बंगाली साहित्यकारों की हिंदी में अनुदित पुस्तकें स्कूल जीवन में पढ़े गए हिंदी उपन्यास का सबसे बड़ा हिस्सा रही हैं। आशापूर्णा देवी तो मेरी सबसे पसंदीदा उपन्यासकार थीं ही, उन दिनों मुझे बिमल मित्र, महाश्वेता देवी, समरेश बसु व वरेन गंगोपाध्याय को भी पढ़ना बुरा नहीं लगता था। बिमल मित्र की सुरसतिया, चतुरंग और मुज़रिम हाज़िर मैंने हाईस्कूल में पढ़ी थी और तब उनकी रोचक और सहज कथ्य शैली ने मुझे ख़ासा प्रभावित किया था। इसीलिए दशकों बाद जब कार्यालय की लाइब्रेरी में मुझे बिमल दा की किताब 'और एक युधिष्ठिर' दिखी तो तुरंत मैं उसे घर ले आया।
जैसा कि नाम से स्पष्ट है कि ये कथा एक ऐसे सत्यवादी प्रतुल की कहानी है जो जीवन में सत्य के मार्ग से विमुख नहीं होता और ना ही इसके लिए कोई समझौता करता है। ज़ाहिर है ऐसे में उसे अपनी पढ़ाई, नौकरी, विवाह में सब जगह कठिनाइयाँ झेलनी पड़ती हैं। लेखक ने उपन्यास में इस बात को उभारना चाहा है कि एक आम मध्यमवर्गीय मानुष किस तरह समाज में व्याप्त भ्रष्टाचार को अपने जीवन का हिस्सा मान कर समझौतावादी प्रवृति का हो गया है।
बिमल दा ने यूँ तो अपने लंबे साहित्य सफ़र में सत्तर के करीब उपन्यास लिखे पर मेरे पहले के अनुभवों के विपरीत इस उपन्यास ने मुझे बेहद निराश किया। उपन्यास में कथा तीव्र गति से भागती है। नतीजा ये कि चरित्रों को गहराई से काग़ज़ के पन्नों पर उतारने में लेखक असफल रहते हैं। उपन्यास के अंत में प्रतुल को अपने अनाथ होने का पता चलना और फिर तेजी से बदलते घटनाक्रम में अनायास ही अपने असली पिता और माता से मिलना पुरानी फिल्मी कहानियों के क्लाइमेक्स को भी मात करता है।ऐसा लगता है मानो लेखक उपन्यास को खत्म करने की भारी हड़बड़ी में हों।
वर्ष 2008 में विद्या विहार द्वारा प्रकाशित इस दो सौ रुपये मूल्य व 192 पृष्ठों की किताब को ना ही पढ़े तो बेहतर होगा। एक शाम मेरे नाम पर की गई पुस्तक चर्चाओं से जुड़ी कड़ियाँ आप यहाँ पढ़ सकते हैं।
जैसा कि नाम से स्पष्ट है कि ये कथा एक ऐसे सत्यवादी प्रतुल की कहानी है जो जीवन में सत्य के मार्ग से विमुख नहीं होता और ना ही इसके लिए कोई समझौता करता है। ज़ाहिर है ऐसे में उसे अपनी पढ़ाई, नौकरी, विवाह में सब जगह कठिनाइयाँ झेलनी पड़ती हैं। लेखक ने उपन्यास में इस बात को उभारना चाहा है कि एक आम मध्यमवर्गीय मानुष किस तरह समाज में व्याप्त भ्रष्टाचार को अपने जीवन का हिस्सा मान कर समझौतावादी प्रवृति का हो गया है।
बिमल दा ने यूँ तो अपने लंबे साहित्य सफ़र में सत्तर के करीब उपन्यास लिखे पर मेरे पहले के अनुभवों के विपरीत इस उपन्यास ने मुझे बेहद निराश किया। उपन्यास में कथा तीव्र गति से भागती है। नतीजा ये कि चरित्रों को गहराई से काग़ज़ के पन्नों पर उतारने में लेखक असफल रहते हैं। उपन्यास के अंत में प्रतुल को अपने अनाथ होने का पता चलना और फिर तेजी से बदलते घटनाक्रम में अनायास ही अपने असली पिता और माता से मिलना पुरानी फिल्मी कहानियों के क्लाइमेक्स को भी मात करता है।ऐसा लगता है मानो लेखक उपन्यास को खत्म करने की भारी हड़बड़ी में हों।
वर्ष 2008 में विद्या विहार द्वारा प्रकाशित इस दो सौ रुपये मूल्य व 192 पृष्ठों की किताब को ना ही पढ़े तो बेहतर होगा। एक शाम मेरे नाम पर की गई पुस्तक चर्चाओं से जुड़ी कड़ियाँ आप यहाँ पढ़ सकते हैं।
10 टिप्पणियाँ:
अरे किसी पुस्तक की शायद पहली ऐसी समीक्षा पढी जो कहती हो कि पुस्तक न पढ़े....
चलिए पेंडिंग काम पहली ही बहुत ज्यादा थे...
:-)
अनु
हा हा सही कह रही हैं पर मेरा उद्देश्य जहाँ अच्छी पुस्तकों को पढ़ने के लिए लोगों को प्रेरित करना है तो साथ ही उनके कीमती समय को बचाना भी।
कहानी की रोचकता सदा मिलती है विमल मित्र की रचनाओं में।
इस दो सौ रुपये मूल्य व 192 पृष्ठों की किताब को ना ही पढ़े तो बेहतर होगा।
:):)
काश.. ऐसा आपनें पहले कहा होता...
हम्म शीर्षक देख कर ही जिज्ञासा हुई कि आखिर इस किताब ने निराश क्यूँ किया.
विमल मित्र के लेखन की प्रशंसक रही हूँ.पर कई बार बहुत बड़े कथाकार की बहुत साधारण सी कहानी या उपन्यास भी पढने को मिल जाते हैं.
हो सकता है, प्रकाशक की मांग पर लिखते हों...या और दुसरे कारण हो सकते हैं.पर सच है...कई पसंदीदा लेखकों की साधारण कृति पढ़कर निराशा तो होती है.
Manishji,
Bhaut kum guni/prathibhavaan sahityakaar/kalkaar hain jinhone ki hamesha shat pratishat dene ki koshish ki ho.
Ajkal marketing ke dwara ek rachna ke adhhar par hi jeevan paryant naam ya daam kamaya ja saktha hain. Uske paschaat hype ke adhaar par hi aap aane wali kayi rachnaon ko commercially successful bana sakthe hain. Durbhagya se vartmaan samay mein bhi kayi vyakthiyon ne yehi rastha akthiyaar kar rakha hain.
A.R.Rehman sahab ka udharan bhi le sakthe hain,hamari mansiktha yehi hain ki Videhesh mein mili safalta ke adhhar par hum bhartiyon ko bhi kisi vyakthi vishesh ko mahaan manne ke lye mazboor ya vishwaas karne ke liye kaha jaata hain.
CWG game ka geet ho, ya anya kayi picture mein music, ek pehle se hi baithi mansiktha ke adhaar par unke karya ko mahaan banane ki koshish corporate house ke dwara sanchalit media dwara kari jaati hain.
Aaj ke samay mein imandaari se baat kehne waalon ki sankhya bahut kum ho gayi hain.
Aaj hum apni indriiyon ke adhhar par prapt kiye gaye sandeshon ke adhaar par hi kisi cheez ke baare mein apni dharma kayam kar lete hain, bina soch vichaar ki kasuati mein parakh akrye, jo ki ek bahut hi durbhagyapyrn sthithi hain.
प्रशांत शीर्षक में ही जब अपनी 'निराशा' व्यक्त कर दी तो फिर अंत में तो ऐसा ही कुछ लिखना था ना।
प्रवीण हाँ इस किताब के पहले जितना भी उन्हें पढ़ा यही पाया था
रश्मि जी सहमत हूँ आपके कथन से
पराग हाँ ऐसे कई उदाहरण जहाँ लेखकों को उनकी एक कालजयी रचना ने उन्हें इतनी प्रसिद्धि दिला दी कि उसी के बल पर उनकी बाकी किताबें भी बिकती रहीं। चेतन भगत ने Five Point Someone और कुछ हद तक 2 States के बल पर कई औसत दर्जे की किताबें भी बिकवा लीं। पर जहाँ तक विमल दा की बात है उनके कई उपन्यास अपने कथ्य और रोचक शैली के लिए पसंद किए गए हैं। इस किताब के साथ वही बात रही होगी जिसका जिक्र रश्मि जी ने किया है।
ए आर रहमान ने जो काम साथिया, लगान, रोजा, जोधा अकबर और कई अन्य फिल्मों के लिए किया है उसका मैं मुरीद रहा हूँ। पर जिस फिल्म के लिए उन्हें Oscar मिला उसमें इन फिल्मों की तुलना में उनका काम मामूली था। आपकी बात से सहमत हूँ कि Oscar पुरस्कारों को भारतीय फिल्मों के परिपेक्ष्य में बेवज़ह इतना तूल दिया जाता रहा है।
manishji kafi samay baad apki pustak sambandhi koi samiksha padne ka awsar mila or acha laga ki yeh pustak aapko kaisi lagi yeh aapne kitne sapasht shabdon me likha...pihu
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