सलिल दा संगीत निर्देशित और योगेश द्वारा लिखे दार्शनिकता लिए (यानि फिलासफिकल) गीतों की श्रृंखला का तीसरा नग्मा है फिल्म अन्नदाता का। सलिल दा के संगीत निर्देशित गीतों में इसे जटिलतम गीतों में से एक माना जाता है। अगर सलिल दा की धुनों को जलेबी की तरह घुमावदार माना जाता था तो ये गीत उस परिभाषा में सहज ही शामिल हो जाता है। पर इस गीत की बात करने के पहले सलिल दा को इस गीत की प्रेरणा देने वाले शख़्स के बारे में बताना जरूरी है।
सलिल दा ने ये धुन पोलैंड के संगीतकार फ्रेडेरिक चोपिन (Frédéric Chopin) की धुन से प्रेरित होकर बनाई थी। चोपिन एक माहिर पियानो वादक थे। बीस साल तक पोलैंड में रहने के बाद वो फ्रांस चले गए। यूरोप के विभिन्न देशों में किए उनके कॉन्सर्ट लोकप्रिय हुए। उनकी ज्यादातर धुनें सोलो पियानों पर हैं। आज भी पश्चिमी शास्त्रीय संगीत के रसिया उनकी रोमांटिक धुनों को चाव से सुनते हैं।
सलिल दा ने चोपिन की धुन पर जो गीत रचा उसे गाने के लिए एक क़ाबिल गायिका की जरूरत थी। अगर इस गीत को गुनगुनाएँ तो आप तुरंत समझ जाएँगे कि इसे ढंग से गाना कितना कठिन है। मुखड़े के आखिर तक आते आते सुरों का चढ़ाव एक तरफ़ और उसके ठीक बाद बदली हुई लय में अंतरे की शुरुआत की बारीकियाँ दूसरी तरफ़। पर लता जी जब इसे गाती हैं तो सुनने पर लगता ही नहीं कि उन्हें इसे निभाने में कोई दिक्कत हुई होगी। ये बात उनकी महानता की परिचायक है। सलिल दा उनकी इस महानता से भली भांति वाक़िफ़ थे। उनकी पुत्री अंतरा ने अपने एक साक्षात्कार में कहा था
सलिल दा ने ये धुन पोलैंड के संगीतकार फ्रेडेरिक चोपिन (Frédéric Chopin) की धुन से प्रेरित होकर बनाई थी। चोपिन एक माहिर पियानो वादक थे। बीस साल तक पोलैंड में रहने के बाद वो फ्रांस चले गए। यूरोप के विभिन्न देशों में किए उनके कॉन्सर्ट लोकप्रिय हुए। उनकी ज्यादातर धुनें सोलो पियानों पर हैं। आज भी पश्चिमी शास्त्रीय संगीत के रसिया उनकी रोमांटिक धुनों को चाव से सुनते हैं।
सलिल दा ने चोपिन की धुन पर जो गीत रचा उसे गाने के लिए एक क़ाबिल गायिका की जरूरत थी। अगर इस गीत को गुनगुनाएँ तो आप तुरंत समझ जाएँगे कि इसे ढंग से गाना कितना कठिन है। मुखड़े के आखिर तक आते आते सुरों का चढ़ाव एक तरफ़ और उसके ठीक बाद बदली हुई लय में अंतरे की शुरुआत की बारीकियाँ दूसरी तरफ़। पर लता जी जब इसे गाती हैं तो सुनने पर लगता ही नहीं कि उन्हें इसे निभाने में कोई दिक्कत हुई होगी। ये बात उनकी महानता की परिचायक है। सलिल दा उनकी इस महानता से भली भांति वाक़िफ़ थे। उनकी पुत्री अंतरा ने अपने एक साक्षात्कार में कहा था
"बाबा के लिए लता माँ सरस्वती का दूसरा रूप थीं। उनके लिए संगीत रचते समय वो इस चिंता से दूर रहते थे कि गीत किस सुर तक या कैसी ताल में चलेगा क्यूँकि उन्हें पूरा विश्वास था कि उसे लता बखूबी निभा लेंगी। मुझे व्यक्तिगत रूप से लगता है कि अन्नदाता के गीत रातों के साये.. में जो खूबसूरत संगीत संयोजन था उसके साथ लता जी ने पूरा न्याय किया है। बाबा ने लता जी की आवाज़ का अपने गीतों में जिस तरह इस्तेमाल किया वो क़ाबिलेतारीफ़ है।"
योगेश का लिखा ये गीत हमें ज़िदगी में आने वाली मायूसियों से जूझने की प्रेरणा देता है। योगेश ने गीत के हर अंतरे में विकट परिस्थितियों में मन में आशा का दीपक जलाए रखने का जो संदेश दिया है वो किसी भी बुझे मन को जागृत करने का माद्दा रखता है। अंतरे की लय गीत की खूबसूरती में चार चाँद लगाती दिखती है। मिसाल के तौर पर एक अंतरे की लय के स्वरूप पर ज़रा गौर कीजिए
जब ज़िन्दगी.. किसी.. तरह.. बहलती नहीं..खामोशियों से भरी.. जब रात ढलती नहीं...तब मुस्कुराऊँ मैं..यह गीत गाऊँ मैं.. फिर भी ना डर..अगर.. बुझें.. दीये....सहर.. तो है.. तेरे.. लिये
है ना कमाल ! तो चलिए सुनते हैं अन्नदाता फिल्म का ये गीत जिसे जया भादुड़ी पर फिल्माया गया था।
रातों के साये घने जब बोझ दिल पर बने
ना तो जले बाती, ना हो कोई साथी
फिर भी ना डर अगर बुझें दीये....सहर तो है तेरे लिये
जब भी मुझे कभी कोई जो ग़म घेरे
लगता है होंगे नहीं, सपने ये पूरे मेरे
कहता है दिल मुझको, माना हैं ग़म तुझको
फिर भी ना डर ... तेरे लिये
जब ना चमन खिले मेरा बहारों में
जब डूबने मैं लगूँ , रातों के मझधारों में
मायूस मन डोले, पर ये गगन बोले
फिर भी ना डर ... तेरे लिये
जब ज़िन्दगी किसी तरह बहलती नहीं
खामोशियों से भरी, जब रात ढलती नहीं
तब मुस्कुराऊँ मैं, यह गीत गाऊँ मैं
फिर भी ना डर ... तेरे लिये रातों के साये घने ...
सलिल दा से जुड़ी इस श्रृंखला में यहीं विराम लेते हैं। वैसे सलिल योगेश की जोड़ी के दार्शनिकता लिए गीतों में उन गीतों की चर्चा रह ही गई जिसमें सलिल दा के पसंदीदा गायक मुकेश ने अपनी आवाज़ दी थी। पर वो सिलसिला फिर कभी ..पर चलते चलते क्या आप नहीं जानना चाहेंगे कि सलिल दा अपने संगीत को किस तरह आँकते थे? प्रसिद्ध फिल्म पत्रकार राजू भारतन से हुई बातचीत में एक बार उन्होंने कहा था
रातों के साये घने जब बोझ दिल पर बने
ना तो जले बाती, ना हो कोई साथी
फिर भी ना डर अगर बुझें दीये....सहर तो है तेरे लिये
जब भी मुझे कभी कोई जो ग़म घेरे
लगता है होंगे नहीं, सपने ये पूरे मेरे
कहता है दिल मुझको, माना हैं ग़म तुझको
फिर भी ना डर ... तेरे लिये
जब ना चमन खिले मेरा बहारों में
जब डूबने मैं लगूँ , रातों के मझधारों में
मायूस मन डोले, पर ये गगन बोले
फिर भी ना डर ... तेरे लिये
जब ज़िन्दगी किसी तरह बहलती नहीं
खामोशियों से भरी, जब रात ढलती नहीं
तब मुस्कुराऊँ मैं, यह गीत गाऊँ मैं
फिर भी ना डर ... तेरे लिये रातों के साये घने ...
सलिल दा से जुड़ी इस श्रृंखला में यहीं विराम लेते हैं। वैसे सलिल योगेश की जोड़ी के दार्शनिकता लिए गीतों में उन गीतों की चर्चा रह ही गई जिसमें सलिल दा के पसंदीदा गायक मुकेश ने अपनी आवाज़ दी थी। पर वो सिलसिला फिर कभी ..पर चलते चलते क्या आप नहीं जानना चाहेंगे कि सलिल दा अपने संगीत को किस तरह आँकते थे? प्रसिद्ध फिल्म पत्रकार राजू भारतन से हुई बातचीत में एक बार उन्होंने कहा था
"फुटबॉल के खेल को ही देखिए। सारे नियम हैं वहाँ! फ्री किक, थ्रो इन, आफ साइड, पेनाल्टी... पर फिर भी एक खिलाड़ी है पेले जो इन नियमों के भीतर रहते हुए कुछ ऐसा कर दिखाता है कि लगता है वो कुछ ऐसा कर गया जो इस खेल में होना एक अनूठी बात है। मैं भी संगीत का वही पेले हूँ।"
3 टिप्पणियाँ:
सलिल दा के बारे में बहुत जानकारियां भर दी हैं आपने . सार्थक प्रस्तुति बधाई मनीष जी . .आत्महत्या -परिजनों की हत्या
पोले सी कलात्मकता, गति और लय है सलिलदा के संगीत में...
कुछ दिन पहले ही गीतकार योगेश की टी वी पे देखा था ... सलिल दा के साथ उनकी याद .... कई लाजवाब गीतों की यादें ताज़ा हो गयीं ...
एक टिप्पणी भेजें