सलिल दा और योगेश रचित फिलासफिकल गीतों की इस श्रृंखला में पिछली पोस्ट में बात हो रही थी गीत ना जाने क्यूँ होता है ये ज़िंदगी के साथ....... की। और हाँ इस गीत को गाते वक़्त इसके पहले अंतरे के बाद भटक कर मैं जा पहुँचा था एक दूसरे गीत की इस पंक्ति कभी देखो मन नहीं जागे पीछे पीछे सपनों के भागे पर। शायद दोनों गीतों की कुछ पंक्तियाँ एक जैसे मीटर में हों। ख़ैर आनंद का ये गीत ज़िदगी की इस पहेली के सच को चंद शब्दों में इस खूबसूरती से उभारता है कि मन इस गीत को सुनकर अंदर तक भींग जाता है। सलिल दा की मेलोडी, मन्ना डे की दिल तक पहुँचती आवाज़ और योगेश के सहज पर मन को चोट करते शब्द इस गीत का जादू हृदय से कभी उतरने नहीं देते।
पिछली पोस्ट में आपको बताया था कि किस तरह सलिल दा पश्चिमी शास्त्रीय संगीत से प्रभावित थे। आनंद के इस गीत का आरंभ ऐसे ही संगीत संयोजन से होता है। साथ ही मन्ना डे की आवाज़ के पीछे वही कोरस पार्श्व में लहराता हुआ चलता है जो सलिल दा के गीतों का एक ट्रेडमार्क था। पर उस कोरस पर सलिल दा ने जिस तरह भारतीय मेलोडी की परत चढ़ाई है वो काबिले तारीफ़ है। सलिल दा अक्सर कहा करते थे..
"Music will always be dismantling and recreating itself, and assuming new forms in reaction to the times. To fail to do so would be to become fossilized. But in my push to go forward I must never forget that my heritage is also my inspiration.
"यानि संगीत हमेशा अपने आप को बँधे बँधाए ढांचे से तोड़ता और पुनर्जीवित करता चलेगा। इस प्रक्रिया में उसका स्वरूप समय की माँग के अनुरूप बदलेगा। अगर वक़्त की ये आहट कोई नहीं समझ सकेगा तो वो अतीत की गर्द में समा जाएगा। पर वक़्त के साथ आगे चलते वक़्त हमें ये नहीं भूलना चाहिए कि हमारी विरासत भी हमारी प्रेरणास्रोत है।"
सलिल दा के गीतों में मेहनतकशों का लोक संगीत है तो दूसरी ओर मोजार्ट की सिम्फोनी भी। सलिल मोजार्ट के संगीत से इस क़दर प्रभावित थे कि वो अपने आपको रिबार्न मोजार्ट (Reborn Mozart) कहा करते। पर उनकी सफलता का राज ये रहा कि इस सिम्फोनी को उन्होंने भारतीय रंग में ढाला। हाल ही में सलिल दा की पुत्री अंतरा चौधरी ने विविधभारती में दिये अपने साक्षात्कार में कहा था
"बाबा प्रील्यूड और इंटरल्यूड को गीत के बोलों के साथ जोड़ कर अपने संगीत की रचना करते थे। जब भी कोई बाबा का गाना गाता है तो वो प्रील्यूड और इंटरल्यूड को गुनगुनाए बिना मुखड़े व अंतरे तक पहुँच ही नहीं पाएगा।"
कहने का मतलब ये कि सलिल दा के लिए प्रील्यूड और इंटरल्यूड गीत के अतरंग हिस्से हुआ करते थे। अंतरा की बात को मन्ना डे के गाए इस गीत को सुनकर बड़ी आसानी से समझा जा सकता है। पर इस गीत में सपनों के पीछे भागते मन का चित्र अंकित करने वाले गीतकार योगेश के योगदान को भी हमें भूलना नहीं चाहिए। अच्छे कवि को अपनी बात कहने के लिए शब्दों का महाजाल रचने की आवश्यकता नहीं होती। योगेश कितनी खूबसूरती से जीवन के यथार्थ को एक पंक्ति में यूँ समेट लेते हैं ...एक दिन सपनों का राही चला जाए सपनों के आगे कहाँ. भई वाह।
वैसे आनंद के पहले योगेश बतौर गीतकार बहुत जानामाना नाम नहीं थे। उनकी माली हालत ऐसी थी कि अपने खुद के लिखे गीतों को सुनने के लिए उन्हें सविता चौधरी के पास जाना पड़ता था। योगेश सविता जी को तब से जानते थे जब उनकी शादी सलिल दा से नहीं हुई थी। सविता ने ही गीतकार के लिए योगेश का नाम सलिल दा को सुझाया था। सलिल दा तब तक अपना ज्यादातर काम शैलेंद्र के साथ किया करते थे। शैलेंद्र की मृत्यु के बाद उन्हें एक नए गीतकार की तलाश थी। जब पहली बार सलिल दा ने योगेश को आधे घंटे में एक गीत लिखने को दिया तो योगेश से कुछ लिखा ही नहीं गया। निराश मन से योगेश घर के बाहर निकल आए। मजे की बात ये रही कि बस स्टॉप तक पहुँचते ही उनके मन में एक गीत शक्ल लेने लगा। जब वापस आ कर उन्होंने सलिल दा का वो गीत सुनाया तो सलिल दा ने तुरंत अपनी पत्नी को बुलाकर कहा कि इसने तो बहुत अच्छा लिखा है।
गीत सुनते वक़्त आपने ध्यान दिया होगा कि किस तरह मन्ना डे ऊँचे सुरों में एक दिन सपनों का राही तक पहुँचते हैं और उस के बाद नीचे के सुरों में चला जाए.... सपनों के.... आगे कहाँ गाते हुए हमारे दिल को वास्तविकता के बिल्कुल करीब ले आते हैं। ये प्रतिभा होती है एक अच्छे संगीतकार की जो शब्दों की लय को इस तरह रचता है कि सुनने वाले पर उसका अधिकतम असर हो। तो आइए सुनते हैं इस गीत को सलिल दा के अनूठे संगीत संयोजन के साथ
ज़िंदगी कैसी है पहेली, हाए
कभी तो हँसाए
कभी ये रुलाए
ज़िंदगी ...
कभी देखो मन नहीं जागे
पीछे पीछे सपनों के भागे
एक दिन सपनों का राही
चला जाए सपनों के आगे कहाँ
ज़िंदगी ...
जिन्होने सजाए यहाँ मेले
सुख-दुख संग-संग झेले
वही चुनकर ख़ामोशी
यूँ चले जाए अकेले कहाँ
ज़िंदगी ...
चलते चलते इस गीत से जुड़ा एक और किस्सा आपसे बाँटता चलूँ । आनंद के गीतों को लिखने के लिए लिए हृषिकेश दा ने गुलज़ार और सलिल दा ने योगेश को कह रखा था। पर दोनों ने ये बात एक दूसरे को नहीं बताई थी। लिहाजा एक ही परिस्थिति के लिए गुलज़ार ने ना जिया लागे ना लिखा और योगेश ने ना ना रो अखियाँ लिखा। गीत तो गुलज़ार का ही रखा गया पर हृषिकेश दा ने योगेश की मेहनत को ध्यान में रखकर पारिश्रमिक के रूप में एक चेक दिया। योगेश ने कहा जब उनका गीत फिल्म में है ही नहीं तो फिर काहे के पैसे। इस समस्या के सुलझाव के लिए ज़िंदगी कैसी है पहेली को ..मूल स्क्रिप्ट में जोड़ा गया। वैसे आनंद के लिए योगेश ने मैंने तेरे लिए ही सात रंग के सपने बुने भी लिखा।
सलिल दा से जुड़ी श्रृंखला का अगला गीत जीवन में आए दुखों से लड़ने की प्रेरणा देता है। इस बेहद कठिन गीत को एक बार फिर आवाज़ दी थी लता जी ने। बताइए तो कौन से गीत की बात मैं कर रहा हूँ?
6 टिप्पणियाँ:
Kya bat hai ,sangeet ke sunne walo ke liye ek bahut hi badiya blog,
aapko foloow kr reha hu
apka shukriya ek or achi post ka or sunder geeton ka.....
बहुत ही प्यारे गीत..
pyara geet aur sangeet:)
-It was a great break from a very low in the life. Life is much much more than the stupid office. we make means for life a life. So very well written. I am delighted that I know you. So well written. It takes time, patience to read and appreciate as cursory look is not sufficient to understand the pain a writer has taken to write. I enjoyed this.
Jagdish
धन्यवाद आलोक आशा है आप संगीत की इस महफिल में आगे भी शामिल होते रहेंगे।
पीहू, मुकेश और प्रवीण ये गीत पसंद करने के लिए शुक्रिया !
अरोड़ा सर ज़िदगी के तनावों से दूर ले जाने के लिए बहुधा ये गीत बड़े कारगर होते हैं। शुक्रिया तारीफ़ के इन शब्दों के लिए !
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