हिंदी सिनेमा में बाल फिल्मों का दायरा बड़ा सीमित रहा है। हर साल रिलीज़ होने वाली फिल्मों में उनका हिस्सा पाँच फीसदी से भी कम रहता है और उसमें भी कई फिल्में बनने के बाद भी उन बच्चों की पहुँच के बाहर रहती हैं जिनके लिए वो बनाई गयी हैं। कार्टून चरित्रों को टीवी पर देखने के लिए बच्चे कितना लालायित रहते हैं ये तो जगज़ाहिर है और यही वज़ह है कि आज डिस्नी चरित्र हों या जापानी डोरेमोन या शिंगचाँग, बच्चों की पहली पसंद बने हुए हैं। हिंदी चरित्रों में 'छोटा भीम' ने विदेशी चरित्रों के बच्चों के मन पर किए गए एकाधिकार को तोड़ा जरूर है पर जातक कथाओं, पंचतंत्र और तमाम राजा रानियों की कहानियों से भरी हमारी सांस्कृतिक धरोहर के लिए इस क्षेत्र में हिंदी फिल्मों और टेलीविजन को कुछ नया करने की गुंजाइश बहुत है।
पिछले साल जंगल के चरित्रों को लेकर एक फिल्म बनी नाम था दिल्ली सफ़ारी । संयोग से पिछले महिने जब इसे टीवी पर दिखाया गया तो मैंने भी इस फिल्म को देखा और पर्यावरण को बचाने का संदेश देता हुआ इसी फिल्म का एक गीत आज विराजमान है वार्षिक संगीतमाला की सत्रहवीं पॉयदान पर।
विकास के नाम पर जंगलों की अंधाधु्ध कटाई को विषय को लेकर बनाई गयी इस फिल्म में ये गीत तब आता है जब जंगल के जानवर अपने घटते रिहाइशी इलाके के ख़िलाफ़ दिल्ली की संसद में अपनी आवाज़ बुलंद करने का फ़ैसला लेते हैं। दिल्ली की इस लंबी राह पर चलते चलते वो भटक जाते हैं पर रास्ते में पूछताछ करते हुए जो उन्हें बताया जाता है वो व्यक्त होता है इस गीत के माध्यम से।
इस गीत को लिखा है समीर ने और धुन बनाई है शंकर अहसान लॉय ने। हम किस तरह अपने आस पास की प्रकृति को नष्ट कर रहे हैं इसे गीत के हर अंतरे में बड़ी खूबी से चित्रित किया गया है। गीत को आगे बढ़ाने का ढंग मज़ेदार है। पहले गायक उस स्थिति का बयान करते हैं जिस हालत में हमारी ये भारत भूमि पहले थी। फिर एक कोरस उभरता है नहीं भाई नहीं, नहीं भाई नहीं, नहीं भाई नहीं, नहीं भाई नहीं। फिर आज की स्थिति बताई जाती है। बच्चों को अपने आस पास के वातावरण को बचाए रखने के प्रति सजग रखने के लिए ये सुरीला अंदाज़ बेहद प्रभावशाली बन पड़ा है।
इस गीत को गाया है मँहगाई डायन खावत जात है.. को गाने वाले रघुवीर यादव ने। जिस तरह किसी नाटक में कोई सूत्रधार गा गा कर कहानी को आगे बढ़ाता है वैसे ही रघुवीर यहाँ दिल्ली के रास्ते का बखान करते जंगली जानवारों को आगे का रास्ता दिखाते हैं। इंसानों पर समीर के मारक व्यंग्यों के साथ रघुवीर की आवाज़ खूब फबती है। गीत की शुरुआत से अंत तक शंकर अहसॉन लाय घड़े जैसे ताल वाद्यों के साथ एक द्रुत लय रचते हैं जिसे सुनते सुनते रघुवीर के साथ सुर में सुर मिलानी की इच्छा बलवती हो जाती है।
विकास के नाम पर जंगलों की अंधाधु्ध कटाई को विषय को लेकर बनाई गयी इस फिल्म में ये गीत तब आता है जब जंगल के जानवर अपने घटते रिहाइशी इलाके के ख़िलाफ़ दिल्ली की संसद में अपनी आवाज़ बुलंद करने का फ़ैसला लेते हैं। दिल्ली की इस लंबी राह पर चलते चलते वो भटक जाते हैं पर रास्ते में पूछताछ करते हुए जो उन्हें बताया जाता है वो व्यक्त होता है इस गीत के माध्यम से।
इस गीत को लिखा है समीर ने और धुन बनाई है शंकर अहसान लॉय ने। हम किस तरह अपने आस पास की प्रकृति को नष्ट कर रहे हैं इसे गीत के हर अंतरे में बड़ी खूबी से चित्रित किया गया है। गीत को आगे बढ़ाने का ढंग मज़ेदार है। पहले गायक उस स्थिति का बयान करते हैं जिस हालत में हमारी ये भारत भूमि पहले थी। फिर एक कोरस उभरता है नहीं भाई नहीं, नहीं भाई नहीं, नहीं भाई नहीं, नहीं भाई नहीं। फिर आज की स्थिति बताई जाती है। बच्चों को अपने आस पास के वातावरण को बचाए रखने के प्रति सजग रखने के लिए ये सुरीला अंदाज़ बेहद प्रभावशाली बन पड़ा है।
इस गीत को गाया है मँहगाई डायन खावत जात है.. को गाने वाले रघुवीर यादव ने। जिस तरह किसी नाटक में कोई सूत्रधार गा गा कर कहानी को आगे बढ़ाता है वैसे ही रघुवीर यहाँ दिल्ली के रास्ते का बखान करते जंगली जानवारों को आगे का रास्ता दिखाते हैं। इंसानों पर समीर के मारक व्यंग्यों के साथ रघुवीर की आवाज़ खूब फबती है। गीत की शुरुआत से अंत तक शंकर अहसॉन लाय घड़े जैसे ताल वाद्यों के साथ एक द्रुत लय रचते हैं जिसे सुनते सुनते रघुवीर के साथ सुर में सुर मिलानी की इच्छा बलवती हो जाती है।
तो आइए गीत के बोलों को पढ़ते हुए सुनिए ये शानदार गीत
धड़क धड़क धड़क धड़क..,धड़क धड़क धड़क धड़क..
आओ यारों आओ तुमको राह बताऊँ दिल्ली की
जाओ यहाँ से सीधा जाओ, हिम्मत रखो मत घबराओ
हरियाली का डेरा होगा, जंगल यहाँ घनेरा होगा
नहीं भाई नहीं नहीं भाई नहीं नहीं भाई नहीं नहीं भाई नहीं.....
हरे भरे इस जंगल की इंसानों ने मारी रेड़
काट दिया सारे जंगल को छोड़ दिया इक सूखा पेड़
वहाँ से फिर तुम आगे जाना, हुआ जो उसपे ना पछताना
बहती हुई लहरों का जहाँ, मिलेगी तुमको नदी वहाँ
नहीं भाई नहीं नहीं भाई नहीं नहीं भाई नहीं नहीं भाई नहीं
अरे नदी जहाँ पर कल बहती थी आज वहाँ पर नाला है
मत पूछो इंसानों ने हाल उसका क्या कर डाला है
थोड़ी दूरी तुम तय करना, बस इंसानों से तुम डरना
खेतों की दुनिया सुनसान वहाँ पे होगा रेगिस्तान
नहीं भाई नहीं नहीं भाई नहीं नहीं भाई नहीं नहीं भाई नहीं
खो गई बंजारों की टोली रहे ना वो मस्ताने हीर
खेतों की वो सुंदर हील गई हाइवे में तब्दील
सबकी दुआ रंग लाएगी संसद वहाँ से दिख जाएगी
संसद में खामोश ना रहना, इंसानों से बस ये कहना
सुनो सुनो वहशी इंसानों सुनो सुनो वहशी इंसानों
अब तो इसका कहना मानो
क़ुदरत ये कहती है हर दम, हमसे तुम हो और तुमसे हम
हमको अगर मिटाओगे तो ख़ुद भी मिट जाओगे।
तो आपसे ये गुजारिश है कि इस गीत को ख़ुद तो सुने ही पर अपने बच्चों को जरूर सुनवाएँ । बहुत बार हमारी और आपकी कही बात से ज्यादा असर ये गीत डाल सकते हैं ...
6 टिप्पणियाँ:
नहीं भई नहीं...बहुत सुन्दर..
बहुत बढ़िया गीत रचा है, पहले नहीं सुना था। शुक्रिया मनीष जी।
लाजवाब प्रस्तुति...बहुत बहुत बधाई...
अभी हाल ही में ये फिल्म देखी...पर्यावरण और वन्यजीव संरक्षण सम्बन्धी विषय को बहुत प्रभावी और दिलचस्प तरीके से चित्रित किया गया हे...ये गीत जहाँ दर्शको को हंसने पर मजबूर करता हे वहीँ इसके व्यंग्यात्मक बोल आत्मग्लानि का अनुभव कराते हे...
आपकी बात से सहमत हूँ मै कि बच्चो को ऐसे गीत.. ऐसी फिल्मे जरुर दिखानी चाहिए....
हाँ शैली मैंने भी ये फिल्म हाल ही में टीवी पर देखी और कुछ इसी तरह की भावनाएँ मन में उपजी। बच्चों की फिल्म होते हुए भी कहानी ने बाँधे रखा। गोविंदा, अक्षय खन्ना, उर्मिला और सुनील शेट्टी की आवाज़ का आनंद आया सो अलग। और ये गीत तो काबिले तारीफ़ है ही।
प्रवीण,अंकित व प्रसन्न जी गीत और उससे जुड़ी इस प्रविष्टि को पसंद करने के लिए शुक्रिया !
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