कुछ ही दिन पहले की बात है। एक मित्र ने फिराक़ गोरखपुरी साहब की एक ग़ज़ल भेजी और कहा कि क्या लिखा है यहाँ फिराक़ ने। ग़ज़ल पढ़ने के बाद लगा कि इसके अनुवाद को आप सबसे साझा करना बेहतर होगा। पर अनुवाद करने का उस वक़्त समय नहीं था। पिछले हफ्ते कार्यालयी दौरों में उत्तर और मध्य भारत के दो शहरों का चक्कर लगा कर जब वापस घर पहुँचा तो फुर्सत मिलते ही फिराक़ साहब की इस ग़ज़ल की याद आ गई।
बीसवीं सदी के शायरों में फिराक़ को ग़ज़लों में प्रेम के भावनात्मक, शारीरिक और आध्यात्मिक पहलुओं को बखूबी उभारने का श्रेय दिया जाता रहा है। जहाँ तक उनकी इस रचना का सवाल है, फिराक़ यहाँ अपनी काल्पनिक प्रेयसी की स्तुति ग़ज़लों की चिरपरिचित पारंपरिक शैली में करते नज़र आते हैं। पर ग़ज़ल में कही गई बातों से ज्यादा उनके कहने के तरीका मन को प्रभावित करता है। जिस खूबी से छोटे बहर की इस ग़ज़ल में फिराक़ ने शब्दों के दोहराव से अपने अशआर को सँवारा है वो काबिलेतारीफ़ है। ग़ज़ल के व्याकरण में इस तरह का प्रयोग पहले भी हुआ होगा पर दिमाग पर जोर डालने के बाद भी ऐसी कोई और ग़जल मुझे याद ना आ सकी।
ये ग़ज़ल मुझे किसी किताब में अपने वास्तविक स्वरूप में नहीं दिखी। नेट या ई मेल में अक्सर कई बार शायरी में प्रयुक्त शब्दों का हेर फेर हो जाता है जिससे अर्थ का अनर्थ हो जाता है। ई मेल के ज़रिए जो मिला उस में आंशिक सुधार के बाद इसका अनुवाद करने की कोशिश की है। अगर कोई त्रुटि दिखे तो जरूर इंगित कीजिएगा।
हिज़ाबों में भी तू नुमायाँ नुमायाँ
फरोज़ाँ फरोज़ाँ दरख़शाँ दरख़शाँ
तेरे जुल्फ-ओ-रुख़ का बादल ढूँढता हूँ
शबिस्ताँ शबिस्ताँ चरागाँ चरागाँ
पर्दे के पीछे से तेरा चेहरा कुछ यूँ दिख रहा है जैसे नीले गुलाबी रंग की मिश्रित आभा लिए हुए कोई माणिक चमकता हो। तेरी जुल्फें तेरे मुखड़े को इस तरह छू रही है जैसे फ़िरोजी आसमाँ में बादलों का डेरा हो। दीपों की रोशनी से नहाई हुई इस रात्रि बेला में शयनकक्ष की दीवारों के बीच मैं तेरी उसी छवि की तालाश में हूँ।
ख़त-ओ-ख़याल की तेरी परछाइयाँ हैं
खयाबाँ खयाबाँ गुलिस्ताँ गुलिस्ताँ
जुनूँ-ए-मुहब्बत उन आँखों की वहशत
बयाबाँ बयाबाँ ग़ज़ालाँ ग़ज़ालाँ
तेरे ख़त और उनमें लिखी तेरी बातें मेरी परछाई की तरह साथ रहती हैं। कोई डगर हो या कोई उपवन जहाँ भी जाऊँ तुम्हारे खयालों में ही डूबा रहता हूँ। तुम्हारी मोहब्बत ने मेरे दिल की दशा उस एकाकी हिरण की तरह कर दी है जो दीवानों की तरह निर्जन वन में दर बदर भटक रहा है।
फिराक़ ने इस ग़ज़ल के अगले शेर में मध्य एशिया के दो इलाकों की विशिष्ट पहचान को एक बिंब के तौर पर इस्तेमाल किया है। पहले बात करें तातारी लोगों की जो रूसी व तुर्की भाषाएँ बोलने वाली एक जाति है और अधिकतर मध्य एशिया में बसती है। कहते हैं कि प्राचीन काल में मध्य एशिया की तातार नामक नदी के संबंध से ये लोग तातार कहे जाने लगे। तातार के इस इलाके में कस्तूरी मृग का वास होता था। पर सिर्फ तातारी लोगों के बारे में जान लेने से फिराक़ की महबूबा के हुस्न की गहराई आप नहीं समझ पाएँगे। फिराक़ साहब के इस शेर में जिस दूसरे इलाके का जिक्र हुआ है वो है बदख़्शाँ। आज के उत्तर पूर्वी अफ़गानिस्तान और दक्षिण पूर्वी ताज़कस्तान के बीच के इस क्षेत्र मे पाया जाने वाला लाल माणिक रूबी बेहद खूबसूरत होता है। तो लौटें इस शेर पर
लपट मुश्क-ए-गेसू की तातार तातार
दमक ला’ल-ए-लब की बदख़्शाँ बदख़्शाँ
वही एक तबस्सुम चमन दर चमन है
वही पंखुरी है गुलिस्ताँ गुलिस्ताँ
यही ज़ज्बात-ए-पिन्हाँ की है दाद काफी
चले आओ मुझ तक गुरेजाँ गुरेजाँ
तेरी जुल्फों से आती खुशबू ऐसी है जैसे तातारी मृग से आती कस्तूरी की महक।
तेरे सुर्ख होठों का लाल रंग याद दिला देता है मुझे बदख़्शाँ के उस दमकते
लाल माणिक की। तेरी मुस्कुराहट से इस फ़ज़ा की हर कली खिल उठती है। अब तो तुम्हें मेरे दिल के इन छिपे अहसासों का भान हो चला होगा। मेरी इल्तिजा है कि मेरे करीब आओ और जल्द दिलों की इस दूरी को खत्म कर दो।
“फिराक” खाज़ीं से तो वाकिफ थे तुम भी
वो कुछ खोया खोया परीशाँ परीशाँ
मक़ते में खाज़ीं लफ़्ज़ सही है इसमें मुझे अभी भी संदेह है।
फिराक़ ने प्रेम पर खूब लिखा। वो भी तब जब पत्नी के साथ एक छत के नीचे रहते हुए भी उनकी व्यक्तिगत ज़िंदगी एकाकी ही बीती। युवावस्था में हुआ उनका विवाह उनके लिए जीवन की सबसे कष्टप्रद घटना थी। फिराक़ को बदसूरत लोगों से बचपन से ही घृणा थी। अपनी पत्नी से वो इसी वज़ह से नफ़रत करते थे। उन्होंने अपने एक लेख में लिखा भी है कि उनका विवाह छल से किया गया।पर इसके बावज़ूद उनकी कविता में प्रेम का तत्त्व पुरज़ोर तरीके से उभरा। शायद जीवन में प्रेम की अनुपस्थिति ने उन्हें इसके बारे में और कल्पनाशील होने में मदद की। अपने एक शेर में उन्होंने कहा था..
सुनते हैं इश्क़ नाम के गुजरे हैं इक बुजुर्ग
हम लोग भी मुरीद इसी सिलसिले के हैं
अगली प्रविष्टि में बात करेंगे फिराक़ साहब की लिखी उनकी एक और पसंदीदा ग़ज़ल के बारे में...सुनते हैं इश्क़ नाम के गुजरे हैं इक बुजुर्ग
हम लोग भी मुरीद इसी सिलसिले के हैं
12 टिप्पणियाँ:
त्रुटियाँ बताने की तो औकात ही नहीं है हमारी...
शुक्रगुजार हूँ इस पोस्ट के लिए..बेहतरीन गज़ल और वो भी अनुवाद के साथ...आनंद आ गया..
शुक्रिया.
अनु
आपकी इस पोस्ट से अद्भुत जानकारी मिली भाई मनीष जी आभार |
धन्यवाद ,आभार ,आप लिखते रहिये,हम पढ़ते रहेंगे :))
हर बार न जाने कितना ज्ञान बढ़ जाता है।
आपकी इस उत्कृष्ट प्रविष्टि की चर्चा कल मंगलवार १८/९/१२ को चर्चा मंच पर चर्चाकारा राजेश कुमारी द्वारा की जायेगी आपका चर्चा मच पर स्वागत है |
अरसे बाद ब्लॉग गली आना हो पाया...पर आकर लगा कितना कुछ मिस किया...
कहाँ कहाँ से, क्या क्या ढूंढ लाते हैं आप भी न...गज्ज़ब !!!
आभार...
अनुवाद के साथ पढ़ना अच्छा लगा बहुत ...
बेहतरीन ... फिराक साहब की ग़ज़लें नए दौर की ग़ज़लें हैं .. अनुवाद के साथ पड़ना और भी लाजवाब लगा ... शिक्रिया ..
लाजबाव पोस्ट है मनीष जी ........व्यस्तताओं से समय निकालना मुश्किल हो रहा था ....लेकिन आज निश्चय किया कि आपके ब्लॉग को तो पढ़ना ही है .......और वास्तव में पढकर ऐसा लगा कि एक नायाब तोहफ़ा दिया है आपने हम रीडर्स को .....एक खूबसूरत ग़ज़ल बेहतरीन अनुवाद के साथ !
इस चिट्ठे पर न आते रहना एक ताड़ना-सी लगती है!
मुद्दत बाद ब्लॉग की और लौटना फिर इस ग़ज़ल को अनुवाद के साथ पढ़ना! पुर सुकून अहसास।
बार-बार शुक्रिया!
Hi Manish,
Came across your blog while looking for explanation of Firaq's ghazal - sar mein sauda bhi nahin...
A very comprehensive and prolific one. Impressive.
Just wondering if you are considering talking about this specific ghazal of Firaq's. The words are simple, but I want to know someone else's persepctive of it. Specially the first two lines...
Sar mein sauda bhi nahin dil mein tamanna bhi nahin
Lekin is tarq-e-mohabbat ka bharosa bhi nahin
rgds,
Namrata
Thx Namrata for appreciating my efforts on the blog. Hope u will come here more often. Coming to your question regarding my interpretation of Firaq's sher
Sar mein sauda bhi nahin dil mein tamanna bhi nahin
Lekin is tarq-e-mohabbat ka bharosa bhi nahin
मेरे दिलो दिमाग में उसे पाने के लिए ना वैसा पागलपन रहा ना ही चाहत का कोई अक़्स बचा लगता है। पर इस टूटे दिल पर कैसे विश्वास करूँ? क्या पता कब ये दूसरी करवट ले बैठे?
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