ज़िंदगी की दौड़ में आगे भागने की ज़द्दोज़हद मे हमें कई सीढ़ियाँ पार करनी पड़ती हैं। हर सीढ़ी पर चढ़ने में नामालूम कितने जाने अनजाने चेहरों की मदद लेनी पड़ती है। पर जब हम शिखर पर पहुँचते हैं तो कई बार उन मजबूत हाथों और अवलंबों को भूल जाते हैं जिनके सहारे हमने सफलता की पॉयदानें चढ़ी थीं।
जाने माने कवि हरिवंश राय बच्चन ने अपने काव्य संग्रह 'कटती प्रतिमाओं की आवाज़' में एक बेहद सहज पर दिल को छू लेने वाली कविता लिखी थी। देखिए इंसानों की इस प्रवृति को एक पेड़ के बिंब द्वारा कितनी खूबसूरती से उभारा है बच्चन साहब ने..
जाने माने कवि हरिवंश राय बच्चन ने अपने काव्य संग्रह 'कटती प्रतिमाओं की आवाज़' में एक बेहद सहज पर दिल को छू लेने वाली कविता लिखी थी। देखिए इंसानों की इस प्रवृति को एक पेड़ के बिंब द्वारा कितनी खूबसूरती से उभारा है बच्चन साहब ने..
एक दिन तूने भी कहा था,
जड़?
जड़ तो जड़ ही है,
जीवन से सदा डरी रही है,
और यही है उसका सारा इतिहास
कि ज़मीन में मुँह गड़ाए पड़ी रही है,
लेकिल मैं ज़मीन से ऊपर उठा,
बाहर निकला, बढ़ा हूँ,
मज़बूत बना हूँ,
इसी से तो तना हूँ।
तना?
किस बात पर है तना?
जहाँ बिठाल दिया गया था वहीं पर है बना;
प्रगतिशील जगती में तील भर नहीं डोला है,
खाया है, मोटाया है, सहलाया चोला है;
लेकिन हम तने में फूटीं,
दिशा-दिशा में गयीं
ऊपर उठीं,
नीचे आयीं
हर हवा के लिए दोल बनी, लहरायीं,
इसी से तो डाल कहलायीं।
एक दिन पत्तियों ने भी कहा था,
डाल?
डाल में क्या है कमाल?
माना वह झूमी, झुकी, डोली है
ध्वनि-प्रधान दुनिया में
एक शब्द भी वह कभी बोली है?
लेकिन हम हर-हर स्वर करतीं हैं,
मर्मर स्वर मर्म भरा भरती हैं
नूतन हर वर्ष हुईं,
पतझर में झर
बाहर-फूट फिर छहरती हैं,
विथकित चित पंथी का
शाप-ताप हरती हैं।
एक दिन फूलों ने भी कहा था,
पत्तियाँ?
पत्तियों ने क्या किया?
संख्या के बल पर बस डालों को छाप लिया,
डालों के बल पर ही चल चपल रही हैं;
हवाओं के बल पर ही मचल रही हैं;
लेकिन हम अपने से खुले, खिले, फूले हैं-
रंग लिए, रस लिए, पराग लिए-
हमारी यश-गंध दूर-दूर दूर फैली है,
भ्रमरों ने आकर हमारे गुन गाए हैं,
हम पर बौराए हैं।
सबकी सुन पाई है,
जड़ मुस्करायी है!
जड़ की इस मुस्कुराहट से जनाब राहत इंदौरी का ये शेर याद आता है।
ये अलग बात कि ख़ामोश खड़े रहते हैं
फिर भी जो लोग बड़े हैं वो बड़े रहते है
इस चिट्ठे पर हरिवंश राय 'बच्चन' से जुड़ी कुछ अन्य प्रविष्टियाँ
8 टिप्पणियाँ:
i prefer to read hariwansh rai bachhan i like his poetry
प्रभावित करती पंक्तियाँ, यह आत्मालाप हमारी क्रूरता का विलाप है।
बहुत दिनों बाद कविताओं पर लौटे आप। वाकई सरल शब्दों में गूढ़ बात..
सार्थक कविता.. बहुत कुछ सीख सकते हैं हम इस कविता से.....
Bahut khoob Manish Ji.
सुषमा जी मुझे भी हरिवंश राय बच्चन की कविताएँ पसंद हैं। उनकी पसंदीदा कविताओं से जुड़ी लिंक मैंने इस पोस्ट में भी शामिल कर दी है।
दीपिका अभी हरिवंश राय बच्चन की किताब पढ़ी जा रही है इसीलिए। उनकी कुछ कविताओं को आगे भी सस्वर पढ़ने की इच्छा है।
प्रवीण पते की बात कही आपने।
सुमित, प्रशांत कविता पसंद करने के लिए शुक्रिया..
एक बार यह कविता कहीं पढ़ी थी। यह जाना कि यह उनके संग्रह ’कटती प्रतिमाओं की आवाज’में संग्रहित है। बच्चन जी की कविताओं में संप्रेषणीयता बहुत है। इस चिट्ठे पर ऐसा ही कुछ गहरे जोड़ता है।
इंदौरी साहब का शेर तो मारक ही है। बहुत आभार।
यह कविता बचपन में पढा था स्कूल पाठ्यक्रम में आज बचपन याद आ रहा है
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