कुछ ग़ज़लें ऐसी होती हैं जिनकी सहजता आपको मुग्ध कर देती है। इन्हें समझने के लिए किसी बौद्धिक पराक्रम की आवश्यकता नहीं होती। ऐसे ही एक ग़ज़ल अंतरज़ाल पर पढ़ी थी आज से छः सात साल पहले। पहली बार पढ़कर ही इसके कई अशआर एकदम से याद हो गए थे। मक़ते में बतौर शायर किसी अमज़द साहब का जिक्र था। पर ये अमज़द पाकिस्तान के मशहूर शायर और धारावाहिकों के पटकथालेखक अमज़द इस्लाम अमज़द हैं इस बात का खुलासा कई दिनों बाद हुआ। आज अचानक ही इस ग़ज़ल के चंद पसंदीदा शेर ज़ेहन में फिर उभरे तो सोचा कि क्यूँ ना इस पूरी ग़ज़ल और इसके शायर से आपका परिचय करवा दूँ।
अमज़द इस्लाम अमज़द का जन्म सन 1944 में लाहौर में हुआ था। पिता का छोटा सा कारोबार था। पर नन्हे अमज़द को किताबें पढ़ने का शौक़ अपने पड़ोसी बैदर बख़्त के ज़रिए हुआ। इस शौक़ का असर ये हुआ कि वो स्कूल की पत्रिका के संपादक बन गए। पर स्कूल से कॉलेज में जाते वक़्त अमज़द साहब के सर पर एक और जुनून सवार हो गया था। ये बुखार था क्रिकेट का। पर उनका ख़्वाब तब चकनाचूर हो गया जब विश्विद्यालय की क्रिकेट टीम में उनका नाम चयनित खिलाड़ियों की सूची में नहीं आया। इस बीच उनका बीए का रिजल्ट आया और उन्हें आगे उर्दू पढ़ने के लिए वज़ीफा भी मिलने लगा। ये अमज़द साहब के जीवन को उर्दू साहित्य की तरफ़ मोड़ने के लिए महत्त्वपूर्ण वाक़या साबित हुआ। 1968 में MA करने के बाद उन्हें लाहौर के MAO कॉलेज में प्राध्यापक की नौकरी भी मिल गई।
अमज़द साहब ने इसी बीच रेडिओ के लिए भी काम करना शुरु किया। वे नाटक की पटकथाएँ लिखने लगे। उनकी पटकथाएँ उस समय टीवी रेडिओ पर काम करने वाले ज्यादातर निर्देशकों को पसंद नहीं आयीं। शुरु के पाँच सात सालों तक यही हाल रहा। फिर 1975 में उनका लिखा एक नाटक लाहौर में मंचित हुआ और उसे पुरस्कार भी मिला। नाटकों के पटकथा लेखक के रूप में उनकी पहचान यहीं से बननी शुरु हुई। 1979 में उनके लिखे धारावाहिक वारिस को जबरदस्त लोकप्रियता मिली और उनका नाम नाटक और धारावाहिकों के पटकथा लेखक के रूप में मशहूर हो गया। पिछले 23 सालों में अमज़द ने बारह धारावाहिक लिखे हैं जिन्हें साल दर साल पुरस्कारों से नवाज़ा जाता रहा है।
सातवां दर, ज़रा फिर से कहना और इतने ख़्वाब कहाँ रखूँगा उनके कुछ मुख्य प्रकाशित कविता संग्रहों में से है। वैसे देवनागरी में मैं उनके किसी संकलन से अब तक नहीं गुजरा हूँ। अमज़द इस्लाम अमज़द पटकथा लेखक से ज्यादा अपने आप को बतौर शायर ही याद किये जाने की तमन्ना रखते हैं। उनका कहना है कि कविता किसी की व्यक्तिगत रचनाशीलता का परिणाम है जबकि एक नाटक सामूहिक रचनाशीलता का। उनका मानना है कि कविता ही उनके व्यक्तित्व की भीतरी तहों तक पहुँचने का ज़रिया रही है। इसलिए शायरी उन्हें ज्यादा संतोष देती है।
कविता लेखन के बारे में उनकी सोच बेहद दिलचस्प है..
"मैं नहीं समझता कि कोई क्यूँ कविता लिखता है ये समझ पाना किसी के लिए मुमकिन है। मुझे ये भी नहीं पता कि ये आधे अधूरे वाक्यांश दिमाग में कैसे आते हैं ? क्यूँ हम शब्दों का इस तरह हेरफेर करते हैं कि वो ख़ुद बख़ुद मीटर में आ जाते हैं? पर इतना जानता हूँ कि जब लिखने का मूड मुझे पूरी तरह नियंत्रित कर लेता है और जब वो बातें मन से निकल कर क़ाग़ज के पन्नों पर तैरने लगती हैं तो मन एक अजीब से संतोष से भर उठता है। मन में जितनी ज्यादा उद्विग्नता होती है विचार उतनी ही तेजी से प्रस्फुटित होते हैं।
मैं मानता हूँ कि शायद हर समय कोई कारक इस प्रक्रिया में उत्प्रेरक का काम करता है। पर जो बाहर निकल कर आता है वो व्यक्ति के उस समय के व्यक्तित्व का रूप होता है। ये उद्गार उस समय मन में गृहित सारी बातों, उस विषय से जुड़े छोटे छोटे अनुभवों (जो तब तक हमारे ज़ेहन का हिस्सा बन चुके होते हैं) का सार होते हैं। मन मस्तिष्क में चलती ये सारी प्रक्रिया जो इस काव्य कला को मूर्त रूप देती है हमारे भीतर छुपे कविता रूपी हिमखंड का सिर्फ एक छोटा सा टुकड़ा है। मुझे नहीं लगता कि रचना की इस आंतरिक प्रक्रिया को पूरी तरह समझा जा सकता है और इसीलिए मेरी कविताओं के सृजन का रहस्य पूर्णतः ढूँढने में मैं कामयाब नहीं रहा हूँ।"
अमज़द साहब के लेखन के कुछ और पहलुओं की बातें तो अगली पोस्ट में होंगी। आइए आज आनंद उठाएँ रूमानियत में भींगी हुई उनकी इस प्यारी सी ग़ज़ल का। कोशिश तो बहुत की इसे उनकी आवाज़ में ढूँढने की पर जब विफलता हाथ लगी तो अपनी आवाज़ में इसे रिकार्ड कर आप तक पहुँचा रहा हूँ।
ख़ुद अपने लिए बैठ के सोचेंगे किसी दिन
यूँ है के तुझे भूल के देखेंगे किसी दिन
भटके हुए फिरते हैं कई लफ्ज़ जो दिल मैं
दुनिया ने दिया वक्त तो लिखेंगे किसी दिन
हिल जाएँगे इक बार तो अर्शों के दर ओ बाम1
ये ख़ाकनशीं2 लोग जो बोलेंगे किसी दिन
आपस की किसी बात का मिलता ही नहीं वक़्त
हर बार ये कहते हैं कि बैठेंगे किसी दिन
ऐ जान तेरी याद के बेनाम परिंदे
शाखों पे मेरे दर्द की उतरेंगे किसी दिन
जाती है किसी झील की गहराई कहाँ तक
आँखों में तेरी डूब कर देखेंगे किसी दिन
खुशबू से भरी शाम में जुगनू के कलम से
इक नज़्म तेरे वास्ते लिखेंगे किसी दिन
सोयेगे तेरी आँख की ख़लवत 3 मैं किसी रात
साये में तेरी ज़ुल्फ के जागेंगे किसी दिन
सहरा4 ए खराबी कि इसी गर्द ए सफ़ा से
फूलों से भरे रास्ते निकलेंगे किसी दिन
खुशबू की तरह मिस्ल5 ए सबा6 ख़्वाबनुमा से
गलियों से तेरे शहर की गुजरेंगे किसी दिन
अमज़द है यही अब कि कफ़न बाँध के सर पर
उस सहर ए सितमगर में जाएँगे किसी दिन
1. घर के दरवाजे और छत, 2 . गरीब, 3. एकांत, 4.जंगल, 5.समान, 6.हवा
अगली कड़ी में जानेंगे शायर की ख़ुद की ज़िदगी में प्यार की अहमियत उनकी एक नज़्म के साथ..
ख़ुद अपने लिए बैठ के सोचेंगे किसी दिन
यूँ है के तुझे भूल के देखेंगे किसी दिन
भटके हुए फिरते हैं कई लफ्ज़ जो दिल मैं
दुनिया ने दिया वक्त तो लिखेंगे किसी दिन
हिल जाएँगे इक बार तो अर्शों के दर ओ बाम1
ये ख़ाकनशीं2 लोग जो बोलेंगे किसी दिन
आपस की किसी बात का मिलता ही नहीं वक़्त
हर बार ये कहते हैं कि बैठेंगे किसी दिन
ऐ जान तेरी याद के बेनाम परिंदे
शाखों पे मेरे दर्द की उतरेंगे किसी दिन
जाती है किसी झील की गहराई कहाँ तक
आँखों में तेरी डूब कर देखेंगे किसी दिन
खुशबू से भरी शाम में जुगनू के कलम से
इक नज़्म तेरे वास्ते लिखेंगे किसी दिन
सोयेगे तेरी आँख की ख़लवत 3 मैं किसी रात
साये में तेरी ज़ुल्फ के जागेंगे किसी दिन
सहरा4 ए खराबी कि इसी गर्द ए सफ़ा से
फूलों से भरे रास्ते निकलेंगे किसी दिन
खुशबू की तरह मिस्ल5 ए सबा6 ख़्वाबनुमा से
गलियों से तेरे शहर की गुजरेंगे किसी दिन
अमज़द है यही अब कि कफ़न बाँध के सर पर
उस सहर ए सितमगर में जाएँगे किसी दिन
1. घर के दरवाजे और छत, 2 . गरीब, 3. एकांत, 4.जंगल, 5.समान, 6.हवा
अगली कड़ी में जानेंगे शायर की ख़ुद की ज़िदगी में प्यार की अहमियत उनकी एक नज़्म के साथ..
15 टिप्पणियाँ:
शब्दों की अठखेलियाँ और कविता का निर्माण, न जाने कौन सजा जाता है उनका क्रम।
जुगनू की कलम से नज़्म का लिखना......
बेहतरीन ....
शुक्रिया इस लाजवाब पोस्ट के लिए.....
अनु
अमज़द साहब को बेहतर जाना आपके माध्यम से!
ग़ज़ल तो ख़ैर पूछिए मत! पढ़ना -सुनना दोनों खूबसूरत।
खुशबु से भरी शाम में,जुगनू के कलम से
एक नज़्म तेरे वास्ते लिखेंगे किसी दिन .आपके हर ब्लॉग का प्रिंट आउट लेके आराम से पढेंगे
गुलज़ार कहते हैं की किताब वही जिनको सीने से लगाया जा सके :))
ऐ जान तेरी याद के बेनाम परिंदे
शाखों पे मेरी दर्द के उतरेंगे किसी दिन ..........किसी भी रचनाकर्ता की रचना उसके उस पल अहसासों की रवानगी होती है जो कागज पर उतर आती है ..........ये रवानी हम तक भी पँहुची है जिसका असर कई दिनों तक रहने वाला है ......बहुत उम्दा
khoobsurat gazal
aur
hunarmnd shaair se
ru.b.ru karvaane ke liye
shukriyaa .
वाह....इंतज़ार रहेगा अगली पोस्ट का...
शनिवार 16/06/2012 को आपकी यह पोस्ट http://nayi-purani-halchal.blogspot.in पर लिंक की जाएगी. आपके सुझावों का स्वागत है . धन्यवाद!
इतनी खूबसूरत गज़ल पढ़कर दिल बाग़-बाग़ हो गया! अगली पोस्ट का इंतज़ार है!
आपकी कलम से अमज़द जी को पढ़ना अच्छा लगा ... अगली प्रस्तुति की प्रतीक्षा रहेगी ... आभार
gud one Manish ji
देखेंगे इसी दिन.... लिक्खेंगे इसी दिन.....
खूबसूरत सृजन का रहस्य ...सुंदर सर्थक पोस्ट ...!!
प्रवीण जी, विश्व दीपक बिल्कुल
अनु, हिमांशु, अनुपमा जी पसंदगी का शुक्रिया
सोनरूपा जी "ये रवानी हम तक भी पँहुची है जिसका असर कई दिनों तक रहने वाला है " जान कर अच्छा लगा कि मेरी तरह आपको भी इस ग़ज़ल ने मन से सुकून पहुँचाया
यशोदा आभार आपका इस पोस्ट को पसंद करने और इसका उल्लेख करने के लिए
सुशीला जी, सदा जी शुक्रिया !
कविता जी, शांगरीला व दानिश भाई पसंदगी का शुक्रिया !
एक टिप्पणी भेजें