली, ‘आयम, डिसअपांयंटेड पंडिज्जी ! पार्टी फंड में कितना पंप किया था मैंने, हवाला भी, डायरेक्ट भी...केंचुए की तरह चलते हो तुम लोग, एकॉनमी कैसे सुधरेगी ? अभी तक सब्सिडी भी खत्म नहीं की !’
‘हो जायेगी निखलाणी जी ! वो आयल इंपोर्ट करने वाला काम पहले कर दिया था, इसलिए सोयाबीन, सूरजमुखी और तिलहन की खेती करने वाले किसान पहले ही बरबाद थे. उनके फौरन बाद सब्सिडी भी हटा देते तो बवाल हो जाता...आपके हुकुम पर अमल हो रहा है भाई....सोच-समझ कर कदम उठा रहे हैं,’
‘जल्दी करो पंडित ! मेरे को बी. पी है. ज़्यादा एंक्ज़ायटी मेरे हेल्थ के लिए ठीक नहीं, मरने दो साले किसानों बैंचो....को...ओ...के...’
विकास के इस ढाँचे ने समाज में दो वर्ग पैदा कर दिए हैं। एक जिसके पास सब कुछ है और दूसरे जिस के पास कुछ भी नहीं। लेखक विकास के अंदरुनी खोखलेपन पर हम सब का ध्यान खींचते हुए कहते हैं
भारत की नयी पीढ़ी आख़िर कौन सी है, जो आने वाले दिनों को आकार देगी? क्या इंडिया का नया एक्स-वाइ जेनेरेशन वह है, जो टीवी में सिनेमा में फैशन परेडों और दिल्ली मुंबई कलकत्ता बंगलूर से निकलने वाले अंग्रेजी के रंगीन अखबारों में पेप्सी पीता, क्रिकेट खेलता, पॉप म्यूजिक एलबम में नंगी अधनंगी लड़कियों के साथ हिप्पियों जैसा नाचता व ज्यादा से ज्यादा दौलत कमाने के लिए एम. एन. सी. की नौकरियों के लिए माँ बाप को लतियाता और तमाम परंपराओं पर थूकता हुआ अमेरिका, कनाडा जर्मनी भाग रहा है?
या नया जेनरेशन वह है जो असम, मिज़ोरम, मणिपुर, आंध्र, कश्मीर, बिहार, तमिलनाडु से लेकर तमाम नरक जैसे पिछड़े इलाकों में एके 47, बारूदी सुरंग, तोड़ फोड़ और हताश हिंसक वारदात में शामिल है? या फिर रोजी रोटी ना होने की निराशा में हर रोज़ आत्महत्याएँ कर रहा है? ..जिसके माँ बापों को पिछले पचास सालों में शासकों द्वारा लगातार ठगा गया है और जिसके हाथ में फिलहाल हथियार है और जिसे हर रोज मुठभेड़ों में मारा जा रहा है।
राहुल के दिमाग में लेखक द्वारा उठाए गए ये मुद्दे चलते रहते हैं। हिंदी विभाग का घोर ब्राह्नणवाद और एक ब्राह्मण कन्या से उसकी निकटता उसके मन को अजीब उधेड़बुन में डाल देती है। अंजली का निश्चल प्रेम उसे इस उहापोह से निकालकर आगे की दिशा तो दिखलाता है पर क्या राहुल उस मार्ग पर चलकर अपने भविष्य की सीढ़ियाँ तय कर पाता है? इस प्रश्न का जवाब तो आप पुस्तक पढ़ कर ही जान सकते हैं। वैसे उदयप्रकाश जी की कथा का समापन एक फिल्मी क्लाइमेक्स से कम नहीं है जिसमें दुखांत और सुखांत के दोनों सीन शूट किए गए हैं। उदयप्रकाश ने अंत में उनमें से एक को चुन भर लिया है।
ये लंबी कहानी हिंदी साहित्यिक पत्रिका हंस में छपी थी । अब ये किताब जर्मन और उर्दू और कई अन्य भारतीय भाषाओं में अनुदित हो चुकी है। पुस्तक में लेखक द्वारा व्यक्त विचारों और कहीं कहीं प्रयुक्त उनके स्वछंद भाष्य ने काफी विवाद पैदा किया। स्वर्गीय कमलेश्वर ने तो इसे ग़लाज़त (गंदगी) भरी कहानी करारा और हंस के संपादक राजेंद्र यादव को इसे छापने के लिए आड़े हाथों लिया। ख़ैर एक दूसरे पर निशाना साधने वाली हिंदी साहित्य जगत की इस प्रवृति पर हम जैसे आम पाठकों को क्या लेना देना। 2005, 2009 और फिर 2011 के संस्करणों से तो यही लगता है कि तमाम पाठकों ने इस पुस्तक को सहर्ष स्वीकारा। इस पुस्तक के बारे में अपना मत तो इस चर्चा के पहले अनुच्छेद में रख ही चुका हूँ।
पुस्तक के बारे में अन्य जानकारी ये रही :
- प्रकाशक : वाणी प्रकाशन
- लेखक परिचय , लेखक का ब्लॉग
- पृष्ठ संख्या : 156
- मूल्य : 125 रुपये
- आवरण चित्र के चित्रकार : स्वर्गीय मक़बूल फिदा हुसैन
- इंटरनेट पर उपलब्धता
21 टिप्पणियाँ:
बढ़िया समीक्षा..
सुन्दर समीक्षा, पढ़ने की इच्छा जगाती हुयी।
पढ़ने के लिए उकसाती हुई समीक्षा......
शुक्रिया.
अनु
बढ़िया समीक्षा की है....इस पुस्तक को दुबारा पढ़ने जैसा आनंद आया...
kya baat hai Manish jee........? lagta hai ye book jaldi hi padhna padegi......!!
हंस में यह कहानी पढ़ी थी। आज इसके बारे में फ़िर से पढ़कर अच्छा लगा।
धन्यवाद इस समीक्षा का...
neha kalyanifrom nagpur
wonderful manish ji, aapne pustek ki her tareke se bahoot aachi sameksha ki hai.
sajjan hriday ke liye ek atisundar kanya :P :D ROFL
Badhiya Post :)
मेरी प्रिय पुस्तक !... सुंदर लिखा आपने !!
बहुत ही सार गर्भित व्याख्या है. बधाई
हम्म्म.. थोड़े दिन पहले पढ़ी थी, हमने भी....!!
अभी तक नहीं पढ़ी थी! अब पढूँगा।
'पीली छतरी वाली लड़की' लिखने के बाद, जो कुछ जीवन में घटित हुआ, उसका समूचा वृत्तांत, हिंदी भाषा और भाषिक-समाज के सत्ता-केंद्र और उसके अंतरवस्तु को अच्छी तरह से समझने के लिए एक तरह की कुंजी है. अतीत के महा वृत्तांतों के परदे के पीछे छिपी मानव-विरोधी, जन-विरोधी जातीय-सांप्रदायिक ताकतों का चेहरा पाठकों को साफ़ दिखेगा. एक नागरिक और एक नगण्य-सा लेखक होने के नाते मैं आप सब दोस्तों से अपील करता हूं कि अपनी भाषा, अपनी विचारधारा, अपने देश और अपनी अस्मिताओं को बचाने के लिए एक सशक्त प्रतिरोध तैय्यार करें. इस किताब को पढे़ ज़रूर, इसके विरुद्ध होने वाले तमाम दुष्प्रचारों को किनारे रख कर. यह सिर्फ़ एक प्रेम-कथा ही नहीं, एक गहरा भाषिक-सामाजिक विमर्श भी है. आभार Manish Kumar जी....
मुझे यह बहुत पसंद आई थी कुछ दिन पहले ही पढ़ी है ..सार्थक समीक्षा है
दीपिका, प्रवीण, अनु, रश्मि जी, मनीषा, अनूप जी, नेहा, प्रियंक, सुशीला जी, अनवर जी, रंजना जी ये पुस्तक चर्चा आपको रुचिकर लगी जानकर प्रसन्नता हुई।
उदय प्रकाश जी बिल्कुल आपने जो मुद्दे इस पुस्तक में उठाएँ हैं वे निश्चय ही भाषिक-सामाजिक विमर्श का मार्ग प्रशस्त करेंगे। आपने इस चर्चा में हिस्सा किया इसके लिए बहुत बहुत धन्यवाद।
vishv pustak diwas par ek karyakrm me ise dekh to khareed liya .padhna shuru kiya hai..kahani rochak aur alag andaz ki lag rahi hai...
मुंबई के जे एन पेटिट लाइब्रेरी में 'पीली छतरी वाली लड़की' एक ही बैठकी में पढ़ कर खत्म कर दिया था। काफी दिलचस्प अंदाज में कहानी बयां की है उदय जी ने।
हमने तो 'हंस' में किस्तोँ में पढ़ी थी ये कहानी। बाद में पूरी एक साथ भी पढ़ी लेखक के कहानी संग्रह में।
उदय प्रकाश की किताब की बात हो तो वारेन हेस्टिंग्स का सांढ़ पढ़कर देखिये, गज्ज़ब है
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