ज़रा बताइए तो अख़बार शब्द से आपके मन में कैसी भावनाएँ उठती हैं ? चाय की चुस्कियो् के साथ हर सुबह की आपकी ज़रूरत जिसके सानिध्य का आकर्षण कुछ मिनटों के साथ ही फीका पड़ जाता है। देश दुनिया से जोड़ने वाले काग़ज के इन टुकड़ों का भला कोई काव्यात्मक पहलू हो सकता है ....ये सोचते हुए भी अज़ीब सा अनुभव होता है। पर गुलज़ार तो मामूली से मामूली वस्तुओं में भी अपनी कविता के लिए वो बिंब ढूँढ लेते है जो हमारे सामने रहकर भी हमारी सोच में नहीं आ पाती। नहीं समझे कोई बात नहीं ज़रा गुलज़ार की इस त्रिवेणी पर गौर कीजिए
सामने आए मेरे, देखा मुझे, बात भी की
मुस्कुराये भी पुराने किसी रिश्ते के लिये
सामने आए मेरे, देखा मुझे, बात भी की
मुस्कुराये भी पुराने किसी रिश्ते के लिये
कल का अखबार था बस देख लिया रख भी दिया..
पर रिश्तों के बासीपन से अलग पुराने पड़ते अख़बार का भी हमारी ज़िंदगी में एक अद्भुत मोल रहा है। ज़रा सोचिए तो बचपन से आज तक इस अख़बार को हम कैसे इस्तेमाल करते आ रहे हैं? नागपुर में रहने वाले विवेक राणाडे (Vivek Ranade) , जो प्रोफेशनल ग्राफिक डिजाइनर होने के साथ साथ एक कुशल फोटोग्राफर भी हैं ने इसी थीम को ध्यान में रखते हुए कई चित्र खींचे। वैसे तो ये चित्र अपने आप में एक कहानी कहते हैं पर जब गुलज़ार उस पर अपनी बारीक सोच का कलेवर चढ़ाते हैं तो विचारों की कई कड़ियाँ मन में उभरने लगती हैं। तो आइए देखते हैं कि विवेक और गुलज़ार ने साल के बारह महिनों के लिए अख़बार के किन रूपों को इस अनोखी काव्य चित्र श्रृंखला में सजाया है ?
ख़ुद तो पान खाने की आदत नहीं रहीं पर पान के बीड़े को अख़बार में लपेट अतिथियों तक पहुँचाने का काम कई बार पल्ले पड़ा है ! इसीलिए तो गुलज़ार की इन पंक्तियों का मर्म समझ सकता हूँ जब वो कहते हैं...
ख़बर तो आई थी कि होठ लाल थे उनके'बनारसी' था कोई दाँतों में चबाया गया
वैसे क्या ये सही नहीं कि चूड़ियाँ भी सालों साल उन कलाइयों में सजने के पहले काग़ज के इन टुकड़ों की सोहबत में रह कर अपनी चमक बरक़रार रख पाती हैं !
ख़बर तो सबको थी कि चूड़ियाँ थी बाहों में
ना जाने क्या हुआ कुछ रात ही को टूट गयीं
मुबई की लोकल ट्रेनों में सफ़र करते हुए काग़ज़ के इन टुकड़ों में परोसे गए बड़ा पाव का ज़ायका बरबस याद आता है विवेक राणाडे की इस छवि को देखकर।
ये वादा था कोई भूखा नहीं रहेगा कहीं
वो वादा देखा है अख़बार में लपेटा हुआ
शायद ही कोई बचपन ऐसा होगा को जो बरसात में काग़ज़ की नावों और कक्षा के एक कोने
से दूसरे कोने में निशाना साध कर फेंके गए इन रॉकेटों से अछूता रहा हो..पर इन राकेटों से बारूद नहीं शरारत भरा प्यार बरसता था। इसीलिए तो गुलज़ार कहते हैं
असली रॉकेट थे बारूद भरा था उनमें
ये तो बस ख़बरें हैं और अख़बारें हैं
सोचिए तो अगर ये काग़ज़ के पुलिंदे ही ना रहें तो गर्व से फूले इन बैगों, बटुओं और जूतों के सीने क्या अपना मुँह दिखाने लायक रह पाएँगे..
फली फूली रहें जेबें तेरी और तेरे बटवे
इन्हीं उम्मीद की ख़बरों से हम भरते रहेंगे
बड़ी काग़ज़ी दोस्ती है नोट के साथ वोट की..:)
ख़बर थी नोट के साथ कुछ वोट भी चले आए
सफेद कपड़ों में सुनते हैं 'ब्लैक मनी' भी थी
काँच की टूटी खिड़कियाँ कबसे अपने बदले जाने की इल्तिजा कर रही हैं। पर घर के मालिक का वो रसूख तो रहा नहीं..दरकती छतें, मटमैली होती दीवारों की ही बारी नहीं आती तो इस फूटे काँच की कौन कहे। उसे तो बस अब अख़बार के इस पैबंद का ही सहारा है। गुलज़ार इस चित्र को अलग पर बेहद मज़ेदार अंदाज़ में आँकते हैं..
ख़ुफिया मीटिंग की हवा भी ना निकलती बाहर
इक अख़बार ने झाँका तो ख़बर आई है
याद कीजिए बचपन में बनाए गए उन पंखों को जो हवा देते नहीं पर माँगते जरूर थे :)
हवा से चलती है लेकिन हवा नहीं देती
ख़बर के उड़ने से पहले भी ये ख़बर थी हमें
किताबों की जिल्द के लिए अक़्सर मोटे काग़जों की दरकार होती। सबसे पहले पिछले सालों के कैलेंडर की सेंधमारी होती। उनके चुकने पर पत्रिकाओं के रंगीन पृष्ठ निकाले जाते। पर तब श्वेत श्याम का ज़माना था। कॉपियों का नंबर आते आते अख़बार के पन्ने ही काम में आते...
इसी महिने में आज़ादी आई थी पढ़कर
कई किताबों ने अख़बार ही लपेट लिए
कई बार अख़बार के पुराने ठोंगो के अंदर की सामग्री चट कर जाने के बाद मेरी नज़रें अनायास ही उन पुरानी ख़बरों पर जा टिकती थीं। कभी कभी तो वो इतनी रोचक होतीं कि उन्हें पूरा पढ़कर ही खाली ठोंगे को ठिकाना लगाया जाता। वैसे क्या आपके साथ ऐसा नहीं हुआ ?
धूप में रखी थी मर्तबान के अंदर
अचार से ज़्यादा चटपटी ख़बर मिली
बचपन में माँ की नज़र बचा काग़ज़ में आग लगाना मेरा प्रिय शगल हुआ करता था। दीपावली में अख़बार को मचोड़ कर एक सिरे पर बम की सुतली और दूसरे सिरे पर आग लगाने का उपक्रम सालों साल रोमांच पैदा करता रहा। जितना छोटा अख़बार उतनी तेज दौड़ ! कई बार तो अख़बार की गिरहों में फँसा बम अचानक से फट पड़ता जब हम उसके जलने की उम्मीद छोड़ उसका मुआयना करने उसके पास पहुँचते।
कुछ दिन भी सर्दियों के थे और बर्फ पड़ी थी
ऐसे में इक ख़बर मिली तो आग लग गई
साल के समापन का गुलज़ार का अंदाज़ निराला है
जैसी भी गुजरी मगर साल गया यार गया
Beach पर उड़ता हुआ वो अख़बार गया
इस कैलेंडर पर अपनी लिखावट से अक्षरों को नया रूप दिया है अच्युत रामचन्द्र पल्लव (Achyut Palav) ने। इस पूरे कैंलेंडर को पीडीएफ फार्मेट में आप यहाँ से डाउनलोड कर सकते हैं।
पुनःश्च इस लेख का जिक्र दैनिक हिंदुस्तान में भी
19 टिप्पणियाँ:
बहुत बढ़िया मनीष जी.......
इसके पहले कोई केलेंडर इतना भला नहीं लगा....
यूँ लगा कि काश के २४ महीने होते साल में...काश के ये साल कभी बीते न....
शुक्रिया..
अनु
वाह.. क्या कैलेन्डर है..!! क्या इसकी हार्डकापी भी कहीं से मिल सकती है..??
सर.. pdf वाली लिंक काम नहीं कर रही.. कृपया दुरुस्त कर दें....
प्रशांत हार्ड कॉपी का तो पता नहीं अलबत्ता पीडीएफ वाली लिंक दुरुस्त कर दी है। इस ओर ध्यान दिलाने के लिए आभार !
सुंदर केलेण्डर ,फरवरी और अगस्त नहीं खुले ...
completely agree with what Anu said ... thanks a ton Manish, this is my best discovery so far in the year :)
also loved what you wrote before each month!
अनु जी अगर मनुष्य की असीम सृजनात्मक क्षमता का प्रयोग किया जाए तो ना जाने ऍसी कितने कैलेंडर निर्मित हो जाएँ। पर दिक्कत ये है कि जहाँ पैसा है वहाँ ऐसी सोच नहीं है। एक कैलेंडर विजय मलैया भी बनाते हैं जिस पर इतनी चर्चा होती है, पैसा पानी की तरह बहाया जाता है। विवेक राणाडे के इस प्रयास की जितनी तारीफ़ की जाए कम होगी और गुलज़ार तो गुलज़ार हैं ही।
वाह ..... क्या बात है आपकी ये पोस्ट सच में बहुत रोचक है ....अगले साल के कैलेंडर का इंतज़ार अभी से शुरू हो गया ...क्या ऐसा होगा ?
एक कागज़ का पुर्ज़ा और चंद अलफ़ाज़ थे
सपनों से लबरेज़ थे कुछ आदतन उदास थे
विवेक रानाडे सही में एक नया क्रेटिव ले आये..
गुलज़ार के शब्दों को चित्र देना आसान न था..
जैसे विवेक के चित्रों को शब्द देना .
मनीष कुमार जी आपको इस प्रस्तुति के लिए दिल से साधुवाद.
When read completely then i found it to be superb.
बहुत खूब। आज के हिन्दी दैनिक हिन्दुस्तान में भी इस पोस्ट के कुछ अंश हैं।
manishji chitr to swayam bol uthte hain par yahan to shabd chitron ke sehpathi ban gaye bhut he acha hai yeh sath or apki nayi nayi khojo ko samne lane ka sabke sath sazha karne ka dhanyawad...
Congratulations beautifully written !aap itne links kaise khoj lete hai its too good.
Sundar:-))Ab sahi mayane main Gulzar ka akhbaar likhna sarthak hua:-))
एक अखबार के इतने रूप और शब्दों की इतनी प्यारी थपकी..वाह..
Gulzar Sahab is really the great poet and we are fortunate to be born in his era.
महीनों और अखबार पर कही गुलज़ार साब की इन बातों से यूँ तो पहले मुलाकात हो चुकी है मगर ये मुलाकात जितनी बार हो उतना ज्यादा मज़ा देती है।
दैनिक हिन्दुस्तान में इस लेख के आने पर बधाई।
अर्चना जी, प्रवीण, शांगरीला, दीपक बाबा, जगदीश जी, प्रवीण, अनुमेहा, सिफ़र शायर, अंकित, पीहू आप सबने गुलज़ार और विवेक राणाडे के इस कैलेंडर को पसंद किया, अच्छा लगा।
सुपर्णा इतनी व्यस्तता के बीच अपनी राय रखने के लिए धन्यवाद !
शिखा जी एक अच्छे शेर से रूबरू कराया आपने। अगले साल के कैलेंडर में तो अभी देर है। वैसे इसके पहले भी गुलज़ार और विवेक पिछले साल एक ऐसा ही कैलेंडर बना चुके हैं।
अनूप जी आपकी सूचना से ही पता चला कि इस लेख का अंश हिंदुस्तान में छपा है। धन्यवाद !
अदभुत ! इस अद्वितीय साझेदारी और रचनात्मकता को पढ़ने का अवसर मिला .आपका आभार !
आपकी इस पोस्ट को आज के शुभ दिन ब्लॉग बुलेटिन के साथ गुलज़ार से गुल्ज़ारियत तक पर शामिल किया गया है....
एक टिप्पणी भेजें