कहकशाँ पर आधारित इस श्रृंखला में आज जिक्र जोश मलीहाबादी का। इक ज़माना था जब कहकशाँ में शामिल इस ग़ज़ल की उदासी दिल में समाती हुई आँखों तक तैर जाती थी। सोचता था किसी नाजुक हृदय वाले शख़्स ने ही ये अशआर कहे होंगे। कितना गलत था मैं! जोश साहब के जमींदारी डील डौल को देख कर भला कौन कहता कि ये शायर ऐसी कविताएँ लिख सकता होगा।
1894 में उत्तर प्रदेश के मलीहाबाद में जन्मे जोश मलीहाबादी ने कहने को तो इंकलाबी और रूमानी दोनों तरह की शायरी की पर अधिकांश समीक्षक उनकी रूमानी शायरी को ज्यादा तवज़्जह देते हैं। ख़ैर मैं बात कर रहा था जोश के व्यक्तित्व की। जोश का जन्म एक ऐसे रईस जमींदारों के खानदान में हुआ जहाँ एक ओर तो बाप दादाओं की शायरी की विरासत थी तो दूसरी ओर सामंती वातावरण में पनपता दमन का माहौल भी था। जोश ने नौ साल की उम्र से शेर कहने शुरु कर दिए पर साथ ही साथ उनमें बड़े घर का होने का अहम भी सवार हो गया। अपनी आत्मकथा यादों की बारात में जोश अपने बचपन का जिक्र करते हुए कहते हैं
"..मैं लड़कपन में बेहद बदमिज़ाज था। गुस्से की हालत ये थी कि मन के खिलाफ़ कोई बात हुई नहीं कि मेरे रोएँ रोएँ से चिंगारियाँ निकलने लगती थीं। मेरा सबसे प्यारा शगल ये था कि एक ऊँची सी मेज़ पर बैठकर अपने हमउम्र बच्चों को जो भी जी में आता अनाप शनाप पाठ दिया करता था। पाठ देते वक़्त मेरी मेज़ पर एक पतली सी छड़ी रखी रहती थी और जो बच्चा ध्यान से मेरा पाठ नहीं सुनता था उसे मैं छड़ी से इस बुरी तरह पीटता था कि वो बच्चा चीखें मार मार कर रोने लगता था। .."
पर इस उद्दंडता के साथ जोश के स्वभाव में भावुकता भी घर करने लगी थी। शायद इसी भावुकता और हठी स्वभाव की वज़ह से युवावस्था में वे अपने पिता की छत्रछाया से निकलकर अपना एक अलग ही निशाँ ढूँढने लगे। जोश उर्दू व्याकरण के अच्छे जानकार थे। अपने बच्चों को इस भाषा से जुदा ना होना पड़े इसलिए आज़ादी के दस साल अपना वतन छोड़ कर वो सरहद पार चले गए। जोश अपनी आत्मकथा में लिखते हैं कि उनके पिता बशीर अहमद खाँ बशीर ज़बान के बारे में मशहूर शायर दाग़ की इस बात के क़ायल थे
उसको कहते हैं ज़बाने उर्दू
जिसमें ना पुट हो फ़ारसी का
पर मज़े की बात ये है कि इतना सब होते हुए भी उनकी ख़ुद की शायरी में अरबी और फ़ारसी के शब्दों की भरमार है। तो लौटते हैं आज की ग़ज़ल पर। जोश साहब का हर शेर क़माल का है और आख़िरी शेर का तो कहना ही क्या ! बस पढ़ कर वाह वाह ही निकलती है।तो आइए देखें अपने प्रियतम से जुदा होने की बेला को उन्होंने अपनी इस ग़ज़ल में कैसे ढाला है?
तुझसे रुख़सत की वो शाम-ए-अश्क़-अफ़शाँ हाए हाए,
वो उदासी वो फ़िज़ा-ए-गिरिया सामा हाए हाए,
मुझे याद है विदाई की वो शाम जब तुम्हारी आँखों से आँसू की बूँदे छलकी जा रही थीं। पूरे वातावरण में फैली उदासी और सबका रोना धोना सुन कर मेरा दिल ज़ार ज़ार हुआ जा रहा था।
याँ कफ़-ए-पा चूम लेने की भिंची सी आरज़ू,
वाँ बगलगीरी का शरमाया सा अरमान हाए हाए,
वो मैं ही जानता हूँ कि किस तरह हम दोनों ने अपने दिल जुदाई की उन मुश्किल घड़ियों में काबू किए थे। उफ्फ तुम्हारी उन नाज़ुक हथेलियों को चूमने की मेरी हसरत, और वो तुम्हारी मुझसे गले मिलने की चाहत ...शर्म और लिहाज़ के आवरण में बस एक ख़्वाहिश बन कर ही रह गयी।
वो मेरे होंठों पे कुछ कहने की हसरत वाए शौक़,
वो तेरी आँखों में कुछ सुनने का अरमान हाए हाए,
धिक्कार है ऐसे प्रेम को जो इतनी भी हिम्मत ना जुटा सका कि दिल की बातें होठों पे ले आता। तुम्हारी आँखें कुछ ना कहते हुए भी सब कह गयीं। तुम्हारी उस कातर दृष्टि में मेरे होठों से वो सब ना सुन पाने की जो शिकायत थी उसे मैं किस तरह भुला पाऊँगा।
सच कहूँ तो जब मैं इस ग़जल में प्रयुक्त अरबी फ़ारसी शब्दों का अर्थ नहीं जानता था तब भी ये ग़ज़ल मुझे उतना ही संजीदा करती थी जितना की आज करती है। ये जादू जगजीत की आवाज़ का था जो ग़ज़ल में समाए दर्द को बिना किसी मुश्किल के आँख की कोरों तक पहुँचा दिया करता था। ये विशेषता होती है इक काबिल फ़नकार की जो जगजीत की आवाज़ में कूट कूट कर भरी थी। तो आइए सुनते हैं जगजीत जी की आवाज़ में जोश मलीहाबादी की ये ग़ज़ल
उसको कहते हैं ज़बाने उर्दू
जिसमें ना पुट हो फ़ारसी का
पर मज़े की बात ये है कि इतना सब होते हुए भी उनकी ख़ुद की शायरी में अरबी और फ़ारसी के शब्दों की भरमार है। तो लौटते हैं आज की ग़ज़ल पर। जोश साहब का हर शेर क़माल का है और आख़िरी शेर का तो कहना ही क्या ! बस पढ़ कर वाह वाह ही निकलती है।तो आइए देखें अपने प्रियतम से जुदा होने की बेला को उन्होंने अपनी इस ग़ज़ल में कैसे ढाला है?
तुझसे रुख़सत की वो शाम-ए-अश्क़-अफ़शाँ हाए हाए,
वो उदासी वो फ़िज़ा-ए-गिरिया सामा हाए हाए,
मुझे याद है विदाई की वो शाम जब तुम्हारी आँखों से आँसू की बूँदे छलकी जा रही थीं। पूरे वातावरण में फैली उदासी और सबका रोना धोना सुन कर मेरा दिल ज़ार ज़ार हुआ जा रहा था।
याँ कफ़-ए-पा चूम लेने की भिंची सी आरज़ू,
वाँ बगलगीरी का शरमाया सा अरमान हाए हाए,
वो मैं ही जानता हूँ कि किस तरह हम दोनों ने अपने दिल जुदाई की उन मुश्किल घड़ियों में काबू किए थे। उफ्फ तुम्हारी उन नाज़ुक हथेलियों को चूमने की मेरी हसरत, और वो तुम्हारी मुझसे गले मिलने की चाहत ...शर्म और लिहाज़ के आवरण में बस एक ख़्वाहिश बन कर ही रह गयी।
वो मेरे होंठों पे कुछ कहने की हसरत वाए शौक़,
वो तेरी आँखों में कुछ सुनने का अरमान हाए हाए,
धिक्कार है ऐसे प्रेम को जो इतनी भी हिम्मत ना जुटा सका कि दिल की बातें होठों पे ले आता। तुम्हारी आँखें कुछ ना कहते हुए भी सब कह गयीं। तुम्हारी उस कातर दृष्टि में मेरे होठों से वो सब ना सुन पाने की जो शिकायत थी उसे मैं किस तरह भुला पाऊँगा।
सच कहूँ तो जब मैं इस ग़जल में प्रयुक्त अरबी फ़ारसी शब्दों का अर्थ नहीं जानता था तब भी ये ग़ज़ल मुझे उतना ही संजीदा करती थी जितना की आज करती है। ये जादू जगजीत की आवाज़ का था जो ग़ज़ल में समाए दर्द को बिना किसी मुश्किल के आँख की कोरों तक पहुँचा दिया करता था। ये विशेषता होती है इक काबिल फ़नकार की जो जगजीत की आवाज़ में कूट कूट कर भरी थी। तो आइए सुनते हैं जगजीत जी की आवाज़ में जोश मलीहाबादी की ये ग़ज़ल
एक शाम मेरे नाम पर जगजीत सिंह और कहकशाँ
- फि़राक़ गोरखपुरी : अब अक्सर चुप-चुप से रहे हैं यूँ ही कभो लब खोले हैं...
- जोश मलीहाबादी : तुझसे रुख़सत की वो शाम-ए-अश्क़-अफ़शाँ हाए हाए...
- हसरत मोहानी : तोड़कर अहद-ए-करम ना आशना हो जाइए
- मजाज़ लखनवी : देखना जज़्बे मोहब्बत का असर आज की रात..
- मजाज़ लखनवी : अब मेरे पास तुम आई हो तो क्या आई हो
- हसरत मोहानी : रौशन जमाल-ए-यार से है अंजुमन तमाम
7 टिप्पणियाँ:
सच बताऊँ, जोश का चित्र नहीं देखा था मैंने। बहुत पढ़ा भी नहीं इन्हें।
हाँ, यहाँ तो चित्र भी देख रहा हूँ और ग़ज़लों के शेर भी पूरे मतलब के साथ पढ़ रहा हूँ।
और जगजीत साहब की आवाज के साथ इस प्रविष्टि का सम्पन्न होना...असली प्रभाव!
वार्षिक संगीतमालाओं और जगजीत साहब ने नत्थी कर दिया है मुझे इस चिट्ठे से। आभार!
भाषा का प्यार सरहदों को नहीं देखता है।
Your posts are among the best Manish ji.
manishji josh ji jaisi shakhsiyat v unki shayri se rubru krane ka or jagjit ji ki dil chune wali ghazal ka shukriya...
गज़ल को समझाकर सुनाना इस ब्लॉग की खासियत है ...और उस पर चुनाव बेहतर का ...क्या खूब !!!
बहुत से अरबी फारसी के लफ्ज तो आपकी बदौलत हम जानने लगे हैं.. आज भी पेशकश भी उम्दा रही।
मनीष जी,बहुत ही खुबसूरत पोस्ट .
पढके कहकशाँ को एक बार फिर देखने का मन बना लिए हम !!
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