आज सलिल चौधरी यानि सलिल दा का जन्मदिन है। पर यकीन मानिए ये इत्तिफ़ाक़ ही है कि उनके जन्मदिन पर उनसे जुड़ी ये श्रृंखला शुरु कर रहा हूँ। दरअसल हुआ यूँ कि बहुत दिनों से मैं सलिल दा द्वारा संगीत निर्देशित इस गीत के बारे में लिखना चाह रहा था। कल जब ये गीत गुनगुना रहा था तो अंतरे तक पहुँचने के बाद उसी लय में एक दूसरे गीत की पंक्तियाँ जुबाँ पर आ गयीं। मुझे लगा हो ना हो वो भी सलिल दा का गीत रहा होगा और वास्तव में वो उनका ही गीत निकला। इसी खोजबीन में ये भी नज़र में आ गया कि आज से करीब अस्सी साल पहले यह विलक्षण प्रतिभा वाला संगीत निर्देशक जो बहुमुखी प्रतिभा का धनी था, इस धरती पर आया था।
मेरी इस श्रृंखला का उद्देश्य सलिल दा के उन गीतों को आपके समक्ष रखना है जिसमें उन्होंने गीतकार योगेश गौड़ के साथ मिलकर जीवन की फिलॉसफी को इस तरह उतारा कि उनके बोल और धुनें समय के थपेड़ों के बीच रह रह कर ज़ेहन में आती रहीं और शायद जीवन पर्यन्त आती रहेंगी। यही तो खूबी है इन नग्मों कि ये वक़्त के साथ आपके दिल में अपना एक अलग वज़ूद बना लेते हैं। गीत का ख्याल आते वक़्त उस फिल्म से कहीं ज्यादा वो भावनाएँ आपके इर्द गिर्द घूम रही होती हैं जो गीत के बोलों में अंतरनिहित हैं।
अब फिल्म छोटी सी बात के इस गीत को ही देखिए। इस गीत के मुखड़े के सच को ना जाने कितने लोगों ने जीवन में महसूस किया होगा...
न जाने क्यूँ, होता है ये ज़िंदगी के साथ
अचानक ये मन
किसी के जाने के बाद, करे फिर उसकी याद
छोटी छोटी सी बात, न जाने क्यूँ
कितनी सहजता से लिख गए ये सब योगेश ! पर मुंबई में आने से पहले तो योगेश को ये भी नहीं पता था कि उन्हें एक गीतकार बनना है पर जो काम उन्होंने सलिल दा के साथ किया वो उन्हें आज भी देश के अव्वल गीतकारों में स्थान दिलाने के लिए काफी है। पिता की मृत्यु के बाद योगेश नौकरी की तलाश में लखनऊ से मुंबई आए। पर वो ये सोचकर नहीं आए थे कि काम फिल्म जगत में करना है। उनके चचेरे भाई व्रजेंद्र गौड़ (जो एक पटकथा लेखक थे) ने उन्हें फिल्मों में काम करने की सलाह तो दी पर काम दिलवाने में कोई मदद नहीं की। नाराज़ योगेश ने अपने नाम के आगे से गौड़ टाइटल हटा लिया ताकि लोग ये ना समझें कि उन्हें फिल्म उद्योग में अपने भाई की वज़ह से काम मिला है। बचपन से ही उन्हें कोई भी पढ़ी गई कविता जल्द ही याद हो जाया करती थी इसलिए उन्होंने सोचा कि क्यूँ ना अब कविता लिखने का भी प्रयास किया जाए और इस तरह वो गीतकार बन गए।
योगेश सलिल के सानिध्य में कैसे आए ये किस्सा तो आगे की कड़ियों में आप से बाँटूगा पर योगेश सलिल चौधरी के बारे में क्या राय रखते हैं ये यहाँ बताना आवश्यक है। कुछ वर्षों पहले दिए गए अपने साक्षात्कर में उन्होंने कहा था
"सलिल दा मेरे प्रिय संगीतकार थे। पहली मुलाकात में वे मुझे अंतरमुखी से लगे, पर धीरे धीरे जब वे खुलने लगे तब उनके साथ काम करने का आनंद बढ़ गया। वो शायद एकमात्र ऐसे बंगाली संगीतकार थे जिन्हें हिंदी के बोलों की अच्छी समझ थी। ऐसा संभवतः इसलिए था कि सलिल दा खुद एक लेखक और कवि थे। पढ़ने लिखने का उनका शौक़ इस क़दर था कि उन्हें लगभग हर विषय के बारे में अच्छी जानकारी थी। सब लोग कहते थे कि उनकी धुनें जलेबी की तरह घुमावदार और जटिल हुआ करती थीं पर मुझे उनके साथ गीत लिखने में कभी ऐसी दिक्कत नहीं हुई।"
वहीं स्वर साम्राज्ञी लता जी ने अपनी एक CD में सलिल दा के बारे में कहा था कि
" मैंने ऐसे तो करीब सौ संगीत निर्देशकों से ज्यादा के साथ काम किया है। पर उनमें से दस ही ऐसे रहें होंगे जिन्हें संगीत और सिनेमा दोनों की समझ थी और उन दसों में सलिल दा सबसे अग्रणी थे। उनकी मेलोडी कुछ अलग तरह की होती थी जिसे गाना कठिन होता था। कई बार वो अपनी धुन को सही ढंग से विकसित करने के लिए कई दिनों तक ना खाते थे और ना सोते थे। "
सलिल के संगीत निर्देशित गीतों की एक खास बात ये थी कि वो गीत के इंटरल्यूड्स में कोरस का इस्तेमाल काफी करते थे। इंटरल्यूड्स में संगीत संयोजन पश्चिमी शास्त्रीय संगीत का असर लिए होता था। इसकी भी एक वज़ह थी। सलिल दा का बचपन आसाम के चाय बागानों में बीता था। उनके पिता डॉक्टर थे और उन्हें अपने पूर्ववर्ती आयरिश मूल के डॉक्टर से पश्चिमी शास्त्रीय संगीत के तमाम ग्रामोफोन रिकार्ड मिले थे। सलिल ने तभी से मोजार्ट, बीथोवन और चोपिन जैसे संगीतज्ञों को सुनना शुरु कर दिया था और उनसे बेहद प्रभावित हुए थे। बाद में अपनी धुनों में भी वे पश्चिमी सिम्फोनी का प्रयोग करते रहे।
इस गीत में भी ये बातें देखने को मिलती हैं। सलिल दा ने जिस अनूठे तरीके से इस गीत की लय को बुना था उसके साथ न्याय करने के लिए लता से बेहतर कोई हो ही नहीं सकता था।
योगेश गीत के दोनों अंतरों में एक बार फिर
किसी अज़ीज के साथ बिताए पलों को बेकली से याद करते हैं। वैसे भी पुरानी
बातें, किसी के साथ बिताए वो हसीं लमहे किसी की यादों से दूर जा सकते हैं
क्या..तो आइए आनंद उठाते हैं इस गीत का जिसे फिल्माया गया था विद्या सिन्हा व अमोल पालेकर पर
वो अनजान पल
ढल गये कल, आज वो
रंग बदल बदल, मन को मचल मचल
रहें हैं छल न जाने क्यूँ, वो अनजान पल
तेरे बिना मेरे नैनों मे
टूटे रे हाय रे सपनों के महल
न जाने क्यूँ, होता है ये ज़िंदगी के साथ ...
वही है डगर
वही है सफ़र, है नहीं
साथ मेरे मगर,अब मेरा हमसफ़र
ढूँढे नज़र न जाने क्यूँ, वही है डगर
कहाँ गईं शामें मदभरी
वो मेरे, मेरे वो दिन गये किधर
न जाने क्यूँ, होता है ये ज़िंदगी के साथ ...
जैसा कि मैंने शुरुआत में कहा था कि इस गीत का अंतरा गुनगुनाते एक दूसरे गीत के अंतरे में भटक गया। जिंदगी की ऊँच नीच को परिभाषित करता वो गीत सलिल दा और योगेश की जोड़ी द्वारा बनाया एक बेहद संजीदा गीत है। तो आप भी सोचिए मैं किस गीत की बातें कर रहा हूँ। अगली पोस्ट में सलिल दा और योगेश से जुड़ी कुछ और दिलचस्प बातों के साथ चर्चा होगी उस गीत की..
10 टिप्पणियाँ:
बहुत ही प्यारा गीत लगता है यह।
:-)
अब अगली कड़ी का इंतज़ार है...
आज विविध भारती का आज के फनकार कार्यक्रम सलिल दा पर केन्द्रित हैं, अगर सुबह नही सुना तो रात 9:30 बजे सुनिए, कई गीत चर्चा में होंगे
itna pyara geet sunwane ka shukriya..dil ke karib hai ye geet..
प्रवीण और पीहू गीत पसंद करने का शुक्रिया !
सोनल आपकी मुस्कुराहट का सबब नहीं समझ आया !
दीपिका अगली कड़ी तो आ गई।
अन्नपूर्णा जी शुक्रिया इस जानकारी के लिए। विविधभारती पर ममता जी का प्रोग्राम मैंने सुना और पसंद भी आया।
मुझे भी पसंद है ये गाना काफी
जानकर खुशी हुई हर्षिता ! :)
बेहतरीन, लाजवाब ......
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