पिछली बार विमल मित्र की किताब 'एक और युधिष्ठिर' के बारे में चर्चा करते हुए मैंने उसे आपको ना पढ़ने की सलाह दी थी, पर आज जिस पुस्तक की बात मैं आपसे करूँगा ना सिर्फ वो पढ़ने योग्य है बल्कि सहेज के रखने लायक भी। दरअसल इब्ने इंशा की लिखी 'उर्दू की आख़िरी किताब' की तलाश मुझे वर्षों से थी। हर साल राँची के पुस्तक मेले में जाता और खाली हाथ लौटता। ये किताब आनलाइन भी सहजता से मिल सकती है इसका गुमान ना था। पर जब अचानक ही एक दिन राजकमल प्रकाशन के जाल पृष्ठ पर ये किताब दिखी तो वहीं आर्डर किया और एक सप्ताह के अंदर किताब मेरे हाथों में थी। इससे पहले इब्ने इंशा की ग़ज़लों व गीतों से साबका पड़ चुका था पर उनके व्यंग्यों की धार का रसास्वादन करने से वंचित रह गया था।
वैसे अगर आप अभी तक इब्ने इंशा के लेखन से अपरिचित हैं तो इतना बताना लाज़िमी होगा कि भारत के जालंधर जिले में सन् 1927 में जन्मे इंशा , उर्दू के नामी शायर, व्यंग्यकार और यात्रा लेखक के रूप में जाने जाते हैं।। वैसे उनके माता पिता ने उनका नाम शेर मोहम्मद खाँ रखा था पर किशोरावस्था में ही उन्होंने अपने आप को इब्ने इंशा कहना और लिखना शुरु कर दिया। इंशा जी के लेखन की ख़ासियत उर्दू के अलावा हिंदी पर उनकी पकड़ थी। यही वज़ह है कि उनकी शायरी में हिंदी शब्दों का भी इस्तेमाल प्रचुरता से हुआ है। लुधियाना में अपनी प्रारंभिक शिक्षा पूरी करने के बाद इंशा जी विभाजन के बाद कराची चले गए। इस दौरान पहले आल इंडिया रेडिओ और पाकिस्तानी रेडिओ में काम किया। पाकिस्तान में पहले क़ौमी किताब घर के निदेशक और फिर यूनेस्को के प्रतिनिधि के तौर पर भी उन्होंने अपना योगदान दिया। इस दौरान उन्होंने इस व्यंग्य संग्रह के अतिरिक्त भी कई किताबें लिखीं जिनमें चाँदनगर, इस बस्ती इस कूचे में और आवारागर्द की डॉयरी प्रमुख हैं।
'उर्दू की आख़िरी किताब' व्यंग्य लेखन का एक अद्भुत नमूना है जिसका अंदाज़े बयाँ बिल्कुल नए तरीके का है। आपको जानकर ताज्जुब होगा कि ये पूरी किताब एक पाठ्यपुस्तक की शैली में लिखी गई है जिसमें इतिहास, भूगोल, गणित, विज्ञान और नीति शिक्षा के अलग अलग पाठ हैं। इन पाठों में इंशा जी ने जो ज्ञान बाँटा है उसे पढ़कर हो सकता है आपको अपनी अब तक की शिक्षा व्यर्थ लगे। इंशा जी को भी इस बात का इल्म था इसीलिए किताब की शुरुआत में वो कहते हैं
ये किताब हमने लिख तो ली लेकिन जब छपाने का इरादा हुआ तो लोगों ने कहा, ऐसा ना हो कि कोर्स में लग जाए। बोर्ड वाले इसे मंजूर कर लें और अज़ीज़ तालिब इल्मों का ख़ूनेनाहक हमारे हिसाब में लिखा जाए, जिनसे अब मलका ए नूरजहाँ के हालात पूछे जाएँ तो मलका ए तरन्नुम नूरजहाँ के हालात बताते हैं।
इंशा ख़ुद ही अपनी इस कृति को मज़ाहिया लहजे में बाकी की 566 कोर्स की किताबों को व्यर्थ साबित करने की ख़तरनाक कोशिश मानते हैं। इंशा जी को अंदेशा है कि इसे पढ़कर तमाम तालिब इल्म (विद्यार्थी) उस्ताद और उस्ताद तालिब इल्म बन जाएँ।
इस किताब के अनुवादक अब्दुल बिस्मिल्लाह बखूबी इन शब्दों में इस किताब को सारगर्भित करते हैं
इंशा के व्यंग्य में जिन बातों को लेकर चिढ़ दिखाई देती है वो छोटी मोटी चीजें नहीं हैं। मसलन विभाजन, हिंदुस्तान पाकिस्तान की अवधारणा, मुस्लिम बादशाहों का शासन, आजादी का छद्म, शिक्षा व्यवस्था, थोथी नैतिकता, भ्रष्ट राजनीति आदि। अपनी सारी चिढ़ को वे बहुत गहन गंभीर ढंग से व्यंग्य में ढालते हैं ताकि पाठकों को लज़्ज़त भी मिले और लेखक की चिढ़ में वो ख़ुद को शामिल महसूस करे।
हम अंग्रेजो् से तो स्वाधीन हो गए पर बदले में हमने जिस हिंदुस्तान या पाकिस्तान की कल्पना की थी क्या हम वो पा सके ? इंशा जी इसी नाकामयाबी को कुछ यूँ व्यक्त करते हैं
अंग्रेजों के ज़माने में अमीर और जागीरदार ऐश करते थे। गरीबों को कोई पूछता भी नहीं था। आज अमीर लोग ऐश नहीं करते और गरीबों को हर कोई इतना पूछता है कि वे तंग आ जाते हैं।
आज़ादी के पहले हिंदू बनिए और सरमायादार हमें लूटा करते थे। हमारी ये ख़्वाहिश थी कि ये सिलसिला ख़त्म हो और हमें मुसलमान बनिए और सेठ लूटें।
इतिहास के पूराने दौरों को इंशा की नज़र आज के परिपेक्ष्य में देखती है। अब देखिए पाषाण युग यानि पत्थर के दौर को इंशा की लेखनी किस तरीके से शब्दों में बाँधती है..
राहों में पत्थरजलसों में पत्थरसीनों में पत्थरअकलों में पत्थर.......................पत्थर ही पत्थरये ज़माना पत्थर का ज़माना कहलाता है...
वहीं आज के समय के बारे में इंशा का कटाक्ष दिल पर सीधे चोट करता है। इंशा इस आख़िरी दौर को वो कुछ यूँ परिभाषित करते हैं..
इंशा जी इस उपमहाद्वीप के इतिहास को इस तरीके से उद्घाटित करते हैं कि उनके बारे में सोचने का एक नया नज़रिया उत्पन्न होता है। गणित व विज्ञान के सूत्रों को वो हमें नए तरीके से समझाते हैं। नीति शिक्षा से जुड़ी उनकी कहानियों को पढ़कर शायद ही कोई हँसते हँसते ना लोटपोट हो जाए। बहरहाल इस पोस्ट को ज्यादा लंबा ना करते हुए इस किताब के बेहद दिलचस्प पहलुओं पर ये चर्चा ज़ारी रखेंगे इस प्रविष्टि के अगले भाग में...
पेट रोटी से खाली
जेब पैसे से खाली
बातें बसीरत (समझदारी) से खाली
वादे हक़ीकत से खाली
...............................
ये खलाई दौर (अंतरिक्ष युग, Space Age) है
इंशा जी इस उपमहाद्वीप के इतिहास को इस तरीके से उद्घाटित करते हैं कि उनके बारे में सोचने का एक नया नज़रिया उत्पन्न होता है। गणित व विज्ञान के सूत्रों को वो हमें नए तरीके से समझाते हैं। नीति शिक्षा से जुड़ी उनकी कहानियों को पढ़कर शायद ही कोई हँसते हँसते ना लोटपोट हो जाए। बहरहाल इस पोस्ट को ज्यादा लंबा ना करते हुए इस किताब के बेहद दिलचस्प पहलुओं पर ये चर्चा ज़ारी रखेंगे इस प्रविष्टि के अगले भाग में...
किताब के बारे में
प्रकाशक राजकमल प्रकाशन
पृष्ठ संख्या १५४
मूल्य पेपरबैक मात्र साठ रुपये..
एक शाम मेरे नाम पर इब्ने इंशा
19 टिप्पणियाँ:
आपकी समीक्षा पढ़कर पुस्तक पढ़ने की इच्छा हो रही है. धन्यवाद इस जानकारी के लिए..
सार्थक जानकारी हेतु आभार !
अवसर मिला तो निश्चय ही पढ़ेंगे।
हमारे पास है ये किताब.....
वाकई लाजवाब है..
हमने कुछ पंक्तियाँ फेसबुक पर शेयर भी की हैं...
वो चिड़िया और चिडे का क़िस्सा....
आभार
अनु
सार्थक जानकारी लाजवाब
adbhoot hai !
vakai is ansh ko padhne k bad poori kitab padhne ki lalak jag gayee..
मेरी पसंदीदा किताबों में से एक... बेहतरीन व्यग.
मनीष जी : आप ने बताया तो हम इस किताब को खरीद लेंगे और पढ़ भी लेंगे .. पर एक बात पूछने की है के अगर इतना ही इब्ने ईशा को विभाजन का दुःख था तो दौड के इस्लामी जन्नत मैं चले क्यूँ गए थे.. जब स्वप्न टुट गया तो किताबें लिखने लगे .. मन मैं तो इनके भी कंही था बाकी ओर्रों की तरह के हिंदुओं के नहीं रह पाएंगे और इस्लामी राज्य चाहिए .. एइसा ही एक और हुआ करता था इकबाल जो अद्भुत कवि था जिसने लिखा था 'सारे जंहा से आचा हिन्दोस्तां हमारा' जो बाद मैं भारत के विभाजन का सबसे बड़ा पैरोकार बना .. कैसे मान ले के ये लोग इतने ही मासूम थे और इनके मन मैं सब गरीबों का भला करने की बात थी केवल मुसलमान गरीबो का नहीं ??
रविशंकर जिस आशा के साथ विभाजन हुआ वो उम्मीद इब्ने इंशा जैसे पाकिस्तानी शायर के हिसाब से पूरी नहीं हुई और ऊपर का कटाक्ष उस पर है। इंशा भी इसी उम्मीद से पाक गए होंगे। इसमें मासूमियत का सवाल कहाँ से पैदा होता है? विभाजन के बाद एक देश चुनने का मतलब ये नहीं होता कि किसी की सारी विचारधारा उस सोच की पक्षधर हो गई।
गाँधीजी विभाजन के घोर विरोधी थे। आजादी के समय भी बंगाल में दंगों से जन्मे उन्माद को शांत करने के लिए गाँव गाँव घूमते रहे। पर विभाजन हुआ और उन्होंने बाकी की ज़िंदगी भारत में बिताई जितनी लोगों ने रहने दी।
बहरहाल आपकी सोच अपनी जगह है। एक अच्छे व्यंग्य संग्रह के नाते आप इसे पढ़ सकते हैं पर अगर आप इसे धर्म के रंगों से देखेंगे तो शायद कई जगह आपको ये किताब निराश करेगी।
वाकई इस पुस्तक का जवाब नहीं
मनीष जी बहुत सुन्दर प्रस्तुति आपकी, पढ़कर अच्छा लगा, आप रांची से हैं, यह देखकर ख़ुशी दुगुणित हो गयी. कभी मौका मिले तो मेरे ब्लॉग पर पधारें :
KAVYA SUDHA (काव्य सुधा)
अनु जी एकता में बल है और कछुए और खरगोश की कहानियाँ भी मज़ेदार है। मैंने तो घर में पढ़कर सबको सुनाई। बच्चे और बड़े सभी हँस हँस कर लोटपोट हो गए। अपनी आवाज़ में वो कहानी रिकार्ड भी की है। अगली पोस्ट में आप सबसे शेयर करूँगा।
इंतज़ार रहेगा Manish जी.......बच्चों से सवाल हमने भी किया था कि अर्जुन ने मछली की आँख में तीर मारने के सिवा जीवन में और कौन सा तीर चलाया :p
ab ro pustak padhne ki ichcha jagrit ho gayi
पुस्तक चर्चा को पसंद करने के लिए आप सब का धन्यवाद ! मेरी सलाह यही है कि अगर आप सब की व्यंग्य लेखन में रुचि हो तो इस पुस्तक को अवश्य पढ़ें।
manish ji
Insha sahab ko talashte hue aapke blog par pahuchi...achcha laga; darasl mujhe ek nazam ki talash hai jiski lines hain :" ek pari shalat ki rani..." insha sahab ki hi hai, kabhi madad kar de to bahut maharbani hogi.-Lori
लोरी जी वो नज़्म मेरे पास है। दरअसल इंशा जी की उस नज़्म का नाम पिछले पहर के सन्नाटे में है, शायद आपने इस नाम से गूगल पर खोजा नहीं होगा। आपको कहाँ भेजूँ?
आदरणीय रविशंकर जी!
सादर प्रणाम!!! इक़बाल साहब के बारे में आपकी जानकारी में इज़ाफा करते हुए कहना चाहूँगा कि “ हज़रत इक़बाल का निधन 21 अप्रेल 1938 का है और पाकिस्तान बनने की कल्पना भारत के आज़ाद होने के भी एक दिन बाद की है . जनाब !! भारत 1947 में आज़ाद हुआ....पता नही हम कौन से पाकिस्तान से इक़बाल साहब को जोड रहे हैं .....अफसोस की बात है.....राजनिती के धब्बों ने इस देश के एक फिलोसफर को भी लील डाला.... मनीष जी की ज़हानत की दाद देते हुए कहना चाहुंगा कि :
“दुश्मनी सरहद से हो, सरहद पे’ हो तब भी भली
ये कहां का अद्ल कि! हम भी हमारे ना रहें”
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