पहले दक्षिणी महाराष्ट्र और फिर कानाताल की दस बारह दिनों की यात्रा की वज़ह से दूरदर्शन के पुराने धारावाहिक कहकशाँ में अलग अलग शायरों के साथ जगजीत की सुरीली आवाज़ के सफ़र में विराम लग गया था। आज कहकशाँ से जुड़ी इस श्रृंखला की आखिरी कड़ी में बात करते हैं मजाज़ लखनवी की लिखी नज़्म एतराफ़ की। मजाज़ की इस नज़्म को आम जनों तक पहुँचाने में जगजीत की दर्द में डूबी आवाज़ का बहुत बड़ा हाथ रहा है। कहकशाँ में शामिल ग़ज़लों और नज़्मों में अरबी फ़ारसी शब्दों की बहुतायत होने की वज़ह से उन्हें पूरी तरह समझना हर ग़ज़ल प्रेमी के लिए चुनौतीपूर्ण रहा है। पर इस नज़्म में तो मजाज़ ने ऐसे ऐसे रूपकों का इस्तेमाल किया है कि सामान्य उर्दू जानने वाले भी चकरा जाएँ।
जगजीत जी की इस बात के लिए तारीफ़ करनी होगी कि उन्होंने इतनी कठिन भाषा के बावज़ूद भी अपनी गायिकी से इस नज़्म के मर्म को श्रोताओं तक भली भांति पहुँचा दिया। एक शाम मेरे नाम के पाठकों के लिए दीपावली की सौगात के रूप में पेश है मजाज़ की पूरी नज़्म उसके अनुवाद की एक कोशिश के साथ ताकि अगली बार जब भी आप ये नज़्म पढ़ें, सुनें या गुनगुनाएँ उसकी भावनाएँ आपके दिलो दिमाग पर और गहरी उतर सकें।
जगजीत जी की इस बात के लिए तारीफ़ करनी होगी कि उन्होंने इतनी कठिन भाषा के बावज़ूद भी अपनी गायिकी से इस नज़्म के मर्म को श्रोताओं तक भली भांति पहुँचा दिया। एक शाम मेरे नाम के पाठकों के लिए दीपावली की सौगात के रूप में पेश है मजाज़ की पूरी नज़्म उसके अनुवाद की एक कोशिश के साथ ताकि अगली बार जब भी आप ये नज़्म पढ़ें, सुनें या गुनगुनाएँ उसकी भावनाएँ आपके दिलो दिमाग पर और गहरी उतर सकें।
हिंदी में एतराफ़ का अर्थ होता है स्वीकारोक्ति। पर मजाज़ इस नज़्म के माध्यम से आख़िर क्या स्वीकार करना चाहते थे? मजाज़ किस तरह एक शादी शुदा रईसजादी के इश्क़ में गिरफ्तार हुए और किस तरह उनकी मोहब्बत उन्हें पागलपन की कगार पर ले गई, ये किस्सा मैं आपको उनकी मशहूर नज़्म आवारा के बारे में लिखते हुए सुना चुका हूँ। बस इतना कहना चाहूँगा कि मजाज़ के इस दर्द में आप अगर पूर्णतः शरीक होना चाहते हैं तो आवारा से जुड़ी उन प्रविष्टियों को जरूर पढ़ें।
अब मेरे पास तुम आई हो तो क्या आई हो?
मैने माना कि तुम इक पैकर-ए-रानाई हो
चमन-ए-दहर में रूह-ए-चमन आराई हो
तिलअत-ए-मेहर हो फ़िरदौस की बरनाई हो
बिन्त-ए-महताब हो गर्दूं से उतर आई हो
मुझसे मिलने में अब अंदेशा-ए-रुसवाई है
मैने खुद अपने किये की ये सज़ा पाई है
एतराफ़ की शुरुआत मजाज़ अपनी नायिका की सुंदरता के बखान से करते हैं। मजाज़ कहते हैं कि मैं जानता हूँ कि तुम सौन्दर्य की एक प्रतिमा हो। अगर ये संसार एक खूबसूरत वाटिका है तो तुम उस फुलवारी की सुंदरता का केंद्रबिंदु हो। तुम्हारे यौवन में दहकते सूर्य की छवि है। तुम्हारा रूप स्वर्ग की अप्सरा का सा है। कभी कभी तो लगता है कि तुम उस हसीं चाँद की बेटी हो जो आकाश से उतर कर इस धरा पर आ गई है । पर आज तुम्हारे इस सौन्दर्य का मैं क्या करूँ? सच तो ये है कि आज के हालातों में बदनामी के डर से शायद ही तुम मुझसे मिलने की कोशिश करो। मैंने अपनी ज़िदगी को अब तक जिस तरह जिया है उसी की सज़ा मैं भोग रहा हूँ।
अब मेरे पास तुम आई हो तो क्या आई हो?
ख़ाक में आह मिलाई है जवानी मैने
शोलाज़ारों में जलाई है जवानी मैने
शहर-ए-ख़ूबां में गँवाई है जवानी मैने
ख़्वाबगाहों में गँवाई है जवानी मैने
हुस्न ने जब भी इनायत की नज़र ड़ाली है
मेरे पैमान-ए-मोहब्बत ने सिपर ड़ाली है
क्या कहूँ अब सोचता हूँ तो लगता है कि मैंने अपनी जवानी व्यर्थ ही बर्बाद कर ली। सुंदरियों के नगर में, ख़्वाबों को जन्म देने वाले उन शयनागारों में , हुस्न के उन शोलों के बीच आखिर मुझे क्या मिला ? जब जब किसी शोख़ नज़र ने अपनी चाहत का दामन मेरी तरफ़ फैलाया अपने पहले प्रेम के संकल्प की ढाल से मैंने उसे दूर ढकेल दिया।
उन दिनों मुझ पे क़यामत का जुनूँ तारी था
सर पे सरशारि-ए-इशरत का जुनूँ तारी था
माहपारों से मोहब्बत का जुनूँ तारी था
शहरयारों से रक़ाबत का जुनूँ तारी था
बिस्तर-ए-मखमल-ओ-संजाब थी दुनिया मेरी
एक रंगीन-ओ-हसीं ख्वाब थी दुनिया मेरी
जन्नते शौक़ थी बेगान ए आफ़ाते समूम
दर्द जब दर्द ना हो काविशे दरमाँ मालूम
खाक़ थे दीद ए बेबाक में गरदूँ के नजूम
बज़्मे परवीन भी निगाहों में कनीज़ों का हुजूम
लैल ए नाज़ बरअफ़गंदा नक़ाब आती थी
अपनी आँखों में लिए दावत ए ख़्वाब आती थी
उन दिनों दिलो दिमाग पर मौज मस्ती का नशा छाया हुआ था। चाँद के उन हसीन टुकड़ों को मैं अपनी मोहब्बत का हासिल समझने लगा था। मेरे गुरूर की इंतहा इस हद तक थी कि हुस्न के मैदान में मैं बादशाहों से भी मुकाबला करने को तैयार था। मखमल के बिस्तर में सिमटा मेरा वो संसार एक हसीन सपने की तरह था। गर्म हवा की आफ़तों से अपरिचित वो दुनिया मेरे लिए प्रेम का स्वर्ग के समान दिखती थी। मेरा पास उस वक़्त हर दर्द की दवा थी। तब मुझे ऐसा लगता था कि मेरी बेबाक नज़रे आसमान के तारों तक को खाक़ में मिला सकती हैं। सुन्दरियों की महफिल मुझे दासियों का हुजूम लगती थी।
वैसे ये जुनूँ बेवज़ह तो नहीं था। वो भी क्या दिन थे ! नाज़ नखरों में पली बढ़ी सुंदरियाँ तक नक़ाब उठा कर मुझे आँखों ही आँखों में अपनी ख़्वाबगाह में आने का निमंत्रण दे डालती थी।
संग को गौहरे नायाबों गिराँ जाना था
दश्ते पुरख़ार को फ़िरदौसे जवाँ जाना था
रेग को सिलसिल ए आबे रवाँ जाना था
आह ये राज अभी मैंने कहाँ जाना था
मेरी हर फतह में है एक हज़ीमत पिनहाँ
हर मुसर्रत में है राज़े ग़मो हसरत पिनहाँ
क्या सुनोगी मेरी मजरूह जवानी की पुकार
मेरी फ़रियाद-ए-जिगरदोज़ मेरा नाला-ए-ज़ार
शिद्दत-ए-कर्ब में ड़ूबी हुई मेरी गुफ़्तार
मै के खुद अपने मज़ाक़-ए-तरब आगीं का शिकार
वो गुदाज़-ए-दिल-ए-मरहूम कहाँ से लाऊँ
अब मै वो जज़्बा-ए-मासूम कहाँ से लाऊँ
अब मेरे पास तुम आई हो तो क्या आई हो?
पर शायद वो मेरा बचपना था। दुनिया के तौर तरीकों से मैं वाकिफ़ नहीं था।
मैं क्या जानता था कि एक पत्थर भी दुर्लभ मोती जवाहरात बनने की लालसा रखता है!
काँटेदार जंगल भी खिलती बगिया का रूप रखने की आस रखता है!
रेत के कण भी बहती धारा के साथ सागर को चूमने की ख्वाहिश रखते हैं!
वो भी अपने सुनहरे भविष्य की आस में मुझे छोड़ कर चली गई। गर्व और अहंकार में डूबी मेरी उस ज़िदगी की हर जीत अब शिकस्त में तब्दील हुई लगती है। ध्यान से देखो तो पाओगी कि मेरे हर खुशी के पीछे कई ग़म चेहरा छुपाए बैठे हैं। अपने इस घायल हृदय की हालत को तुम से अब क्या बयाँ करूँ? कौन समझेगा मेरी हृदय को चीरनेवाली इस फ़रियाद को, आँसू भरे गीतों को व दर्द में डूबी मेरी बातों को। हालात ये हैं कि मैं ख़ुद अपने तौर तरीकों की वज़ह से सबके बीच मजाक़ का पात्र बन गया हूँ। तुमने आने में अब बहुत देर कर दी है। तुम्हीं कहो अब इस मरे हुए दिल में वो कोमलता कहाँ से लाऊँ? अपनी भावनाओं में वो पहली वाली मासूमियत कहाँ से लाऊँ?
मेरे साये से डरो, तुम मेरी कुरबत से डरो
अपनी जुरअत की कसम , तुम मेरी जुरअत से डरो
तुम लताफ़त हो अगर, मेरी लताफ़त से डरो
मेरे वादों से डरो, मेरी मोहब्बत से डरो
अब में अल्ताफ़ो इनायत का सज़ावार नही
मैं वफ़ादार नहीं, हाँ मैं वफ़ादार नहीं
अब मेरे पास तुम आई हो तो क्या आई हो?
नज़्म का ये आख़िरी हिस्सा मजाज़ के दिल मैं फैले नैराश्य को सामने लाता है। मजाज़ को अपनी ज़िदगी अपने साये तक से नफ़रत हो गई है। इसलिए वो नायिका को अपने से दूर रहने की सलाह देते हैं। जिस वफ़ा, कोमलता, रूमानियत समाज से लड़ने के जज़्बे को वो अपने व्यक्तित्व का हिस्सा बना कर चले थे उन पर उनका खुद का विश्वास डगमगा गया था। मजाज़ ने ये नज़्म 1945 में लिखी थी यानि अपनी मृत्यु के ग्यारह साल पहले। जीवन के अंतिम सालों में वे अपने मानसिक संतुलन खो बैठे थे। इलाज से उनकी हालत में सुधार जरूर हुआ पर एकाकी जीवन और शराब पीने की लत ने उन्हें इस दुनिया को छोड़ने पर मजबूर कर दिया। तो आइए एक बार फिर सुनें इस नज़्म में छुपी शायर की पीड़ा को जगजीत की आवाज़ में...
अब मेरे पास तुम आई हो तो क्या आई हो?
मैने माना कि तुम इक पैकर-ए-रानाई हो
चमन-ए-दहर में रूह-ए-चमन आराई हो
तिलअत-ए-मेहर हो फ़िरदौस की बरनाई हो
बिन्त-ए-महताब हो गर्दूं से उतर आई हो
मुझसे मिलने में अब अंदेशा-ए-रुसवाई है
मैने खुद अपने किये की ये सज़ा पाई है
एतराफ़ की शुरुआत मजाज़ अपनी नायिका की सुंदरता के बखान से करते हैं। मजाज़ कहते हैं कि मैं जानता हूँ कि तुम सौन्दर्य की एक प्रतिमा हो। अगर ये संसार एक खूबसूरत वाटिका है तो तुम उस फुलवारी की सुंदरता का केंद्रबिंदु हो। तुम्हारे यौवन में दहकते सूर्य की छवि है। तुम्हारा रूप स्वर्ग की अप्सरा का सा है। कभी कभी तो लगता है कि तुम उस हसीं चाँद की बेटी हो जो आकाश से उतर कर इस धरा पर आ गई है । पर आज तुम्हारे इस सौन्दर्य का मैं क्या करूँ? सच तो ये है कि आज के हालातों में बदनामी के डर से शायद ही तुम मुझसे मिलने की कोशिश करो। मैंने अपनी ज़िदगी को अब तक जिस तरह जिया है उसी की सज़ा मैं भोग रहा हूँ।
अब मेरे पास तुम आई हो तो क्या आई हो?
ख़ाक में आह मिलाई है जवानी मैने
शोलाज़ारों में जलाई है जवानी मैने
शहर-ए-ख़ूबां में गँवाई है जवानी मैने
ख़्वाबगाहों में गँवाई है जवानी मैने
हुस्न ने जब भी इनायत की नज़र ड़ाली है
मेरे पैमान-ए-मोहब्बत ने सिपर ड़ाली है
क्या कहूँ अब सोचता हूँ तो लगता है कि मैंने अपनी जवानी व्यर्थ ही बर्बाद कर ली। सुंदरियों के नगर में, ख़्वाबों को जन्म देने वाले उन शयनागारों में , हुस्न के उन शोलों के बीच आखिर मुझे क्या मिला ? जब जब किसी शोख़ नज़र ने अपनी चाहत का दामन मेरी तरफ़ फैलाया अपने पहले प्रेम के संकल्प की ढाल से मैंने उसे दूर ढकेल दिया।
उन दिनों मुझ पे क़यामत का जुनूँ तारी था
सर पे सरशारि-ए-इशरत का जुनूँ तारी था
माहपारों से मोहब्बत का जुनूँ तारी था
शहरयारों से रक़ाबत का जुनूँ तारी था
बिस्तर-ए-मखमल-ओ-संजाब थी दुनिया मेरी
एक रंगीन-ओ-हसीं ख्वाब थी दुनिया मेरी
जन्नते शौक़ थी बेगान ए आफ़ाते समूम
दर्द जब दर्द ना हो काविशे दरमाँ मालूम
खाक़ थे दीद ए बेबाक में गरदूँ के नजूम
बज़्मे परवीन भी निगाहों में कनीज़ों का हुजूम
लैल ए नाज़ बरअफ़गंदा नक़ाब आती थी
अपनी आँखों में लिए दावत ए ख़्वाब आती थी
उन दिनों दिलो दिमाग पर मौज मस्ती का नशा छाया हुआ था। चाँद के उन हसीन टुकड़ों को मैं अपनी मोहब्बत का हासिल समझने लगा था। मेरे गुरूर की इंतहा इस हद तक थी कि हुस्न के मैदान में मैं बादशाहों से भी मुकाबला करने को तैयार था। मखमल के बिस्तर में सिमटा मेरा वो संसार एक हसीन सपने की तरह था। गर्म हवा की आफ़तों से अपरिचित वो दुनिया मेरे लिए प्रेम का स्वर्ग के समान दिखती थी। मेरा पास उस वक़्त हर दर्द की दवा थी। तब मुझे ऐसा लगता था कि मेरी बेबाक नज़रे आसमान के तारों तक को खाक़ में मिला सकती हैं। सुन्दरियों की महफिल मुझे दासियों का हुजूम लगती थी।
वैसे ये जुनूँ बेवज़ह तो नहीं था। वो भी क्या दिन थे ! नाज़ नखरों में पली बढ़ी सुंदरियाँ तक नक़ाब उठा कर मुझे आँखों ही आँखों में अपनी ख़्वाबगाह में आने का निमंत्रण दे डालती थी।
संग को गौहरे नायाबों गिराँ जाना था
दश्ते पुरख़ार को फ़िरदौसे जवाँ जाना था
रेग को सिलसिल ए आबे रवाँ जाना था
आह ये राज अभी मैंने कहाँ जाना था
मेरी हर फतह में है एक हज़ीमत पिनहाँ
हर मुसर्रत में है राज़े ग़मो हसरत पिनहाँ
क्या सुनोगी मेरी मजरूह जवानी की पुकार
मेरी फ़रियाद-ए-जिगरदोज़ मेरा नाला-ए-ज़ार
शिद्दत-ए-कर्ब में ड़ूबी हुई मेरी गुफ़्तार
मै के खुद अपने मज़ाक़-ए-तरब आगीं का शिकार
वो गुदाज़-ए-दिल-ए-मरहूम कहाँ से लाऊँ
अब मै वो जज़्बा-ए-मासूम कहाँ से लाऊँ
अब मेरे पास तुम आई हो तो क्या आई हो?
पर शायद वो मेरा बचपना था। दुनिया के तौर तरीकों से मैं वाकिफ़ नहीं था।
मैं क्या जानता था कि एक पत्थर भी दुर्लभ मोती जवाहरात बनने की लालसा रखता है!
काँटेदार जंगल भी खिलती बगिया का रूप रखने की आस रखता है!
रेत के कण भी बहती धारा के साथ सागर को चूमने की ख्वाहिश रखते हैं!
वो भी अपने सुनहरे भविष्य की आस में मुझे छोड़ कर चली गई। गर्व और अहंकार में डूबी मेरी उस ज़िदगी की हर जीत अब शिकस्त में तब्दील हुई लगती है। ध्यान से देखो तो पाओगी कि मेरे हर खुशी के पीछे कई ग़म चेहरा छुपाए बैठे हैं। अपने इस घायल हृदय की हालत को तुम से अब क्या बयाँ करूँ? कौन समझेगा मेरी हृदय को चीरनेवाली इस फ़रियाद को, आँसू भरे गीतों को व दर्द में डूबी मेरी बातों को। हालात ये हैं कि मैं ख़ुद अपने तौर तरीकों की वज़ह से सबके बीच मजाक़ का पात्र बन गया हूँ। तुमने आने में अब बहुत देर कर दी है। तुम्हीं कहो अब इस मरे हुए दिल में वो कोमलता कहाँ से लाऊँ? अपनी भावनाओं में वो पहली वाली मासूमियत कहाँ से लाऊँ?
मेरे साये से डरो, तुम मेरी कुरबत से डरो
अपनी जुरअत की कसम , तुम मेरी जुरअत से डरो
तुम लताफ़त हो अगर, मेरी लताफ़त से डरो
मेरे वादों से डरो, मेरी मोहब्बत से डरो
अब में अल्ताफ़ो इनायत का सज़ावार नही
मैं वफ़ादार नहीं, हाँ मैं वफ़ादार नहीं
अब मेरे पास तुम आई हो तो क्या आई हो?
नज़्म का ये आख़िरी हिस्सा मजाज़ के दिल मैं फैले नैराश्य को सामने लाता है। मजाज़ को अपनी ज़िदगी अपने साये तक से नफ़रत हो गई है। इसलिए वो नायिका को अपने से दूर रहने की सलाह देते हैं। जिस वफ़ा, कोमलता, रूमानियत समाज से लड़ने के जज़्बे को वो अपने व्यक्तित्व का हिस्सा बना कर चले थे उन पर उनका खुद का विश्वास डगमगा गया था। मजाज़ ने ये नज़्म 1945 में लिखी थी यानि अपनी मृत्यु के ग्यारह साल पहले। जीवन के अंतिम सालों में वे अपने मानसिक संतुलन खो बैठे थे। इलाज से उनकी हालत में सुधार जरूर हुआ पर एकाकी जीवन और शराब पीने की लत ने उन्हें इस दुनिया को छोड़ने पर मजबूर कर दिया। तो आइए एक बार फिर सुनें इस नज़्म में छुपी शायर की पीड़ा को जगजीत की आवाज़ में...
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- मजाज़ लखनवी : अब मेरे पास तुम आई हो तो क्या आई हो
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13 टिप्पणियाँ:
जो हृदय की गहराई से सोचते हैं, उनकी पीड़ा भी गहरे जाती है।
एक नश्तर सी पीड़ा की चुभा जाती है यह नज्म। दिल से लिखी बातें दिल को छूती हैं।
आपकी पोस्ट पढ़कर कुछ कहा नहीं जाता....
<3
शुक्रिया मनीष जी...
अनु
असीम गहराई
इस नई पाठिका को
समझ मे न आई
सादर
जाने कहाँ से याद था " अब जो आये हो तो क्या आये हो ?"
बहुत दिनो से तलाश रही थी, धन्यवाद....
जैसी उम्दा गंभीर संजीदा ग़ज़ल वैसी ही गायकी कौन किस्से बेहतर फेंसला नहीं कर सकती आभार शेयर करने के लिए
gahantam aur asim gaharayeeon me dubi prastuti
यथार्थ को बया करने वाले बोल.
मुसाफिर हूँ यारों पर पोस्ट आज कल बहुत कम हो गयी है ?
आपका ब्लॉग वर्ष 2012 के लोकप्रिय ब्लॉगों में से एक है
Yeah..my most fav!! Tallat-e-mahar ho, firdaous ki barnai ho, bint-emehtab ho, gHardu se utar aayi ho!! Majaz adorable!
shukriya ek or achhe shayar se parichit karane ka....
one of the best of kahkashan.....mujhe lagta hai jagjeet ne apna best kahkashan me diya hai . ise mai hazaro baar sun sakta hun.
आप सब के विचारों से लगा कि मजाज़ कि ये नज़्म आप सबकों भी उतनी ही पसंद आई जितनी मुझे है..खासकर जिस तरीके से जगजीत जी ने इसे अपनी आवाज़ से सँवारा है। बहुत बहुत आभार आपके विचारों का।
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