सोमवार, सितंबर 24, 2012

क्यूँ थामी फ़िराक़ गोरखपुरी ने कविता की डोर : अब अक्सर चुप-चुप से रहे हैं...

अली सरदार ज़ाफरी ने सन 1991-12 में उर्दू शायरी के कुछ दिग्गजों हसरत मोहानी, जिगर मोरादाबादी, जोश मलीहाबादी, मज़ाज लखनवी, मख़दूम मोहीउद्दीन व फ़िराक़ गोरखपुरी के बारे में कहकशाँ नाम से एक टीवी सीरियल बनाया था। दूरदर्शन पर उस वक़्त तो मैंने ये सीरियल नहीं देखा था पर इसमें इस्तेमाल हुई ग़ज़लों की वज़ह से मज़ाज जैसे शायरों से परिचय हुआ। जगजीत जी ने भी बहुत दिल लगा के इन सारी ग़ज़लों को हम तक पहुँचाया और शायद यही वज़ह है कि ग़ज़लों के जानकार कहकशाँ को जगजीत सिंह के सबसे बेहतरीन एलबमों में से एक मानते हैं। आज इस प्रविष्टि में मैं फ़िराक़ की ऐसी ही एक ग़ज़ल ले कर आपके सामने मुख़ातिब हूँ जो मेरे दिल के बेहद करीब है।

अली सरदार ज़ाफरी ने कहकशाँ में फिराक़ के अजीबो गरीब व्यक्तित्व का एक खाका खींचने की कोशिश की थी। अपनी पत्नी से सनक की हद तक नफ़रत, जोश से दोस्ती और कुछ दिनों की रंजिश, अपने भाई से प्रेम व अलगाव और ज़िंदगी के आखिर के दिनों में उनका अकेलापन ..ये सारे प्रसंग इस धारावाहिक में दिखाए गए थे। पर जाफ़री की नज़रों में अन्य शायरों की तुलना में फ़िराक़ का कद क्या था ? इस प्रश्न का उत्तर मुझे के सी कांदा के संपादित संग्रह Selected Poetry of Firaq Gorakhpuri में मिला। इस किताब में फ़िराक़ की शायरी पर पर अपनी राय ज़ाहिर करते हुए जाफ़री साहब लिखते हैं कि

"फ़िराक़ अपने ज़माने के महान शायरों में से एक थे पर ग़ालिब और मीर जैसे विश्व प्रसिद्ध शायरों की श्रेणी में उन्हें रखना सही नहीं है भले ही वो ख़ुद ऐसा कहते रहे हों । उनकी ग़ज़लों का विस्तार व्यापक था और उन्होंने अनेक विषयों को छुआ जिनमें रहस्यवाद, राजनीतिक और सामाजिक हालातों पर उनकी सोच शामिल है। पर ये सब होते हुए भी मैं मूलतः उनको अप्रतिम सौन्दर्य का कवि मानता हूँ जिसे एक प्रेमी की विभिन्न मानसिक अवस्थाओं को बखूबी चित्रित करने का कमाल हासिल था। उनकी अपनी एक शैली था। उनकी बातों मे एक प्रमाणिकता थी और वे भाषा को खूबसूरती से इस्तेमाल करने का फ़न जानते थे।"

पर ख़ुद फ़िराक़ अपनी शायरी के बारे में क्या सोचते थे ये जानना भी कम दिलचस्प नहीं है। पुस्तक नग्मानुमा में फ़िराक़ साहब ने अपने अंदर के कवि के बारे में कुछ बातें बाँटी हैं। अपने अंग्रेजी मे लिखे इस लेख में फ़िराक़ कहते हैं

"कवि के रूप में अपनी पहचान बनाने के पहले ही कविता मेरे अंदर जन्म ले चुकी थी। जब मैं बच्चा था तब किसी कुरूप पुरुष या स्त्री की गोद में नहीं जाता था। मुझे ना केवल शारीरिक कुरुपता से नफ़रत थी बल्कि लोगों के पहनावे, तहज़ीब, बोली में किसी भी तरह की कमी मुझे असहज कर देती थी। घर की आंतरिक साज सज्जा और बनावट व्यवस्थित व खूबसूरत हो तो मैं प्रसन्न हो जाया करता था। पेड़ पौधे, बागीचे और हरियाली या यूँ कहूँ कि ज़मीं और स्वर्ग के बीच प्रकृति का जो भी था वो मुझे अपनी ओर खींचता था। प्रकृति की छोटी सी हलचल और जीवन की मामूली सी घटना भी इस तरह मेरे हृदय में बैठ जाती थी कि मैं परेशान हो जाया करता था।  ये प्रभाव अवर्णनीय थे  पर इन्हें महसूस कर जो भावनाएँ मन में आती गयी वो मेरे दिलो दिमाग का हिस्सा बन गयीं। मैं संगीत और नृत्य की छोटी छोटी बारीकियों में इस तरह खो जाता कि वापस सामान्य स्थिति में पहुंचने में मुझे काफी वक़्त लगता।
बचपन और किशोरावस्था से गुजरते इस दौर में मेरी शादी हुई वो भी मेरे व मेरे परिवार के साथ धोखे व फ़रेब से। उस औरत की एक झलक मुझे गुस्से से आगबबूला कर देती थी। एक झटके में मेरा जीवन बर्बाद हो गया था। मुझे उस वक़्त ऐसा लगा कि मैंने कोई विषैला फल खा लिया हो। मेरा जीवन नफ़रतों से भर गया। पर मेरे भीतर कहीं कोई छुपी ताकत थी जिसने मुझे पूरी तरह समाप्त होने से बचा लिया। प्रकृति व अपने आस पास की घटनाओं के प्रति मेरी  संवेदनशीलता अभी भी मरी नहीं थी। मैं गहरी कल्पनाशीलता की ओर उन्मुख होने लगा था। भले ही कोई भाषा मुझे समझ आती या नहीं पर संगीत और शब्दों के आलाप को सुनकर मेरा दिल झंकृत हो जाया करता था। मेरे इस मिज़ाज ने साहित्य और कविता के प्रति मेरी रुचि जागृत की। जब मैं बीस साल का था तब  मैं उर्दू में कविता लिखने लगा। अपने निराशा भरे जीवन में शांति और चैन को पाना मेरी सबसे बड़ी चुनौती थी। अपनी कविता के माध्यम से मैं अपनी घुटन और पीड़ा से बाहर निकल सका।"
अपने जीवन के आखिरी सालों में फ़िराक़ शरीर से लाचार और नितांत अकेले हो गए थे। धारावाहिक कहकशाँ में ज़ाफरी साहब ने उनके जीवन के इन्ही सालों की व्यथा को दर्शकों तक पहुँचाने के लिए उनकी ग़जल के तीन अशआर का इस्तेमाल किया। जगजीत की आवाज़ से अच्छा दर्द बाँटने का माध्यम और क्या हो सकता था।


अब अक्सर चुप-चुप से रहे हैं यूँ ही कभो लब खोले हैं
पहले "फ़िराक़" को देखा होता अब तो बहुत कम बोले हैं

दिन में हम को देखने वालो अपने-अपने हैं औक़ात
जाओ न तुम इन ख़ुश्क आँखों पर हम रातों को रो ले हैं

ग़म का फ़साना सुनने वालो आख़िर्-ए-शब आराम करो
कल ये कहानी फिर छेड़ेंगे हम भी ज़रा अब सो ले हैं

जगजीत की ये ग़ज़ल तो आपने बारहा सुनी होगी। पर उन्होंने पूरी ग़ज़ल नहीं गाई। फ़िराक़ की आदत थी लंबी ग़ज़लें लिखने की। उनकी कोई ग़जल चार पाँच अशआर में शायद ही खत्म होती थी। इस ग़ज़ल के बारह शेर तो मैंने  खुद ही पढ़े हैं। आप भी आनंद लीजिए इस ग़ज़ल के कुछ अन्य चुनिंदा अशआर का

फ़ितरत मेरी इश्क़-ओ-मोहब्बत क़िस्मत मेरी तन्हाई
कहने की नौबत ही न आई हम भी कसू के हो ले हैं

बाग़ में वो ख़्वाब-आवर आलम मौज-ए-सबा  के इशारों पर
डाली डाली नौरस पत्ते सहस सहज जब डोले हैं
(प्रातःकालीन हवा की लहर)

खुनक स्याह महके हुए साए फैल जाएँ हैं जल थल पर
किन जतनों से मेरी ग़ज़ले रात का जूड़ा खोले हैं

(ये मेरी ग़ज़लों का जादू ही तो है जिसने इस ठंडी स्याह रात को अपने जूड़े रूपी गिरहों को इस तरह खोलने पर विवश कर दिया है कि वो इस ज़मीन से सागर तक फैल गई हैं।)

साक़ी भला कहाँ किस्मत में अब वो छलकते पैमाने
हम यादों के जाम चूम कर सूखे होंठ भिगो ले हैं

कौन करे है बातें मुझसे तनहाई के पर्दे में
ऐसे में किस की आवाज़ें कानों में रस घोले हैं

हम लोग अब तो पराये-से हैं कुछ तो बताओ हाल-ए-"फ़िराक़"
अब तो तुम्हीं को प्यार करे हैं अब तो तुम्हीं से बोले हैं

फ़िराक़ के बारे में जितना पढ़ता हूँ उनके व्यक्तित्व को समझना और भी मुश्किल होता जाता है।
एक ओर उनका नकचढ़ापन,ब्राह्य सुंदरता की पूजा,समलैंगिकता अपने समकालीनों से श्रेष्ठ होने का दंभ तो दूसरी ओर उनकी शायरी का दर्द जो हर बार उनकी ग़ज़लों में रह रह कर उभरता रहा...एक सच्चे इंसान के दिल की गवाही देता हुआ..

चलते चलते उनके इस पसंदीदा शेर के साथ आपसे इजाज़त चाहता हूँ

ये तो नहीं कि गम नहीं
हाँ मेरी आँख नम नहीं

तुम भी तो तुम नहीं हो आज
हम भी तो आज हम नहीं

एक शाम मेरे नाम पर जगजीत सिंह और कहकशाँ 

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16 टिप्पणियाँ:

rashmi ravija on सितंबर 24, 2012 ने कहा…

हमें भी बहुत अफ़सोस है कि कहकशाँ प्रोग्राम नहीं देख पाए...
फिराक की गज़लें जितना ही मुत्तासिर करती हैं...उनकी निजी जिंदगी की झलक सारा स्वाद बेमजा कर देती है.
इंसान कैसे भी रहे हों..शायर बेहतरीन थे,इस से तो इनकार नहीं किया जा सकता.

दीपिका रानी on सितंबर 24, 2012 ने कहा…

हमेशा की तरह जानकारी से लबरेज और मधुर पोस्ट...

ANULATA RAJ NAIR on सितंबर 24, 2012 ने कहा…

बहुत बढ़िया पोस्ट....
सभी को संजो लीजिए एक किताब के रूप में...
पाठकों का भला हो जायेगा...

अनु

daanish on सितंबर 24, 2012 ने कहा…

yahaaN aakar
sukoon aur maaloomaat
dono meiN izaafa ho jata hai...
shukriyaa .

rashmi ravija on सितंबर 24, 2012 ने कहा…

मेरा कमेन्ट स्पैम में गया :(

menghanivijay on सितंबर 24, 2012 ने कहा…

kahkasha dekhne ka sobhagay mila tha un dino pyar aur tanhai es program ko aur kareeb ke aati thi.
vijay

Anumeha ने कहा…

Bhagwaan bhala kare aapka.
sab kuch mil jata hai aapke blog main padhne ko

Manish Kumar on सितंबर 24, 2012 ने कहा…

रश्मि जी घबराइए नहीं आपके कमेन्ट स्पैम फोल्डर में भी सुरक्षित रहते हैं देर सबेर दिख ही जाएँगे। आपकी बात पढ़कर एक और प्रसंग याद आ रहा है

क़हकशाँ धारावाहिक में एक दृश्य आता है जब उन्हें कॉलेज के छात्र जन्मदिन की मुबारकबाद देने आते हैं। शेर ओ शायरी का दौर चल रहा होता है कि अचानक उनकी पत्नी की छाया पर्दे के भीतर से झाँकती है और वो बस उस छाया को देख कर अपना आपा खो बैठते हैं।

उनकी एक छात्रा कहती है आपको तो अपनी पत्नी की पूजा करनी चाहिए। आपकी शायरी में हुस्न ही हुस्न है फिर भी आप मोहब्बत के लिए तड़पते हैं। अगर आपको अपने पसंद की जीवन संगिनी मिली होती तो आप शेर नहीं कहते उसकी चरणों में बैठे रहते।

Without this ugliness where would be that immortal Firaq !

शारदा अरोरा on सितंबर 25, 2012 ने कहा…

behtreen gazal sunvane ka shukriya..dard ki jubaan to sabki ek si hoti hai..kudrat kuchh le leti hai to kuchh nyamat si de bhi to deti hai...Firaq ke jeevan se to yahi samajh aata hai mujhe...

suparna ने कहा…

thanks for posting Firaq's thoughts Manish, that made for some interesting reading.

@Rashmi - Youtube par Kehkashan ke episodes dekhe ja sakte hain. Kisi waqt socha tha dekhungi, phir khud bhool gayi thi - aapke comment se yaad aaya :)

suparna ने कहा…

aur Manish, 'expression' ne jo kaha uss baat par gaur farmaiyega :)

Manish Kumar on सितंबर 25, 2012 ने कहा…

@Suparna Bas aapke publisher banne ka intezaar kar rahe hain :)

@Rashmi ji : You tube par khojne ke bajay aap is blog par jayein aapka sara afsos door ho jayega :)

http://kahkashantvseries.blogspot.in/

Ankit on सितंबर 28, 2012 ने कहा…

आपके जरिये फ़िराक़ साब को थोडा और जानने का मौका मिला. शुक्रिया मनीष जी.
पिछले दिनों मैं फ़िराक़ साब के इस वीडिओ से गुज़रा था, हो सकता है आपने इसे देखा हो.
https://www.youtube.com/watch?v=X50TAiSu7xo&feature=player_embedded

Pihu Di ने कहा…

ek umdaa shaayar se rubru karane ka or shayari ka dhanyawad....

Himanshu Pandey on अक्टूबर 13, 2012 ने कहा…

जगजीत जी का ज़िक्र भी संवेदनात्मक ज्वार ले आता है। फ़िराक़ की अप्रतिम ग़ज़लें और जगजीत साहब का विरलतम स्वर...दोनों ही कहकशाँ को उल्लेखनीय बनाते हैं। आपके दिए लिंक से सीरियल भी देखूँगा...ग़ज़लें तो दिल में बसी हैं।

The Better World on अक्टूबर 11, 2017 ने कहा…

कहकशां थोड़ा बहुत देखा था पर तब स्कूल के बच्चे थे, समझ नहीं आता था कुछ, संजीदगी बाद में जीवन में आयी और ग़ज़लों के नशे का शौक भी बाद में हुआ..आपने बहुत शानदार विश्लेषण, जानकारी और बातें लिखी हैं..बहुत अच्छा लगा...शुक्रिया !!!

 

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